abhinay by munshi premchand
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रात को गुरु प्रसाद के घर मित्रों की दावत हुई। दूसरे दिन कोई छह बजे पाँचों आदमी सेठजी के पास जा पहुँचे। संध्या का समय हवाखोरी का है। आज मोटर पर न आने के लिए बना-बनाया बहाना था। सेठजी आज बेहद खुश नजर आते थे। कल की वह मुहर्रमी सूरत अंतर्धान हो गई थी। बात-बात पर चहकते थे, हँसते थे, जैसे लखनऊ का कोई रईस हो। दावत का सामान तैयार था। मेजों पर भोजन चुना जाने लगा। अंगूर, संतरे, केले, सूखे मेवे, कई किस्म की मिठाइयाँ, कई तरह के मुरब्बे, शराब आदि सजा दिये गए और यारों ने खूब मजे से दावत खायी।

सेठजी मेहमाननवाजी के पुतले बने हुए हरेक मेहमान के पास आ-आकर पूछते- कुछ और मँगवाऊँ? कुछ तो और लीजिए। आप लोगों के लायक भोजन यहाँ कहाँ बन सकता है।

भोजन के उपरांत लोग बैठे, तो मुआमले की बातचीत होने लगी। गुरु प्रसाद का हृदय आशा और भय, से काँपने लगा।

सेठजी- हुजूर ने बहुत ही सुन्दर नाटक लिखा है। क्या बात है।

ड्रामेटिस्ट- यहाँ जनता अच्छे कामों की कद्र नहीं करती, नहीं तो यह ड्रामा लाजवाब होता।

सेठजी- जनता कद्र नहीं करती, न करे, हमें जनता की बिलकुल परवाह नहीं है, रत्ती बराबर परवाह नहीं है। मैं इसकी तैयारी में 10 हजार केवल बाबू साहब की खातिर से खर्च कर दूँगा। आपने इतनी मेहनत से एक चीज लिखी है, तो मैं उसका प्रचार भी उतने ही हौसले से करूंगा। हमारे साहित्य के लिए क्या यह कुछ कम सौभाग्य की बात है कि आप जैसे अज्ञान पुरुष इस क्षेत्र में आ गए। वह कीर्ति हुजूर को अमर बना देगी।

ड्रामेटिस्ट- मैंने ऐसा ड्रामा आज तक नहीं देखा, लिखता मैं भी हूँ और लोग भी लिखते हैं। लेकिन आपकी उड़ान को कोई क्या पहुँचेगा। कहीं-कहीं तो आपने शेक्सपियर को भी मात कर दिया है।

सेठजी- यों जनाब, जो चीज दिल की उमंग से लिखी जाती है, वह ऐसी ही अद्वितीय होती है। शेक्सपियर ने जो कुछ लिखा, रुपये के लोभ से लिखा। हमारे दूसरे नाटककार भी धन ही के लिए लिखते हैं। उनमें वह बात कहां पैदा हो सकती है? गोसाईं जी की रामायण क्यों अमर है? इसी लिए कि वह भक्ति और प्रेम से प्रेरित होकर लिखी गई है। सादी की गुलिस्ताँ और बोस्ता, होमर की रचनाएँ इसीलिए स्थायी हैं, कि उन कवियों ने दिल की उमंग से लिखा। जो उमंग से लिखता है, वह एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य, एक-एक उक्ति पर महीनों खर्च कर देता है। धनेच्छु को तो एक काम जल्दी से समाप्त करके दूसरा काम शुरू करने की फिक्र होती है।

ड्रामेटिस्ट- आप बिलकुल सत्य कह रहे हैं। हमारे साहित्य की अवनति केवल इसलिए हो रही है कि हम सब धन के लिए या नाम के लिए लिखते हैं।

सेठजी- सोचिए, आपने दस साल केवल संगीतालय में खर्च कर दिए। लाखों रुपये कलावंतों और गायकों को दे डाले होंगे। कहीं-कहीं से और कितने परिश्रम और खोज से इस नाटक की सामग्री एकत्र की। न जाने कितने राजाओं-महाराजाओं को सुनाया। इस परिश्रम और लगन का पुरस्कार कौन दे सकता है?

ड्रामेटिस्ट- मुमकिन ही नहीं। ऐसी रचनाओं के पुरस्कार की कल्पना करना उनका अनादर करना है। इनका पुरस्कार यदि कुछ है तो वह अपनी आत्मा का संतोष है, यह संतोष आपके एक-एक शब्द से प्रकट होता है।

सेठजी- आपने बिलकुल सत्य कहा कि ऐसी रचनाओं का पुरस्कार अपनी आत्मा का संतोष है। यश तो बहुधा ऐसी रचनाओं को मिल जाता है, जो साहित्य का कलंक हैं। आपसे ड्रामा ले लीजिए और आज ही पार्ट तकसीम कर दीजिए। तीन महीने के अंदर इसे खेल डालना होगा।

मेज़ पर ड्रामे की हस्तलिपि पड़ी हुई थी। ड्रामेटिस्ट ने उसे उठा लिया। गुरु प्रसाद ने दीन नेत्रों से विनोद की ओर देखा। विनोद ने अमर की ओर, अमर ने रसिक की ओर, पर शब्द किसी के मुँह से न निकला। सेठजी ने मानो सभी के मुँह सी दिये हों। ड्रामेटिस्ट साहब किताब लेकर चल दिये।

सेठजी ने मुस्कुराकर कहा- हुजूर को थोड़ी सी तकलीफ और करनी होगी। ड्रामा का रिहर्सल शुरू हो जाएगा, तो आपको थोड़े दिनों कम्पनी के साथ रहने का कष्ट उठाना पड़ेगा। हमारे ऐक्टर अधिकांश गुजराती हैं। वह हिंदी भाषा के शब्दों का शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते। कही-कहीं शब्दों पर अनावश्यक जोर देते हैं। आपकी निगरानी से यह सारी बुराइयां दूर हो जाएँगी। ऐक्टरों ने यदि पार्ट अच्छा न किया, तो आपके सारे परिश्रम पर पानी पड़ जाएगा। यह कहते हुए उसने लड़के को आवाज दी-बॉय! आप लोगों के लिए सिगार लाओ। सिगार आ गया। सेठजी उठ खड़े हुए। यह मित्र-मंडली के लिए विदाई की सूचना थी। पाँचों सज्जन भी उठे। सेठजी आगे-आगे द्वार तक आये। फिर सबसे हाथ मिलाते हुए कहा- आज इस गरीब कम्पनी का तमाशा देख लीजिए। फिर यह संयोग न जाने कब प्राप्त हो।

गुरु प्रसाद ने मानो किसी कब्र के नीचे से कहा- हो सका तो आ जाऊंगा। सड़क पर आकर चारों मित्र खड़े होकर एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। अब पाँचों ही जोर से कहकहा मारकर हँस पड़े।

विनोद ने कहा- यह हम सबका गुरुघंटाल निकला।

अमर- साफ आँखों में धूल झोंक दी।

रसिक- मैं उसकी चुप्पी देखकर पहले ही से डर रहा था कि यह कोई पल्ले सिरे का घाघ है।

मस्तराम- मान गया इसकी खोपड़ी को। यह चपत उम्र भर न लेगी।

गुरु प्रसाद इस आलोचना में शरीक न हुए। वह इस तरह सिर झुकाए चले जा रहे थे, मानो अभी तक वह स्थिति को समझ ही न पाए हों।

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