phoolon ke prati prem
phoolon ke prati prem

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ भिन्न किस्म के व्यक्ति थे। उनका एक शौक था फूलों को देखना, सहलाना और देखते रहना। वे पौधे तक जाते। सुंदर-सुंदर फूलों के पास खड़े होते। उनसे बातें करते। लौट आते। उनकी फुलवाड़ी में भांति-भांति के फूल खिले रहते। बारह महीनों में कई रंगों के फूल देखने को मिलते उनकी बगिया में। उनसे मिलने के लिए एक मित्र आए। दोनों ड्राइंग रूम में बैठे। मित्र ने चारों ओर नजर दौड़ाई। फूलदान भी रखे थे। मगर उनमें एक भी फूल नहीं था। वह जानता था कि जॉर्ज को फूल बहुत पसंद हैं। इसीलिए पूछ लिया- “मित्र क्या तुम्हारी रुचि बदल गई है?”

‘वह कैसे?’

‘आपको फूल बहुत पसंद थे?”

“वह तो अब भी हैं मेरी फूलों के प्रति रुचि कभी बदल ही नहीं सकती।”

“अापके गुलदस्तों में एक भी फूल नहीं। यह क्यों? क्या फूलों से प्रेम नहीं रहा जॉर्ज?”

‘मेरा फूलों के प्रति प्रेम यथावत है। प्रेम तो मैं अपने बच्चों से भी बहुत करता हूँ। तो क्या मैं उनकी गर्दनें काटकर मेज पर सजा दूं या दीवार पर लटका दूं।”

“नहीं, नहीं, मेरा यह मतलब नहीं है।”

“मित्र! मैं तुम्हारे मतलब को जानता हूँ। फूलों से प्रेम करता हूँ तथा उन्हें बगिया में, पौधों पर महकता झूमता ही देखना चाहता हूँ। तोड़कर फूलदान में टांकना क्रूरता है। प्रेम की निशानी नहीं।

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मुझे नींव का पत्थर ही रहने दो

लाल बहादुर शास्त्री हंसमुख स्वभाव के थे। लोग उनकी भाषण देने की कला, निस्वार्थ सेवा भावना जैसे गुणों के कायल थे। लेकिन जब वह लोकसेवा मंडल के सदस्य बने तो संकोची स्वभाव के हो गए थे। वह समाचार-पत्रें में नाम छपवाने, प्रशंसा आदि के इच्छुक नहीं थे।

एक दिन उनके मित्र ने पूछा, ‘आप समाचार-पत्रें में नाम छपवाने से परहेज क्यों करते हैं?”

तब शास्त्रीजी बोले, “लाला लाजपतराय ने लोकसेवा मंडल के कार्य की सीख देते हुए बताया था कि ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं – एक संगमरमर के, जिनकी प्रशंसा सभी लोग करते हैं। दूसरे वह पत्थर भी हैं जो ताजमहल की नींव में लगे हैं। लेकिन वही ताजमहल का आधार हैं। उनके यह शब्द मुझे आज भी याद हैं, इसीलिए मैं नींव का पत्थर ही बने रहने का इच्छुक हूँ।”

ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंIndradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)