mulla nasruddin bhag 35
mulla nasruddin bhag 35

Mulla Nasruddin ki kahaniya: ‘क्यों बे चालबाज़ !’ थैले में ठोकर मारते हुए सिपाही चिल्लाए । उनके हथियार ठीक उसी तरह खड़क रहे थे जिस तरह ज़िनों के ताँबे के पंख खड़कते हैं, ‘यह बदमाशी? हमने कब्रिस्तान का चप्पा-चप्पा छान डाला लेकिन कुछ भी हाथ नहीं लगा। ठीक-ठीक बता, कहाँ हैं वे दस हज़ार तके ?’
सूदखोर ने अपना पाठ अच्छी तरह रट लिया था ।
‘ताँबे जैसी ढाल है जिसकी उसका माथा ताँबे का।’ थैले के अंदर से सूदखोर बोला, ‘उकाब के पर उल्लू। ऐ ज़िन, तू पूछता है पता उस रकम का जो तूने छिपाई नहीं। इसलिए पलट और चूम मेरे गधे की दुम । ‘
यह सुनकर सिपाही गुस्से से बौखला उठे ।
‘तूने धोखा दिया है जलील कुत्ते। हमें बेवकूफ़ बनाया है। देखो न, थैला धूल से भरा है। हम लोगों के जाने के बाद लोट-पोटकर निकल भागने की कोशिश की थी इसने । अब गीदड़ की औलाद, तुझे यह चालबाज़ी महँगी पड़ेगी । ‘
फिर वे थैले की मुक्कों से कुटाई करने लगे। फिर लोहे के नालदार जूतों से उसे अच्छी तरह रौंदा। लेकिन सूदखोर चिल्लाता रहा-

‘ताँबे जैसी ढाल है
जिसकी …
!’
सिपाही और भी भिन्ना उठे। जी में आया कि इस बदमाश को यहीं मार डालें लेकिन वे ऐसा कर नहीं
सकते थे। उन्होंने थैला उठाया और तेज़ी से तालाब की ओर चल दिए।
नसरुद्दीन पेड़ की आड़ से निकलकर सिंचाई की नहर के किनारे आ गया। हाथ-मुँह धोकर लबादा उतारा और रात की ठंडी हवा में आज़ादी की साँस ली।
उसने एक सुरक्षित स्थान देखकर अपना लबादा छिपा दिया और एक पत्थर सिरहाने रखकर लेट गया।
समय की कमी पूरी करने के लिए सिपाही तेज़ी से तालाब की ओर चल पड़े थे। अंत में वे दौड़ने लगे। थैले में धक्के और हिचकोले खाता हुआ सूदखोर इत्मीनान से इस अनोखे सफ़र के ख़त्म होने का इंतज़ार कर रहा था। सिपाहियों के हथियारों की झनझनाहट और उनके बूटों के नीचे पत्थरों की खड़-खड़ सुनते हुए वह सोच रहा था कि ये ताक़तवर जिन उड़ क्यों नहीं रहे? अपने ताँबे के पंखों को ज़मीन पर रगड़ते हुए मुर्गे की तरह क्यों दौड़ रहे हैं? ‘
दूर पहाड़ी झरने जैसी आवाज़ सुनाई दी तो सूदखोर ने समझा कि जिन शायद अपने रहने की जगह, रूहों की चोटी पर पहुँच गए हैं। लेकिन तभी इन्सानों की आवाज़ें सुनाई देने लगीं। शोर-शराबे से वह समझ गया कि यहां हज़ारों आदमी इकट्ठे हैं, बाज़ार की तरह। लेकिन बुखारा में रात के वक्त बाज़ार लगता ही नहीं था ।
अचानक उसे लगा, वह ऊपर उठ रहा है। तो आख़िरकार जिनों ने हवा में उड़ने का फ़ैसला कर ही लिया। उसे कैसे मालूम हो सकता था कि सिपाही थैले को तख़्ते पर पहुँचाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं। ऊपर पहुँचकर उन्होंने थैले को पटक दिया। थैले के बोझ से तख़्ता हिला और चरमराया । सूदखोर कराह उठा, ‘अरे ओ जिन्नो,’ उसने चिल्लाकर कहा, ‘अगर तुमने थैले को इस तरह पटकना शुरू किया तो इलाज होना तो दूर, मेरे हाथ-पाँव टूट जाएँगे । ‘
जवाब में एक जोरदार ठोकर लगी ।
‘पाक तुरखान के तालाब की तह में बहुत जल्दी ही तेरा इलाज हो जाएगा हरामजादे ।’ किसी ने कहा ।
सूदखोर घबरा उठा। पाक तुरखान के तालाब का इस इलाज से क्या वास्ता? और फिर जब फौज़ के सिपहसालार अर्सला बेग की आवाज़ सुनाई दी तो उसकी घबराहट आश्चर्य में बदल गई।
भीड़ का शोरगुल बढ़ता जा रहा था। एक शब्द भिनभिनाता था, गूँजता था, गरजता था और दूर जाती गूँजों में ख़त्म हो जाता था। बहुत देर में वह समझ पाया। वह शब्द था – नसरुद्दीन । ‘

ये कहानी ‘मुल्ला नसरुद्दीन’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Mullah Nasruddin(मुल्ला नसरुद्दीन)