mukhauta
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

चूल्हे से उठते धूएं से उसकी आंखो में पानी भर रहा था। लकड़ी कच्ची थी, आग पकड़ने में देर हो रही थी। वह फूंक पर फूंक मार रही थी। पर धूएं के सिवाय कुछ निकल ही नहीं रहा था। उसे डर था, उसका पति अभी बाजार से आ जायेगा और घर में धूआं भरा देखकर चिल्लाने लगेगा। उसे जल्दी भी थी। अगर देर हो गई तो नाटक का पार्ट किसी और को दे दिया जायेगा। फिर कल पूरा दिन चाय के सहारे काटना पड़ेगा और पति के ताने के साथ-साथ मार भी खाना पड़ेगा। अब तो हालत ऐसी हो गई है कि बच्चे भी नहीं छोड़ते, वो भी मौका देखकर दो-एक बात सुना देते तो उसका दिल हूक उठता। वो तो उसके जने है वो कैसे अपनी माँ की बेबसी नहीं समझते। न समझते न सही, कम से कम बाप मार रहा होता है तब तो बीच-बचाव कर सकते है न? वो भी कोई नहीं करता। अब तो वह एक मशीन बन गई है न। देर रात तक नाटक मंडली में काम करना, फिर सुबह जल्दी उठकर हाट से सामान लाकर पांच लोगो के लिए खाना बनाना।

नाटक मंडली में उसे छोटा-सा काम ही तो मिला था।

यह मंडली दूर-दराज के गांव तक अपनी “रामलीला” के लिए प्रसिद्ध थी। विशेष अवसरों पर तथा कभी-कभार परे साल भर तक यह नाटक खेला जाता। मंच के चारो तरफ दर्शक बैठे रहते और सबके बीच में कलाकार अपनी कला दिखाकर एक किनारे चले जाते। बाजा और गानेवाले भी एक किनारे बैठे रहते। ढोल मंजीरा बजा-बजा कर मंच पर आने से पहले हरपात्र का परिचय गा कर दिया जाता। इसे बच्चे के जन्मदिन पर, किसी वांछित कार्य के सफल होने पर या किसी खुशी के अवसरों पर भी खेला जाता। उडीसा के लोग इसे “पाला” कहतें है। साधारण लोग ही इसमें भाग लेतें हैं और खाना-पीना, कपडे-लत्ते की मांग भी घरवालों से करते हैं। शाम को ही ढोलक बजाकर लोगों को सूचित कर दिया जाता कि रात को नौ बजे से “रामलीला” या “कृष्णलीला” का पाला होगा। लोगों में चहल-पहल मच जाती। अपने बैठने की व्यवस्था के लिए छोटे-छोटे आसन या दरी के साथ लोग मंच के चारों ओर जमा होने लगते। पाला, धार्मिक भावना से जुड़ी होने के कारण हर स्तर के लोग इसमें रुची रखते और पैसेवाले खुले हाथों से उसमें दान भी करते हैं। पाला करनेवालों को पैसों के साथ-साथ भोजन तथा कपड़ा भी दिया जाता है। इसमे मुखौटों का भी प्रयोग होता है।

कई सालों से मंडली में श्यामा यही काम करती चली आ रही है, सीता को डरानेवाली राक्षसी का पार्ट। सिर्फ एक मुखौटा पहनना था, बाकी कुछ नही। बेढंगा शरीर, काला आबलुसी रंग, सर पर कच्च-पक्के खिचड़ी बाल। लम्बे-लम्बे डग भरते हुए जब वह मुखौटा पहनकर सीता को डराती तो पहली पंक्ति में बैठे बूढे, बच्चे दोनों सहमकर पीछे हटने लगते। इसी के तो पैसे मिलते थे उसे, जिसमें उसके पति का दारु और पूरे परिवार का भरण-पोषण होता था और उसके हिस्से में तो केवल गाली-गलौज और दो वक्त का दो मुठ्ठी अन्न ही आता।

दो दिन से उसका मन कच्चा-कच्चा सा हो रहा है। नाटक मंडली में काम करनेवाली हर किसी ने इस बार अपने लिए कुछ न कुछ खरीदा। किसी ने हाट से कान के लिए झुमके, किसी ने पायल, किसी ने कंगन तो किसी ने नायलोन की जरी की धारवाली साड़ी खरीदी। पर उसका तो साहस ही नहीं हुआ पति से कुछ कहने का…। कल पता नहीं क्यों देर से उठी थी सोकर। अचानक कान के पास लकड़ी खड़की तो देखा कि पति डंडा लेकर जमीन पर पीट रहा है। “उठना नहीं? खाना कौन बनायेगा? तेरा बाप? देर तक सोना था तो बाप के घर से एक नौकर दहेज में लाना था।” जल्दी से आँख मलती उठ बैठी। फूली हुई आँखो को देखकर पूछा “काहे रो रही थी रे! माँ के मरने की खबर आई का?”

वह हड़बड़ा कर उठ बैठी, भगवान को प्रणाम किया, “ऐसा मत बोलो। क्यों सवेरे-सवेरे उनको कोस रहे हो? उनका क्या दोष? जो कहना है मुझे कहो।”

“साली! जबान लड़ाती है। काट के रख दूँगा, दुबारा आवाज निकाली तो। काम-धाम कुछ करती नहीं दो पैसा क्या कमाती है, सांतवे आसमान में उड़ रही है?”

बात आगे न बढाकर वह जल्दी उठ गई। रात को जब पैसा लाकर पति को दिया तो दूसरे दिन की तरह बिस्तर पर सोने नहीं गई वहीं खड़ी रही।

“क्या बात है?

हकलाते हुए उसने जवाब दिया, “कुछ पैसे चाहिए”

“किसलिए?”

“एक ‘सीता हार’ खरीदना है अपने लिए।”

हो-हो कर जोर से उसका पति हंसने लगा। “पगला गई है क्या रे? नाटक मंडली में सीता को देखकर वही बनना चाहती है क्या? वो इस जनम में तो नहीं होने वाला। शायद अगले जनम में हो।” इतने में तीनों बच्चे भी उठ गये और वे भी बाप के साथ हंसने लगे। वो चुपचाप बिस्तर पर जाकर पड़ गई।

अंधेरे में उसने टटोलकर पास पड़े मुखौटे को छुआ। बड़ी-बड़ी आँखें, भद्दी-सी नाक और फैले हुए होठों के बीच दो नुकीले दांतो को भी उसने प्यार से छुआ। अब यह मुखौटा ही उसकी जिन्दगी है और रात के अंधेरे में किसी को पता भी नहीं चला उसके गरम-गरम आंसू मुखौटे को भीगोने लगे। उसने मुखौटे को और जोर से भींच लिया जैसे वह खो जायेगा।

इस बार गाँव की नाटक मंडली ने सोचा, दशहरे में खेल दिखाने दूर-दराज के गाँव में जायेंगे। आसपास के लोग अब ज्यादा यह खेल देखने नहीं आते। दूर जायेंगे तो पैसा भी ज्यादा मिलेगा। फिर थोक में पैसा लेंगे। हर कोई तैयार हो गया, श्यामा ने कोई जवाब नहीं दिया। “क्यों रे श्यामा बोलती क्यों नहीं? नहीं जाना है क्या? कार्तिकवा को पूछे बिना नहीं जाना है क्या?” और सब हँसने लगे। “तेरे बिना तो भई हम यहाँ से हिलेंगे नहीं।”

“नहीं ऐसा नहीं है। पछना तो पडेगा ही। बच्चों का खाना-पीना सब…।” कहते हुए रुक गई वह।

“जा… जा हमको सब पता है। सब के सब घोड़े हो गये है। बनाने दे न कुछ दिन उनको। कच्चा-पक्का खाने दे। हाथ पांव हिलायेंगे तो अक्ल ठिकाने आ जायेगी। तू चल तो। किसी की भी चिंता मत कर।” संचालक ने जोर देकर कहा तो सबने हाँ में हाँ मिलाई।

डरते-डरते उस दिन भी हाथ में पैसे लेकर कार्तिक के पास खड़ी रही। पैंसो को झपट लिया उसने। “आज कौन-सा हार चाहिए तुझे? क्यों पिटी-सी सूरत लेकर खडी है। आज फिर तेरा कौन मरा?” उसकी आँखो से झरझर आँसू झरने लगे। एक तो बच्चों को छोड़कर जाने का दुःख उस पर से ये डांट डपट, वह हिचकियाँ भरकर रोने लगी। कुछ गड़बड़ जानकर कार्तिक चौकन्ना हो गया।

“क्या बात है? नौकरी से निकाल दिया क्या?”

“नहीं बाहर जाना पडेगा, दूसरे गांव में, वहीं रहना पडेगा।”

“तो जा ना। किसने रोका है? पैसे नही आयेंगे तो कैसे चलेगा?” पैसा चाहिए पैसा। हर दो दिन में आकर पैसा दे जाना, समझी। ज्यादा लफड़ा नहीं, चल सो जा।

“हर रोज पैसा नहीं मिलेगा।”

“फिर?” कार्तिक ने पूछा।

“थोक में पैसा मिलेगा, एक साथ जितना दिन नाटक होगा, उतने दिन का…।”

“फिर घरवाले क्या मर जायेंगे? ये कैसा विचार है? ऐसा नहीं चलेगा। ऐसा है तो फिर सोचना पड़ेगा।”

दूसरे दिन ही कार्तिक संचालक के पास पहुंच गया शिकायत लेकर।

“एक तो कम पैसे देते हो, ऊपर से अब वो भी बन्द करना चाहते हो… हम गरीब लोग है। हमे अपनी मेहनत पर जीना पड़ता है। हमें अपनी मेहनत का पैसा तुरंत चाहिए। नहीं तो हमे खाने के लाले पड़ जायेंगे।”

“अरे जा-जा कितना मेहनत करता है हमें पता है। जब से गुजरात के हीरा बाजार से चोरी के आरोप में निकाला गया है, तब से बैठे-बैठे सारा दिन शराब पीता रहता है। वो भी जोरु की कमाई का और खाट तोड़ता रहता है। मेहनत करके देखा है कभी?” संचालक ने मंहतोड़ जवाब दिया।

“देखो साहब मेरे मुँह न लगो। मैं अपनी जोरु की कमाई खाता हूँ किसी दूसरे की जोरु की नहीं और फिर जोर-जोर से गालियाँ बकने लगा। लोगों ने आकर बीच-बचाव किया।”

अंत में तय हुआ कि हर सातवें दिन कार्तिक आकर पैसे ले जायेगा।

रो-धो कर निर्धारित दिन को श्यामा अपने टिन के बक्से में दो रंग जले साड़ी के साथ नाटक मंडली के लोगो के संग जा मिली। दु:ख के साथ-साथ उत्साह और उमंग से भी वह फटी जा रही थी। बच्चे भी बाप के डर से निर्विकार थे। छोटा लड़का दो एक बार उसके चारों ओर चक्कर लगा गया था। उसकी आँखो के कोरों में उसने पानी देखा था। इससे उसके बिखलते मन को शांति मिली थी। चलो कोई तो है, जिसे उसके जाने का दुःख है। दो-एक बार उसे अपनी तरफ खींचना चाहा था। छाती से लगाने के लिए। हाथ छुड़ाकर चला गया।

धूल उड़ती बस की धूल में जहाँ तक हो सके, श्यामा की नजरों ने अपने पति और बच्चों को ढूँढा, पर न तो उनको आना था न आये। बरबस उसकी आँखो ने ढेर सारा पानी उगल दिया। मन का एक कोना कचोट उठा। पैसा केवल पैसा और कुछ नहीं। ऐसी तो नहीं थी वह पहले। अगर ऐसी होती तो क्या कार्तिक उसे ब्याह कर लाता? आज धूप में रंग जलकर कोयला हो गया है। तब गुजरात में तो कहता था, “तांबे जैसा कसैला रंग है तेरा, मन होता है मक्खी बनकर चिपका रहूँ।” आज वही रंग उसकी आंखो का शूल बन गया है। संसार की चक्की में पीस-पीस कर ही तो वह आज ऐसी हो गई है। आंचल से अपना चेहरा ढांपकर वह सोने की कोशिश करने लगी। पर रास्ता इतना खराब था कि सर बार-बार खिड़की से टकराता था और आँखो के खुलते ही सामने तीनों बच्चों का चेहरा घूम जाता।

पहले दिन ही नाटक ने धूम मचा दी। लोगों का रेला नाटक देखने के लिए शाम से ही उमड़ने लगा। अब तो पीछे खड़े बैलगाडियों पर भी लोग बैठकर देखने लगे थे। और उनसे भी पूरे के पूरे पैसे लिए जाते। मंडली हर रोज कुछ नये-नये करने की सोचती। गीतों के बीच में दो-तीन नाचवालियां कमर मटाका-मटका कर धुन के साथ नाचती भी थी। ढोल और तबले के ताल में भी परिवर्तन लाया गया था। दोनों की युगलबंदी भी होती थी। तब तो तालियों की गडगडाहट से परा इलाका गंज उठता।

श्यामा के मुखौटा पहनकर सीता को डराने के दृश्य में भी फेरबदल किया गया था। अब उसके बाल खुले रहने लगे थे, गले में बडे-बडे मोतियों की माला पहना दी गई और कानों में मोटी-मोटी बालियाँ। पांवों में पीतल के चमचमाते बूंघरु बांधकर जब वह दोनों हाथों को हिला-हिला कर सीता को डराती तो डरने के साथ-साथ लोग इस दृश्य का आनन्द भी उठाते। अब तो उसके हाथों में एक लम्बी तलवार भी थमा दी गई थी।

हाथ में तलवार के आते ही श्यामा का जोश पहले से कुछ ज्यादा ही बढ गया था। दूर-दूर तक बैठा हर दूसरा आदमी उसे क्रुर और बेईमान लगता। निर्मम पैसे का लालची, आलसी और हरामखोर लगता। कभी-कभार वह सीता को डराना छोड़कर लोगों को भी डराने लगती। तब मुखौटे के पीछे उसके जबडे भींच जाते। आंखे उबल पड़ती और होठों से गालियाँ निकल रही होती। लोग इस दृश्य का खूब मजा उठाते।

देखते-देखते महीना हो गया। कार्तिक पैसा लेने आ पहुंचा। साथ में छोटा बेटा भी था। वह जान-बूझकर ही उसे साथ लाया था। दूर से ही उनको देख लिया था श्यामा ने। वह दौडकर संचालक से पैसा माँगने चली गई। सभी शाम की तैयारी में जुटे थे। पैसे का किसी को होश नहीं था। श्यामा घबरा गई। वह जल्दी से अपने पति को वहाँ से रवाना करना चाहती थी, ताकि वह कोई लफड़ा खड़ा न कर सके। पर संपदक तो सफलता के मद में चूर था। उसने कार्तिक से कहा कि आज की रात यहाँ रुककर अपनी पत्नी का नाच देखकर जाये।

श्यामा यह सुनकर थर-थर कांपने लगी। उसका साहस हवा में कपूर की तरह उड गया। पर भीतर कहीं घृणा के बादल जमने शुरु होने लगे थे। बच्चा भी नाटक देखने के लिए मचलने लगा। वह भी “रामलीला” देखना चाहता था। जिस में उसकी माँ भी राम के साथ नाटक करती है।

उसने चुपके से बच्चे को बुला लिया। वह जानना चाहती थी, उसके अभाव में घर कैसा चल रहा है। क्योंकि इतने दिनों में एक बार भी कार्तिक ने उससे मिलना नहीं चाहा, न उसे साथ चलने को कहा। जबकि इस बार बहुत दिनों के बाद वह आया है। घृणा के साथ-साथ उस के मन में दु:ख की एक लहर भी उठी।

बच्चे को उसने अपने सीने से चिपका लिया। बच्चा भी मां से लिपट गया।

“कितना दुबला हो गया है रे तू? ठीक से खाता नहीं क्या?”

“नहीं माँ। खाता तो हूँ, बापू रोज मच्छी लाता है, दोनों टाईम हम सब माछ-भात खातें हैं।”

“हाय राम! कौन माछ बनाता है रे। तेरा बाप?”

“नहीं माँ। नई माँ रोज मसाला पिसकर मच्छी को अच्छी तरह से भुनकर चटाकेदार सब्जी बनाती है। आज भी सुबह जल्दी-जल्दी उठकर बना दिया था। मैं खाकर ही आया हूँ।” वह छिटककर दूर हो गई। बच्चा हड़बड़ाहट में गिर गया। डर भी गया।

“क्या हुआ माँ? तू क्यों ऐसा कर रही है?”

“कौन रहता है घर में? किसे तू नई माँ कह रहा है? ये कहां से आ गयी?”

बच्चा अब अपनी गलती समझ गया। बाप ने कुछ भी कहने से मना किया था। कहा था, “घर की कोई बात बताना मत, और नई माँ वाली बात तो एकदम नहीं। नहीं तो माछ-भात बन्द।” बड़ी गलती हो गई। बच्चा बाप के गुस्से से परिचित था। उसका चेहरा पीला पड़ गया।

श्यामा समझ गई। उसका हदय ममता से भर गया। उसने बच्चे को जमीन पर से उठाकर खड़ा किया।

उसे पहले से ही अंदेशा तो कुछ-कुछ था ही। कार्तिकवाँ का रात को देर से लौटना और खाने- पीने में पैसा पानी की तरह बहाना देखकर वह समझ तो गई थी कि उसके पति की जिन्दगी में दूसरी औरत आयी है। पर वह कुछ कर पाने में असमर्थ थी। सारा दिन काम और काम फिर नाटक कंपनी से देर रात को लौटना। हालांकि उसका काम नाटक में बहुत कम था, पर उसे पैसे सब के बराबर के मिलते थे और पैसा हर रोज नाटक खत्म होने पर ही मिलता। यानि राम के रावण को मारकर, विभीषण का राज्याभिषेक के पश्चात, तब तक उसे बैठे रहना पड़ता। इतने के बाद कार्तिक की भूख मिटाना उसके लिए असम्भव था। वह आकर बिस्तर पर जो पड़ जाती तो फिर दूसरे दिन सुबह ही उसकी आंख खुलती, कार्तिक की गालियों के साथ।

“साली काठ के जैसे जो पड़ जाती है हिलाने से भी नही हिलती। मर जाती है क्या? मरती भी तो नहीं, मरे तो निजात मिले।” रात को कब बुलाता? क्या पता, उसे तो कुछ सुनाई नहीं पड़ता। वह तो उस के बुलाने के इंतजार में ही सो जाती। ऐसी में ही अड़ोस-पड़ोस से पता चला था। कोई दूसरी औरत है, जिसके पास कार्तिक अक्सर जाता है। वह घुटकर रह गई थी, कुछ पूछने का साहस ही नहीं जुटा पायी थी। एक दिन कुछ लाकर कार्तिक को छुपाते हुए देखा था। बाद में ढूंढकर देखा तो एक कागज में लपेटा हुआ “सीता हार”। उसके मन में लड्ड फुटने लगे, लगा कार्तिक ने हार उसे देने के लिए खरीदा है। पर एक दिन-दो दिन तीन दिन बीत गये, नहीं दिया। तब देखा तो हार अपनी जगह से गायब था। केवल तुड़ा-मुड़ा कागज पड़ा था। कार्तिक हार उस दूसरी औरत को दे आया था। वह इतनी आहत हुई पर कुछ न कह सकी। क्यों? किसने रोका? सब कुछ उसी के पैसे से हो रहा था। पर..?

पर उसने यह नहीं सोचा था कि कार्तिक उसकी अनुपस्थिति में उसे घर ले आयेगा और बच्चो की माँ बना देगा।

उस की आंख भर आई। दुःख या गुस्से से वह समझ न सकी। उस के अंदर कुछ कुछ पनपने लगा। उसने अपनी मुट्ठीयाँ भींच ली। बच्चे को प्यार से दुलार कर बाहर भेज दिया।

“जा बापू के पास जा। कुछ मत कहना, नहीं तो मार खाकर मर जायेगा। मेरी किस्मत। तुम क्यों भुगतो? समझदारी से रहना। समझ लेना तेरी माँ मर गयी।”

उस दिन मुखौटा पहनकर, चूंघरु बांधकर हाथ में तलवार लेकर जो नाच नाची, जो नाच नाची, सारे दर्शक विभोर हो गये। मुखौटे के अंदर उसके चहेरे से प्रताड़ना की ज्वाला और बेबसी के आंसू दोनों झर रहे थे। कभी-कभार वह दर्शकों की ओर उन्मुख होकर बड़े जोर-जोर से तलवार चलाती और कभी सीता को डराती।

श्यामा के इस रुप से कार्तिक सम्पुर्ण अनभिज्ञ था। तलवार के हर वार को वह अपनी गर्दन पर महसूस करता और उसे लगता श्यामा उससे बदला ले रही है। तब उसके तनबदन में झुरझुरी सी होने लगी थी। श्यामा के इस रुप को और अधिक देर तक सहना उसके वश में नहीं था। उसने बच्चे के हाथ को कसकर पकड़ लिया। “चल उठ हमें निकलना पड़ेगा। अभी पैसा भी तो लेना है।” बच्चे ने थोडी ना-नुकर की, परंतु कार्तिक ने उसकी एक न सुनी।

श्यामा ने उनको नजर बचाकर उठते हुए देख लिया था, साथ ही कार्तिक के चेहरे के बदलते भावों को भी उसने पढ लिया था। वह जल्दी से मंच के बाहर आ गई, तलवार को मुट्ठी में भींचे हुए। उसे मालुम था, कार्तिक कहां गया होगा।

संचालक के कमरे की ओर उसे बढते देख श्यामा भी उस ओर चलने लगी। पर्दे की आड़ लेकर वह उनकी बातें सुनने लगी।

“साहेब पैसा दे दो। बहुत दिनों बाद आया हूँ। बडी कडकी में दिन बीत रहे है। बाल बच्चों के साथ बड़ी मुसीबत में हूँ। आप जानते तो हैं, माँ बिना बच्चों की देखभाल करना…”

“हां-हां ठीक है। तुम्हारी औरत बहुत मन लगाकर काम करती है। दूसरा नाटक शुरु करने वाले हैं हम। उसमें उसे अच्छा काम देंगे और बड़ा भी।”

“और पैसा भी ज्यादा मिलेगा न बाबू? खुब काम लीजियेगा पट्ठी से…। काम ठीक से न करे तो दो-चार लगाने की इजाजत मैं भी देता हूँ साली को। किसी काम की तो बने…।”

श्यामा का मन रो उठा। इनके लिए कमाती है वो? प्यार न एहसान। एक पैसा बनाने की मशीन समझता है उसे। उसने झुककर देखा तो संचालक पैसा गिन रहा था। उसनें ज्यों ही कार्तिक को देने के लिए पैसे बढाये, श्यामा अपने लम्बे-लम्बे डग भरते हुए उसके सामने पहुंच गई। तलवार को कार्तिक की ओर तानते हुए उसने दुसरे हाथ से संचालक के हाथों से पैसे झपट लिए। और पैसे को अंटी में खोसते हुए बोली, “मेरी कमाई के पैसे है हुजूर, ये सब मेरे हैं।”

उसके चहेरे के आते-जाते रंग को देखकर कार्तिक दंग रह गया। उसके चहेरे का रंग पीला पड़ गया। ये कौन-सी श्यामा है? “इतनी बातें कहाँ से सीखी रे? यहा यही सब सीखलाया जाता है?”

“नहीं। यहाँ मेहनत करना सिखाया जाता है। ये सब तेरी करतूतों ने सिखाया है। तेरी बेईमानी ने मुझे जुबान दी है। बोलना सिखाया है। एक पैसा नहीं मिलेगा चाहे जो भी कर ले।”

“और बच्चे हैं?” कार्तिक ने भावना का सहारा लिया।

“मेरे बच्चे हैं। जब चाहे मेरे पास आ सकते है। वो तेरे भी तो है न…।” और पर्दा हटाकर अन्दर चली गई।

कार्तिक श्यामा की हर बात पर हैरान हो रहा था। कार्तिक ही क्या? यहाँ पर खड़ी भीड़ विस्फारित नेत्रों से श्यामा को देख रही थी।

और कार्तिक अजीब नजरों से जिस रास्ते से श्यामा अंदर गई थी उस रास्ते को निहार रहा था और सोच रहा था श्यामा ने ये नया “मुखौटा” कब पहना?

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’