manto story in hindi manto ki kahani

Manto story in Hindi: मैं इस बात को लेकर आज भी हैरान हूं कि कुंवारे मर्दों को खाली बोतलों और खाली डिब्बों में इतनी दिलचस्पी क्यों होती है? मर्दों से मेरा मतलब उन मर्दों से है, जो आमतौर पर शादी के मामले में कोई दिलचस्पी नहीं रखते।

इस किस्म के कई मर्द सनकी और अजीब-ओ-गरीब आदतों वाले भी होते हैं। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि उन्हें खाली बोतलों और डिब्बों से इतना प्यार क्यों होता है? ऐसे मर्दों का परिंदे और जानवर पालना तो समझ में आता है कि तन्हाई में कोई तो साथी होना चाहिए, लेकिन खाली बोतलें और खाली डिब्बे भला इनकी क्या दिलजोई कर सकते हैं।

सनक और ऊल-जलूल आदतों की वजह ढूंढ़ना कोई मुश्किल नहीं है। उसके लिए तो बड़ी आसानी से यह कहा जा सकता है कि कुदरती ख्वाहिशों की खिलाफत ऐसे बिगाड़ पैदा कर सकती है, लेकिन इसकी मनोवैज्ञानिक बारीकियों में जाना अलबत्ता ख़ासी मशक्कत की मांग करता है।

मेरे एक अजीज हैं। उम्र है पचास के आस-पास। कबूतर और कुत्ते पालने का शौक है। इन पर एक नहीं, कई खब्त हरदम सवारी गांठती हैं। यह साहिबान बाजार से हर रोज दूध की बालाई खरीद लाते हैं। चूल्हे पर रखकर उसका रोगन निकालते हैं कि और इस रोगन में अपने लिए अलग से सालन तैयार करते हैं। इनका ख्याल है कि इस तरह खालिस घी तैयार होता है। पानी पीने के लिए अपना घड़ा अलग रखते हैं। उसके मुंह पर हमेशा मलमल का टुकड़ा बंधा रहता है ताकि कोई कीड़ा-मकोड़ा अंदर न चला जाए मगर हवा बराबर दाखिल होती रहे। पाखाना जाते वक्त सब कपड़े उतारकर एक छोटा-सा तौलिया बांध लेते हैं और लकड़ी की खड़ाऊं पहन लेते हैं। अब कौन इनकी बालाई के रोगन, घड़े का पानी, मलमल का टुकड़ा, अंग के तौलिए और लकड़ी की खड़ाऊं के मनोवैज्ञानिक विश्वास को हल करने बैठे?

मेरे एक कुंवारे दोस्त हैं। देखने में बड़े ही नॉर्मल इंसान। हाईकोर्ट में रीडर हैं। इन्हें हर जगह से हर वक्त बदबू आती रहती है। चुनांचे उनका रूमाल हमेशा उनकी नाम से चिपका रहता है। इन्हें खरगोश पालने का शौक है।

एक और कुंवारे हैं। उन्हें जब मौका मिले, नमाज़ पढ़ना शुरू कर देते हैं। लेकिन इसके बावजूद उनका दिमाग बिलकुल सही है। दुनिया की सियासत में नजर बहुत गहरी है। तोतों को बातें सिखाने में महारत रखते हैं।

मिलिटरी के एक मेज़र हैं‒ बड़ी उम्र के और दौलतमंद। मेज़र साहब को हुक्के जमा करने का शौक है। गुड़गुड़िया, पेचवान, चमोड़े, मतलब कि हर किस्म का हुक्का उनके पास मौजूद है। मेज़र कई मकानों के मालिक हैं, लेकिन रहते हैं होटलों में एक कमरा किराये पर लेकर। बटेरें आपकी जान हैं।

एक कर्नल साहब हैं रिटायर्ड। बहुत बड़ी कोठी में अकेले दस-बारह छोटे-बड़े कुत्तों के साथ रहते हैं। हर ब्रांड की ह्विस्की इनके यहां मौजूद रहती है। हर रोज शाम को चार पेग पीते हैं और अपने साथ किसी-न-किसी लाड़ले कुत्ते को भी पिलाते हैं।

मैंने अब तक जितने विवाह-विमुखों का जिक्र किया है, इन सबमें एक समानता है। ये सभी खाली बोतलों और डिब्बों को जमा करने में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी रखते हैं।

दूध की बालाई से खालिस घी तैयार करने वाले मेरे अजीज घर में जब कोई खाली बोतल देखते हैं तो उसे धो-धाकर अपनी अलमारी में सजा देते हैं ताकि जरूरत के वक्त काम आए।

हाईकोर्ट के रीडर, जिनको हर जगह हर वक्त बू आती रहती है, सिर्फ ऐसी बोतलें और डिब्बे जमा करते हैं जिनके बारे में वह पूरी तसल्ली कर लेते हैं कि अब उनसे बू आने की कोई गुंजाइश नहीं है।

जब मौका मिले, नमाज़ पढ़ने वाले खाली बोतलें आबदस्त के लिए और टीन के खाली डिब्बे वजू के लिए दर्जनों की तादाद में जमा रखते हैं। उनके ख्याल के मुताबिक ये दोनों चीजें सस्ती और पाकीजा रहती हैं।

किस्म-किस्म के हुक्के जमा करने वाले मेज़र साहब खाली बोतलें और खाली डिब्बे जमा करके बेचने का शौक रखते हैं।

अलबत्ता रिटायर्ड कर्नल साहब को सिर्फ ह्विस्की की खाली बोतलें जमा करने का शौक है। आप कर्नल साहब के घर जाएं, तो एक छोटे साफ-सुथरे कमरे में कई शीशे की अलमारियों में आपको ह्विस्की की खाली बोतलें सजी हुई नजर आएंगी। पुराने-से-पुराने ब्रांड की ह्विस्की की खाली बोतल भी आपको उनके इस नायाब खजाने में मिल जाएगी। जिस तरह लोगों को टिकट और सिक्के जमा करने का शौक होता है, उसी तरह उनको ह्विस्की की खाली बोतलें जमा करने और उनकी नुमाइश करने का शौक है।

मेरी जानकारी में कर्नल साहब का कोई अजीज रिश्तेदार नहीं है। दुनिया में एकदम अकेले हैं। अलबत्ता दस-बारह कुत्तों की सोहबत में हरदम रहने से उन्हें अकेलापन महसूस नहीं होता। कुत्तों की देखभाल वह उसी तरह करते हैं, जिस तरह कोई भी स्नेही बाप अपनी औलाद की करता है। यों तो उनका सारा दिन इन्हीं पालतू गैरइंसानों के साथ गुजर जाता है, फिर भी जब कभी फुरसर में होते हैं तब अलमारियों में रखी अपनी चहेती बोतलें संवारने लगते हैं।

आप कह सकते हैं कि खाली बोतलें तो ठीक, ये खाली डिब्बे क्यों साथ लगा दिए हैं? क्या यह जरूरी है कि तन्हाई पसंद मर्दों को खाली बोतलों के साथ-साथ खाली डिब्बों में भी दिलचस्पी हो? फिर डिब्बे और बोतलें, सिर्फ खाली क्यों? भरी हुई क्यों नहीं?

मैं आपसे शायद पहले भी अर्ज कर चुका हूं कि मैं खुद इस तुक पर हैरान हूं। यह और इस किस्म के दूसरे बहुत से सवाल अक्सर मेरे दिमाग में भी पैदा होते रहते हैं, लेकिन कोशिश करने पर भी मैं उनका जवाब नहीं तलाश पाता।

खाली बोतलें और खाली डिब्बे खालीपन की निशानी हैं। चूंकि तन्हाई पसंद मर्दों की जिंदगी में भी एक स्थायी खालीपन होता है, इसीलिए हो सकता है, इन्हें ये अपने समान लगती हों, सो वे इन्हें इतना पसंद करते हों। फिर यह सवाल पैदा होता हो कि क्या वे अपने खालीपन को एक अन्य खालीपन से पूरा करते हैं?

कुत्तों, बिल्लियों, खरगोशों और बंदरों के बारे में आदमी समझ सकता है कि वे खाली जिंदगी का खालीपन एक हद तक भर सकते हैं। दिल बहला सकते हैं। नाज़-नखरे कर सकते हैं। दिलचस्प कामों के लायक हो सकते हैं। प्यार का जवाब भी दे सकते हैं। लेकिन खाली बोतलें और डिब्बे दिलचस्पी का क्या सामान पेश कर सकते हैं?

बहुत संभव है आपको आगे बयान की जा रही घटनाओं में इन सवालों का जवाब मिल जाए।

दस वर्ष पहले जब मैं बंबई गया तो वहां एक मशहूर फिल्म कंपनी की एक फिल्म लगभग बीस हफ्तों से चल रही थी। हीरोइन पुरानी थी, लेकिन हीरो नया था, जो इश्तहारों में छपी हुई तस्वीरों में नौजवान दिखाई देता था।

अखबारों में उसकी एक्टिंग की तारीफ पढ़ी तो मैंने वह फिल्म देखी। फिल्म अच्छी-खासी थी। कहानी ध्यान खींचने वाली थी। उस नए हीरो का काम भी इस लिहाज़ से तारीफ़ के काबिल था कि उसने पहली बार केमरे का सामना किया था।

पर्दे पर किसी एक्टर या एक्ट्रेस की उम्र का अंदाज़ा लगाना आमतौर पर मुश्किल होता है क्योंकि मेकअप जवान को बूढ़ा और बूढ़े को जवान बना देता है। लेकिन यह नया हीरो नौजवान था। कॉलेज-छात्र की तरह तरोताज़ा और चाक-चौबंद। वह खूबसूरत तो नहीं था, फिर भी उसके गठे हुए जिस्म का हर अंग अपनी जगह दुरुस्त और वाजिब था।

इस फ़िल्म के बाद उस एक्टर की मैंने कई अन्य फिल्में देखीं। अब वह मंज गया था। चेहरे के लड़कपन और बच्चों जैसे भोलेपन की जगह उम्र और तजुर्बे के हाव-भाव ने ले ली थी। उसकी गिनती अब चोटी के कलाकारों में होने लगी थी।

फ़िल्मी दुनिया में स्केंडल आम होते हैं। आए दिन सुनने में आता है कि फलां एक्टर का फलां एक्ट्रेस के साथ संबंध हो गया है। फलां एक्ट्रेस फलां एक्टर को छोड़कर फलां डायरेक्टर के पहलू में चली गई है। लगभग हर एक्टर और एक्ट्रेस के साथ कोई-न-कोई रोमांस जल्दी या देर से लिपट जाता है। लेकिन इस हीरो की जिंदगी, जिसका मैं जिक्र कर रहा हूं, इन बखेड़ों से पाक थी।

नतीजा यह था कि अखबारों में इसकी चर्चा नदारद रहती थी। भूले से भी किसी रिसाले ने यह इजहार नहीं किया था कि फिल्मी दुनिया में रहकर भी रामस्वरूप की जिंदगी जिस्मानी कामनाओं से पाक है। सच पूछिए तो इस बारे में मैंने भी कभी गौर नहीं किया था। इसलिए कि मुझे एक्टर और एक्ट्रेसों की निजी जिंदगी में कोई दिलचस्पी नहीं थी। फिल्म भर देखी, फिल्म के विषय में अच्छी या बुरी राय कायम की और बस।

जब रामस्वरूप से मेरी मुलाकात हुई तो मुझे उसके बारे में बहुत ही दिलचस्प बातें मालूम हुईं। यह मुलाकात उसकी पहली फिल्म देखने के आठ साल बाद हुई थी।

शुरू-शुरू में तो वह बंबई से बहुत दूर एक गांव में रहता था। फिर फिल्मी सरगरमियां बढ़ीं तो उसने शिवाजी पार्क में समुद्र के किनारे एक दरम्याना फ्लैट ले लिया। उससे मेरी मुलाकात उसके फ्लैट में हुई थी, जिसमें किचन सहित चार कमरे थे।

इस फ्लैट में रहने वाले परिवार में आठ प्राणी थे। खुद रामस्वरूप, उसका नौकर जो खानसामा का काम भी अंजाम देता था, तीन कुत्ते, दो बंदर और एक बिल्ली।

रामस्वरूप और उसका नौकर दोनों ही कुंवारे थे। तीन कुत्ते और एक बिल्ली के मुकाबले में न कोई कुतिया थी और न ही कोई बिल्ला। अलबत्ता इस परिवार में एक बंदर भी था और एक बंदरिया भी। दोनों ज्यादातर जाली वाले पिंजरों में बंद रहते थे।

इन आधा दर्जन गैरइंसानों से रामस्वरूप को बेइंतहा मुहब्बत थी। नौकर के साथ भी उसका सलूक बहुत अच्छा था, लेकिन उसमें भावनाओं का दखल बहुत कम था। लगे-बंधे काम थे, जो तयशुदा वक्त पर मशीन की-सी बेजान पाबंदी के साथ जैसे अपने आप हो जाते थे।

इसके अलावा ऐसा मालूम होता था जैसे रामस्वरूप ने अपने नौकर को अपनी जिंदगी के तमाम तौर-तरीकों के बारे में परचे में लिखकर दे दिए हों, जिन्हें नौकर ने बखूबी न केवल याद कर लिया हो, उन पर पूरी तरह अमल भी करता हो।

अगर रामस्वरूप कपड़े उतारकर निकर पहनने लगे तो नौकर फौरन तीन-चार सोडे और बर्फ के फ्लास्क शीशे वाली तिपाई पर रख देता था। इसका मतलब था कि साहब रम पीकर अपने कुत्तों के साथ खेलेंगे। इस दौरान जब किसी का टेलीफोन आएगा तो कह दिया जाएगा कि साहब घर पर नहीं हैं।

रम की बोतल या सिगरेट का डिब्बा जब खाली होगा तो उसे फेंका या बेचा नहीं जाएगा बल्कि एहतियात से उस कमरे में रख दिया जाएगा जहां खाली बोतलों और डिब्बों के अंबार लगे हैं।

कोई औरत मिलने के लिए आएगी तो उसे दरवाजे से ही यह कहकर वापिस कर दिया जाएगा कि रात साहब की शूटिंग थी, इसलिए सो रहे हैं। मुलाकात करने वाली शाम को या रात को आए तो उससे यह कहा जाता है कि साहब शूटिंग पर गए हैं।

रामस्वरूप का घर लगभग वैसा ही था, जैसा आमतौर पर अकेले रहने वाले कुंवारे मर्दों का होता है। यानी वह सलीका, करीना और रखरखाव गायब था; जो उन घरों में पाया जाता है जिनमें कुंवारे मर्द नहीं शादीशुदा जोड़े रहते हैं। सफाई थी लेकिन उसमें रूखापन था।

पहली बार जब मैं उसके फ्लैट में दाखिल हुआ तो मुझे यूं लगा जैसे मैं चिड़ियाघर के उस हिस्से में दाखिल हो गया हूं जो शेर, चीते और दूसरे गैरइंसानों के लिए तय किया होता है। इसकी वजह यह थी कि उसे फ्लैट में वैसी ही बू आ रही थी।

एक कमरा सोने का था, दूसरा बैठने का, तीसरा खाली बोतलों और डिब्बों का। उसमें रम की वे तमाम बोतलें और सिगरेट के वे तमाम डिब्बे मौजूद थे, जो रामस्वरूप ने पीकर खाली किए थे। कोई तरीका नहीं थी। बोतलों पर डिब्बे, डिब्बों पर बोतलें औंधी-सीधी पड़ी थीं। एक कोने में कतार है तो दूसरे कोने में अंबार। गर्द जमी हुई है और बासी तंबाकू और बासी रम की मिली-जुली तेज बू आ रही है।

मैंने जब पहली बार यह कमरा देखा तो बहुत हैरान हुआ। अनगिनत बोतलें और डिब्बे थे-सब खाली। मैंने रामस्वरूप से पूछा, ‘क्यों भाई, यह क्या माजरा है?’

रामस्वरूप बोला, ‘कौन-सा माजरा?’

मैंने कहा, ‘यह कबाड़खाना।’

‘जमा हो गया है’ सिर्फ यह कहकर वह चुप हो गया।

मैंने सोचा इतना कूड़ा जमा होने में सात-आठ साल से कम समय तो नहीं ही लगा होगा। मेरा अंदाज़ा गलत निकला। मुझे बाद में मालूम हुआ कि उसका यह जखीरा दस साल में जमा हुआ था।

जब वह शिवाजी पार्क में रहने आया था, तो वे तमाम बोतलें उठवाकर अपने साथ ले आया था, जो उसके पुराने मकान में जमा हो चुकी थीं।

एक बार मैंने उससे कहा, ‘रामस्वरूप, तुम ये बोतलें और डिब्बे बेच क्यों नहीं देते? मेरा मतलब है, अव्वल तो हाथों-हाथ बेचते रहना चाहिए। पर अब इतना अंबार जमा हो चुका है और जंग के कारण दाम भी अच्छे मिल सकते हैं, मैं समझता हूं कि तुम्हें यह कबाड़खाना उठवा देना चाहिए।’

उसने जवाब में सिर्फ इतना कहा, ‘जाने भी दो यार, कौन हर बार कबाड़ी के साथ बक-बक करे।’

इस जवाब से तो यही जाहिर होता था कि उसे खाली बोतलों और डिब्बों से कोई दिलचस्पी नहीं है। लेकिन मुझे नौकर से मालूम हुआ कि अगर उस कमरे में कोई बोतल या डिब्बा इधर-का-उधर हो जाए तो वह तूफान मचा देता था।

रामस्वरूप को औरत में कतई दिलचस्पी नहीं थी। मैं और वह खासे बेतकल्लुफ हो आए थे। बातों-बातों में मैंने कई बार उससे जानना चाहा, ‘क्यों भाई, शादी कब करोगे?’

उसकी तरफ से हर बार इस किस्म का जवाब मिला, ‘शादी करके क्या करूंगा?’

मैंने सोचा वाकई रामस्वरूप शादी करके क्या करेगा? क्या वह अपनी बीवी को खाली बोतलों और डिब्बों वाले कमरे में बंद कर देगा या सब कपड़े उतारकर, निकर पहन कर, रम पीकर उसके साथ खेला करेगा?

मैं उससे शादी-ब्याह का जिक्र तो अक्सर करता था लेकिन बहुत कोशिशों के बावजूद उसे किसी औरत में रुचि लेते नहीं देख सका।

रामस्वरूप से मेल-मुलाकात हुए कई साल गुजर गए। इस दौरान कई बार मैंने यह अफवाह उड़ती सुनी कि उसे शीला नाम की एक एक्ट्रेस से इश्क हो गया है। मुझे इस अफवाह पर बिलकुल यकीन नहीं आया। अव्वल तो रामस्वरूप से ऐसी कोई उम्मीद ही नहीं थीं, दूसरे जरा-सी भी समझ-बूझ रखने वाले नौजवान तक को शीला से इश्क नहीं हो सकता था, क्योंकि वह इस कदर मुरझाई हुई थी कि दिल की मरीज मालूम होती थी।

शुरू-शुरू में जब वह एक-दो फिल्मों में आई थी तो किसी कदर काबिले बरदाश्त भी थी। लेकिन बाद में तो वह इतनी बेरौनक, बेनूर और बेरंग हो गई थी कि महज तीसरे दर्जे की फिल्मों तक सिकुड़कर रह गई थी।

मैंने सिर्फ एक बार शीला के बारे में रामस्वरूप से पूछा तो उसने मुस्कराकर कहा, ‘मेरे लिए क्या वही रह गई थी।?’

इसी दौरान उसका सबसे प्यारा कुत्ता स्टालिन निमोनिया का शिकार हो गया। रामस्वरूप ने दिन-रात पूरे मन से उसका इलाज करवाया लेकिन वह फिर से तंदुरुस्त होकर न जिया।

स्टालिन कुत्ते की मौत से रामस्वरूप को बहुत सदमा पहुंचा। कई दिन उसकी आंखें गम से नम रहीं। इसके बाद जब रामस्वरूप ने एक दिन बाकी कुत्ते किसी दोस्त को दे दिए तो मैंने ख्याल किया कि उसने स्टालिन की मौत के सदमे के कारण ऐसा किया है, वरना वह इनकी जुदाई कभी सहन नहीं करता।

कुछ समय बाद जब उसने बंदर और बंदरिया को भी विदा कर दिया तो मुझे खासी हैरत हुई। मैंने फिर सोचा कि उसका दिल अब किसी अन्य मौत का सदमा बरदाश्त नहीं करना चाहता।

अब वह निकर पहनकर रम पीते हुए सिर्फ अपनी बिल्ली नरगिस से खेलता था। वह भी उससे बहुत प्यार करने लगी थी, क्योंकि रामस्वरूप का सारा मनोरंजन अब नरगिस तक सीमित हो गया था।

अब उसके घर सड़ी-चीजों की बू नहीं आती थी। सफाई में कुछ सीमा तक नजर आने वाला सलीका और करीना भी पैदा हो चला था। उसके चेहरे पर हल्का-सा निखार आ गया था। यह सब कुछ इस कदर आहिस्ता-आहिस्ता हुआ था कि उसकी शुरूआत कैसे और किससे हुई‒ यह पता लगाना मुश्किल था।

दिन गुजरते गए। रामस्वरूप की ताजी फिल्म रिलीज हुई तो मैंने उसकी कलाकारी में नई ताजगी देखी। मैंने उसे बधाई दी तो वह मुस्कराया, ‘लो ह्विस्की पियो।’

मैंने ताज्जुब से पूछा, ‘ह्विस्की?’

ह्विस्की पर हैरानी की वजह यह थी कि मेरी जानकारी में तो रामस्वरूप सिर्फ रम पीने का आदी था।

पहली मुस्कराहट को होंठों में जरा सिकोड़ते हुए उसने जवाब दिया, ‘रम पी-पीकर तंग आ गया हूं।’

मैंने उससे और कुछ नहीं पूछा।

अगले रोज शाम को जब उसके पास गया तो वह कमीज-पाजामा पहने रम नहीं ह्विस्की पी रहा था। देर तक हम ताश खेलते और ह्विस्की पीते रहे। इस दौरान मैंने नोट किया कि ह्विस्की का स्वाद उसकी जुबान और तालू पर ठीक नहीं बैठ रहा। घूंट भरने के बाद वह कुछ इस तरह मुंह बनाता था जैसे किसी बिना चखी चीज से उसका वास्ता पड़ा है।

चुनांचे मैंने उससे कहा, ‘तुम्हारी तबियत ह्विस्की को कबूल नहीं कर रही?’

उसने मुस्कराकर जवाब दिया, ‘आहिस्ता-आहिस्ता कबूल कर लेगी?’

रामस्वरूप का फ्लैट दूसरी मंजिल पर था। एक दिन मैं उधर से गुजर रहा था कि देखा नीचे गैराज के पास खाली बोतलों और डिब्बों के अंबार के अंबार पड़े हैं। सड़क पर दो छकड़े खड़े हैं, तीन-चार कबाड़ी उन छकड़ों में खाली बोतलों और डिब्बों को लाद रहे हैं। मेरी हैरानी की कोई सीमा न रही।

भला यह खजाना रामस्वरूप के अलावा और किसका हो सकता था? आप यकीन जानिए, उस खजाने को रामस्वरूप से जुदा होते देखकर मैंने अपने मन में एक अजीब किस्म का दर्द महसूस किया।

दौड़ा-दौड़ा ऊपर गया। घंटी बजाई। दरवाजा खुला। मैंने अंदर दाखिल होना चाहा तो नौकर ने, मेरे लिए तो पहली बार, यों आदतन, रास्ता रोकते हुए कहा, ‘साहब रात शूटिंग पर गए थे। इस वक्त सो रहे हैं।’ मैं हैरत और गुस्से से बौखला गया। कुछ बड़बड़ाया और लौट गया।

उसी शाम रामस्वरूप मेरे घर आया। उसके साथ शीला थी। नई बनारसी साड़ी में सजी हुई। रामस्वरूप ने उसकी तरफ इशारा करके मुझसे कहा, ‘मेरी धर्मपत्नी से मिलो।’ यदि मैंने ह्विस्की के चार पेग न पिए होते तो यकीनन यह सुनकर मैं बेहोश हो गया होता।

रामस्वरूप और शीला सिर्फ थोड़ी देर बैठे और चले गए। मैं देर तक सोचता रहा कि बनारसी साड़ी में शीला किसकी तरह लग रही थी? दुबले-पतले बदन पर हल्के बादामी रंग की कागजी-सी साड़ी। किसी जगह फूली हुई किसी जगह दबी हुई। एकाएक मेरी आंखों के सामने एक खाली बोतल आ गई‒ बारीक कागज में लिपटी हुई।

शीला औरत थी‒ बिलकुल खाली औरत। हो सकता है, एक खालीपन ने दूसरे खालीपन को भर दिया हो।