Yahi Sach Hai by Mannu Bhandari
Yahi Sach Hai by Mannu Bhandari

Hindi Story: कानपुर सामने आँगन में फैली धूप सिमटकर दीवारों पर चढ़ गई और कंधे पर बस्ता लटकाए नन्हे-नन्हे बच्चों के झुंड-के-झुंड दिखाई दिए, तो एकाएक मुझे समय का आभास हुआ। …घंटा-भर हो गया यहाँ खड़े-खड़े और संजय का अभी तक पता नहीं! झुँझलाती-सी मैं कमरे में आती हूँ। कोने में रखी मेज़ पर किताबें बिखरी पड़ी हैं, कुछ खुली, कुछ बंद। एक क्षण मैं उन्हें देखती रहती हूँ, फिर निरुद्देश्य-सी कपड़ों की अलमारी खोलकर सरसरी-सी नज़र से कपड़े देखती हूँ। सब बिखरे पड़े हैं। इतनी देर यों ही व्यर्थ खड़ी रही, इन्हें ही ठीक कर लेती।….पर मन नहीं करता और फिर बंद कर देती हूँ।

नहीं आना था तो व्यर्थ ही मुझे समय क्यों दिया? फिर यह कोई आज ही की बात है? हमेशा संजय अपने बताए हुए समय से घंटे-दो घंटे देरी करके आता है, और मैं हूँ कि उसी क्षण से प्रतीक्षा करने लगती हूँ। उसके बाद लाख कोशिश करके भी तो किसी काम में अपना मन नहीं लगा पाती। वह क्यों नहीं समझता कि मेरा समय बहुत अमूल्य है; थीसिस पूरी करने के लिए अब मुझे अपना सारा समय पढ़ाई में ही लगाना चाहिए। पर यह बात उसे कैसे समझाऊँ। मेज़ पर बैठकर मैं फिर पढ़ने का उपक्रम करने लगती हूँ, मर मन है कि लगता ही नहीं। पर्दे के ज़रा-से हिलने से दिल की धड़कन बढ़ जाती है और बार-बार नज़र घड़ी के सरकते हुए काँटों पर दौड़ जाती है। हर समय यही लगता है, वह आया….वह आया!…
तभी मेहता साहब की पाँच साल की छोटी बच्ची झिझकती-सी कमरे में आती है : ‘आंटी, हमें कहानी सुनाओगी?’‘नहीं, अभी नहीं, पीछे आना!’ मैं रुखाई से जवाब देती हूँ। वह भाग जाती है।
ये मिसेज मेहता भी एक ही हैं! यों तो महीनों शायद मेरी सूरत नहीं देखतीं, पर बच्ची को जब-तब मेरा सिर खाने को भेज देती हैं। मेहता साहब तो फिर भी कभी-कभी आठ-दस दिन में खैरियत पूछ ही लेते हैं, पर वे तो बेहद अकड़ मालूम होती हैं। अच्छा ही है, ज़्यादा दिलचस्पी दिखातीं तो क्या मैं इतनी आज़ादी से घूम-फिर सकती थी?

खट-खट-खट….वही परिचित पद-ध्वनि! तो आ गया संजय। मैं बरबस अपना सारा ध्यान पुस्तक में केंद्रित कर लेती हूँ। रजनीगंधा के ढेर सारे फूल लिए संजय मुस्कराता-सा दरवाजे पर खड़ा है। मैं देखती हूँ, पर मुस्कराकर स्वागत नहीं करती। हँसता हुआ वह आगे बढ़ता है और फूलों को मेज़ पर पटककर, पीछे से मेरे दोनों कंधे दबाता हुआ पूछता है : ‘बहुत नाराज़ हो?’रजनीगंधा की महक से जैसे सारा कमरा महकने लगता है।
‘मुझे क्या करना है नाराज़ होकर?’ रुखाई से मैं कहती हूँ। वह कुर्सी सहित मुझे घुमाकर अपने सामने कर लेता है और बड़े दुलार के साथ ठोड़ी उठाकर कहता है : ‘तुम्हीं बताओ, क्या करता? क्वालिटी में दोस्तों के बीच फँसा था। बहुत कोशिश करके भी उठ नहीं पाया। सबको नाराज़ करके आना अच्छा भी नहीं लगता।’
इच्छा होती है, कह दूँ–‘तम्हें दोस्तों का ख़याल है, उसके बुरा मानने की चिंता है, बस मेरी ही नहीं!’ पर कुछ कह नहीं पाती, एकटक उसके चेहरे की ओर देखती रहती हूँ….उसके साँवले चेहरे पर पसीने की बूँदें चमक रही हैं। कोई और समय होता तो मैंने अपने आँचल से इन्हें पोंछ दिया होता, पर आज नहीं। वह मंद-मंद मुस्करा रहा है, उसकी आँखें क्षमा याचना कर रही हैं, पर मैं क्या करूँ?….तभी वह अपनी आदत के अनुसार कुर्सी के हत्थे पर बैठकर मेरे गाल सहलाने लगता है। मुझे उसकी इसी बात पर गुस्सा आता है। हमेशा इसी तरह करेगा और फिर दुनिया भर का लाड़-दुलार दिखलाएगा। वह जानता जो है कि इसके आगे मेरा क्रोध टिक नहीं पाता।….फिर उठकर वह फूलदान के पुराने फूल फेंक देता है, और नए फूल लगाता है। फूल सजाने में वह कितना कुशल है! एक बार मैंने यों ही कह दिया था कि मुझे रजनीगंधा के फूल बड़े पसंद हैं, तो उसने नियम ही बना लिया कि हर चौथे दिन ढेर सारे फूल लाकर मेरे कमरे में लगा देता है। और अब तो मुझे भी ऐसी आदत हो गई है कि एक दिन भी कमरे में फूल न रहें तो न पढ़ने में मन लगता है, न सोने में। ये फूल जैसे संजय की उपस्थिति का आभास देते रहते है।