बच्चों को इनाम बाँटने के साथ शाम को मेला खत्म होने को था। तभी अचानक किसी कोने से आवाज आई, “हरखू दादा आ गए, हरखू दादा…!”
सुनते ही मेले के आयोजकों में बहुत से लोग दौड़े। जमींदार बाबू गंगासहाय भी।
अभी-अभी मेले में लाठी ठक-ठक करते हरखू दादा ने प्रवेश किया था। बाबू गंगासहाय हाथ पकड़कर उन्हें मंच पर लाए। आदर से बैठाया। फिर कुछ भावुक होकर बोले, “आप लोगों को तो यह पता ही है कि मोहना दादा की शहादत के बाद से ही गाँव में हर साल शहीद मेला लगता है। पहले मेरे दादा जी के समय लगता था। पिता के समय में भी लगता रहा, और अब तक तो इसमें कोई नागा नहीं हुआ।…
“हमें खुशी है कि मोहना के साथी रहे हरखू दादा हमारे बीच हैं। इस बार पता चला कि परमेश्वरी बाबू आएँगे और राजेश्वर भाई भी, तो हमने सोचा, हरखू दादा को इस बार जरूर तकलीफ देंगे।…वैसे तो इतने बूढ़े हो चुके हैं हरखू दादा कि अब उनके लिए चलना भी मुश्किल है। होंगे कोई पचानबे बरस के।…या शायद कुछ ज्यादा के हों। पीछे बीमार भी बहुत रहे, पर दिल में जोश है। मोहना से इनकी ऐसी दोस्ती थी कि रोज का मिलना था। मोहना के साथ ही गिरफ्तार भी हुए थे, पर बाद में छूट गए। आज भी मोहना की बात चलती है तो हरखू दादा यहाँ नहीं रहते। कहीं से कहीं पहुँच जाते हैं।… आज हरखू दादा आए हैं, तो वही आपको मोहना की पूरी गाथा सुनाएँगे।”
सुनते ही सभामंडप में तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी, जो थमने का नाम ही न लेती थी।
सभी के चेहरे पर उत्सुकता थी, भला हरखू दादा अपने दोस्त मोहना की यादों में भीगते हुए, क्या-कुछ कहते हैं।
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