काफी देर चलने के बाद वह एक बरगद की छांव में तौलिया बिछा कर बैठ गया। वहाँ उसे लगा कि शहर के सारे विश्रामालय और होटल बेकार हैं। पार्क में धूल- गंदगी का साम्राज्य हो गया है। वहाँ भी लोग शांति महसूस करते हैं, क्योंकि वह भी उन्हें मुश्किल से मयस्सर होता है।
बरगद के पास भी कच्ची सड़क से उड़ी धूल फैली हुई थी। पर उसका रंग दूसरा था, उसकी गंध दूसरी थी। उसने महसूस किया कि शहरी धूल का रंग काला हुआ ही है, उसकी गंध भी तीखी हो गयी है। दोनों धूल में उसे बहुत अंतर महसूस हो रहा था। तौलिया से झाड़ते कपड़ा और देह की सारी धूल खत्म हो गयी। गाँव की धूल शहरी धूल जैसी चमड़े से सटी हुई नहीं रही।
वह बरगद के मोटे तने से सट कर उठंग गया, जैसे कोई बालक किसी बुजुर्ग की स्नेहिल गोद में चिपक गया हो।
एक और मुसाफिर बरगद की ठंडी छांव देख कर वहाँ ठहर गया। मुसाफिर को देख कर उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा_ जैसा कि शहरों में होता है। वह गाँव की धूल के बारे में सोचता रहा। मुसाफिर ने पगड़ी से जमीन झाड़ते हुए बैठने से पूर्व ही प्रश्न ठोक दिया,
“कहां जाना है बाबू? किधर से आ रहे हो?…।”
दोनों में वार्ता होने लगी। उसने महसूस किया कि मुसाफिर उसमें कोई अंतर नहीं समझ पा रहा है। दोनों को एक समझ रहा है। दोनों एक ही गाँव में, एक बरगद तले, एक साथ बैठे हैं… निश्छल वार्ता और व्यवहार से मुसाफिर का शीघ्र ही उससे एकाकार हो गया।
लंबी यात्र का थोड़ा हिस्सा तय करके ही वह थक गया था। शाम भी होने वाली थी। अनजान रास्ता, अनजाने लोग! उसे बाकी यात्र की चिंता सताने लगी। मुसाफिर ने उसकी चिंता भांप लिया। उसने क्षण भर में उसकी चिंता खत्म कर दी। उसने स्वयं कहा, मेरे घर ठहर जायें_ सुबह गंतव्य को चले जायेंगे।
वह मुसाफिर के बारे में सोचने लगा। दूसरे ही क्षण उसका दिमाग शहर की ओर चला गया, वहाँ उसे तीस वर्षों में उसके जैसा कोई आदमी नहीं मिला था। रास्ते में मिले व्यक्तियों के व्यवहार के बारे में भी सोचकर उसने अनुभव किया कि गाँव की धूल का अभी शहरीकरण नहीं हुआ है। उसकी इच्छा हुई कि वह गाँव की धूल में लोट जाये_ जैसे कोई बच्चा बिछुड़ी हुई माँ से मिलने पर उसकी गोद में लोटता है। लेकिन मुसाफिर क्या कहेगा ? यह सोच कर उसने ऐसा नहीं किया।
ये कहानी ‘ अनमोल प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं–Anmol Prerak Prasang(अनमोल प्रेरक प्रसंग)
