भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
उस छोटे-से स्टेशन पर रेल रुकी। समीर उतरा। प्लेटफार्म खचाखच भरा हआ था। उसे पता था कि यह गरुवार के कारण है। इस गांव-नमा कस्बे में मंदिर जो है, वह इस वार को भीड़-भरा होता है। फिर आज तो गजाधर महाराज, जिनके नाम पर मंदिर है, उनकी जन्म-तिथि भी थी। वह धीरे-धीरे चलता हुआ स्टेशन परिसर के बाहर आया। वहां रिक्शेवालों के बीच होड़ मची हुई थी। एक बस थोड़ी दूरी पर खड़ी थी, जो यात्रियों को निशुल्क मंदिर तक ले जाती थी। उसके पायदान पर भी कई-एक लटके हुए थे। वह इन सबसे निरपेक्ष-सा लोगों के मध्य से राह बनाता पैदल आगे बढ़ गया।
रास्ते पर मुसाफिरों के रेले के रेले बहे जा रहे थे। बाईं ओर का जीन-प्रेस, दाहिनी तरफ की बन्द फैक्टरी… और वह बस स्टैंड तक आ पहुंचा। इसके बाद सड़क की दोनों बाजुओं पर दुकानें थीं- कपड़ों की, जूतों की, किराने की, चाय-नाश्ते की, मेडिकल… और भी सब तरह की, जो एक कस्बे की रोजमर्रा की जरूरतों के हिसाब से हर जगह होती ही होती हैं।
अब उसके बायें एक स्कूल था। इससे उसकी तमाम स्मृतियों का एक अटूट रिश्ता था। जब वह दसवीं कक्षा में था, यहीं पर बैडमिन्टन के ताल्लुका टूर्नामेन्ट आयोजित थे। उसे याद आया- क्या तो वे दिन थे…
उसने शब्दिता के साथ यहीं पर बैडमिन्टन डबल्स में विजय पायी थी। शब्दिता… वह मंदिर जा रहे रास्ते पर एक किनारे चल रहा था- रुक गया उस स्कूल के गेट के पास। सोचता रहा अपने अतीत के बारे में। फिर उन बीते हुए चित्रों के साथ वह हौले-हौले आगे बढ़ता गया…
जब दोनों उस तहसील स्तरीय टूर्नामेन्ट में जीत गये तो स्वाभाविक था लौटते में वे आपस में जुड़ जाते। यही हुआ। शब्दिता ट्रेन में उसके पास की सीट पर ही आ बैठी थी। दोनों विजयोल्लास से भरे-भरे खेल के दौरान उनके परस्पर सामंजस्य से अभिभूत हो, हर शॉट के विषय में विस्तार से चर्चा करते रहे थे।
वापिस अपने शहर आये तो दसवीं के इम्तहान सामने थे। उसकी तैयारी के दरमियान भी मिलते-जुलते रहे। जिला स्तरीय टूर्नामेंट में शिरकत न करने का फैसला लिया। नोट्स और किताबों का आदान-प्रदान होता रहा। इस मेल-मिलाप के चलते दोनों में आंतरिकता ने अपने पैर जमाये। इस नजदीकी ने उन्हें स्वयं की और दूसरे की भावनाओं को समझने में मदद की। एक अनाम सम्बन्ध उनके बीच पनपता रहा, जिसको फिलवक्त में कोई नाम देना ठीक नहीं था। हां, अंकुर फूट चुका था- पल्लव लजाते हुए धीरे-से उन्मुलित हो रहे थे…
‘तुम कल क्यों नहीं आयी?’
‘क्या करूं, मां की तबीयत अचानक बिगड़ गयी थी।’
‘अब ठीक है।।?’
‘हां, थोड़ा-सा बुखार था, दवाई देने से उतर गया।’
‘मैं तुम्हारा इंतजार करता रहा।।’
‘मैं भी आने के बहाने ढूंढती रही, पर हो न सका।’
‘चलो, आज आ गयी हो तो अच्छा लग रहा है। तुम्हारे लिए फिजिक्स के पिछले तीन साल के पेपर्स मैं ले आया हूं। और उनमें से अपेक्षित सवाल भी मैंने चुन लिए हैं।’
‘समीर, तुम मेरा कितना ख्याल रखते हो…’
यह संयोग ही था कि स्कूल के पश्चात एक ही कॉलेज की एक ही कक्षा में दोनों फिर आ मिले। पुरानी निस्बत थी ही- दोस्ती निखरने लगी। यही वो समय था जब समीर की जिन्दगी में भारी उथल-पुथल ने बवण्डर ला दिया था…
वह मंदिर के विशाल गेट से प्रवेश कर रहा था। उसने अपने सर को दायें-बायें घुमाकर खुद को वर्तमान के सख्त धरातल पर लाने का प्रयास किया। गेट से मंदिर तक पक्की सड़क थी और दोनों ओर दुकानें- फूल, प्रसाद और तरह-तरह की मूर्तियों, मालाओं तथा आकर्षक गिफ्ट्स की। वह इन सबसे बेखबर सीधा वहां तक चलता गया, जहां से मंदिर के गर्भ-गृह में जाने हेतु रास्ता नियोजित था। यह सड़क के समतल प्रारंभ होता था लेकिन बाद में गुफा की शक्ल में जमीन के नीचे से होते हुए गर्भ-गृह के द्वार पर ऊपर खुलता था। इस सुरंग-नुमा संकरे रास्ते से भक्त पंक्तिबद्ध हो मंदिर के सुरक्षाकर्मियों की उपस्थिति में मंदिर के ऊपरी परिसर की भीड़ से बचते हुए उस द्वार तक जा लगते थे, जहां डण्डे से उनको रोक-रोककर पांच-छः के समूह में नीचे जाने दिया जाता था।
मंदिर के ऊपरी भाग में स्थित देवी-देवताओं की पूजा के वास्ते अलग व्यवस्था थी। मंदिर जिन गजाधर महाराज के नाम से प्रसिद्ध था, उनकी समाधि नीचे थी। अकसर भीड-भाड में समाधि तक जाते लोग कोहराम मचा देते थे। ऊपर राम-सीता-हनमान के दर्शन करने और नीचे जाने को उतावले भाविकों को सुरक्षाकर्मी कितना ही अनुशासित करते, कुछ-कुछ तालमेल गड़बड़ा जाता था। इसलिए संस्थान के व्यवस्थापकों ने समाधि तक जाने के लिए यह नया रास्ता बनाया था ताकि नियंत्रण हो सके। वे इस में कामयाब भी हुए थे। सुरंग से होकर लोग बिना किसी अव्यवस्था के गर्भ-गृह तक सुरक्षित जा पाते थे।
समीर लम्बी कतार के आखिरी छोर पर खड़ा हो गया। उसके सामने एक युवा स्त्री अपने बच्चे को बांहों में सम्भाले हुए थी। शायद उसका पति उसके आगे था। बच्चा सोया हुआ था। सुरक्षाकर्मी ने ज्यों ही सुरंग के मुहाने से डण्डा हटाया, समीर उस दम्पती के पीछे अन्दर दाखिल हो गया। वह उस महिला से समुचित अंतर बनाये था। महिला बच्चे को गोद में बराबर उठाये रखने के यत्न में कभी-कभार उससे टकरा जा रही थी। एक बार तो यों हुआ कि वह लगभग समीर की देह से मानो चिपक-सी गयी थी। समीर संकोचवश कुछ पीछे हट गया था। तभी बच्चा रोने लग गया था…
उस बेचारी महिला की मुसीबत बढ़ गयी थी। छोटे-से बच्चे को वह दुलार के शब्दों से, बांहों के झूले में झुलाते हुए बहलाने की कोशिश में लगी हुई थी। बच्चा था कि किसी कदर मान नहीं रहा था। मजबूरन उस स्त्री ने चलते-चलते अपने ब्लाउज को ब्रेसियर समेत ऊपर किया और बच्चे के मुंह में अपना स्तनाग्र दे दिया। सुरंग में मात्र एक पंखा लगा था। शायद हवा की कमी के कारण बच्चे की नींद खुल गयी थी परन्तु ज्यों ही उसे अपनी मां के वक्ष से दूध का स्वाद आया, वह ऑक्सीजन की न्यूनता को जैसे भूल गया। समीर देख रहा था, चूंकि उसकी ऊंचाई उस औरत से औसतन बहुत ज्यादा थी- स्पष्ट रूप से-कि बच्चा किस प्रकार अपने नन्हें-नन्हें हाथों से अपनी मां की छातियों को छेड़ता-सहलाता-सा मगन था उस अमृत-पान में।
वे सुरंग का काफी फासला तय कर गये थे। समीर के पीछे भी कई लोग थे। वे बीच-बीच में गजाधर महाराज की जय-जयकार करते हुए आनंदित नजर आ रहे थे। आगे थोड़े अंतर पर एक सुरक्षाकर्मी सबसे संयत रहने की अपील कर रहा था। सब कुछ सामान्य था। लोग अपनी आस्था के तहत एक निराली खुमारी में डूबे-डूबे महाराज के दर्शन को लालायित लग रहे थे। वह महिला बच्चे के तृप्त हो जाने की अनुभूति से लबालब प्रसन्न दिखाई दे रही थी।
इसी वक्त समीर नीचे झुका-झुका जोर से चिल्लाया- ‘अरे! सांप… सांप…!’ हड़बड़ी में वह महिला को धक्का देते हुए पूरी रफ्तार से चार-पांच लोगों से टकराते हुए आगे तक गया। उसके चेहरे पर घबराहट के चिन्ह थे। एक पल- और वह पलटा- ‘नाग है, नाग…’ ऊंची आवाज में उसने शोर मचाया और जहां वह पहले था. वहां से पीछे तीनेक लोगों को जबरन हटाते हए भागा। भगदड़ मच गयी। महिला के आगोश से बच्चा समीर के प्रबल आघात से नीचे जा गिरा था। वह पागलों की नाईं उसे फर्श पर यहां-वहां तलाशने लगी। तभी पीछे से आ रहा डरा हुआ लोगों का जमघट अंधों जैसा उसे धक्के मारता आगे निकला और वह उनके पांवों के बीच पिस गयी। उसका पति उसे सम्भालने के प्रयत्न में विरुद्ध दिशा से आ रहे आतंकित जन-संकुल के झटके से उसको लांघते हुए सर के बल जा गिरा और जमीन चूमने लगा। समूची सुरंग में अफरातफरी हावी हो गयी। कोई कुचला गया, कोई दीवार से टकराया, कोई चारों खाने चित हो बचाओ…बचाओ… की गुहार लगाने लगा। यहां तक कि आगे कुछ दूरी पर ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मी भी उठंगा-सा दोनों हाथों से भीड़ के दबाव को थामने में असफल हो रहा था। तीन फूट चौड़ी, सात फूट ऊंची गुफा में हर कोई अपनी जान बचाने की कोशिश में घुटनों के बल गिर रहा था या धराशायी हो जा रहा था।
समीर आसपास के लोगों को हड़काते हुए सुरंग की दीवार से चिपक कर खड़ा हो गया था। वह देख सकता था कि वह छोटा बच्चा लोगों के पैरों तले बुरी तरह कुचला जा चुका था। अपनी बांह से उसे घेरे उसकी मां या तो बेहोश हो चुकी थी अथवा अंतिम सांस ले रही थी। जहां तक उसकी दृष्टि जा सकती थी, यही हालत थी। कोई मर रहा था, किसी का हाथ तो किसी का पैर टूट चुका था। सभी चीख-चिल्ला रहे थे। सुरक्षाकर्मी पहले तो प्रयत्न करते रहे लोगों को शांत करने की, फिर लोग जब उनको भी धकियाते हुए इधर-उधर दौड़ने लगे तो उनमें भी कुछ घायल हो गये या जान बचाने की खातिर बाहर दौड़ पड़े।
चन्द ही मिनटों का हादसा था यह। चक्रवात-सा आया और रुक भी गया। पता नहीं कितने कुचले गये, कितने जख्मी हुए और कितने अपने-आपको ऐन-केन महफूज रख पाये। मंदिर का सारा स्टाफ, व्यवस्थापक इस खबर को पाते ही अविलम्ब वहां आ गये थे लेकिन जो हो चुका था, उस पर किसका बस था… राहत कार्य प्रारंभ हो गया था। मंदिर की दो एम्बुलेंस में गिरे-पड़े यात्रियों को उठा-उठाकर डाला जा रहा था। मंदिर में ही स्थित अस्पताल तक उन्हें ले जाने के उपरांत एम्बुलेंस पुनः अन्य चीखते-चिल्लाते स्त्री-पुरुषों को ले जाने को आ चुकी थी। कछेक युवक भी, जो सही-सलामत थे, इस कार्य में सहायता कर रहे थे। पुलिस भी आ गयी थी, पर कोई अचूक बता नहीं पा रहा था कि दुर्घटना कैसे हुई।
इन सब अनवरत चलते दृश्य-क्रमों के मध्य समीर, जो दीवार से चिपका खड़ा था, आहिस्ता-आहिस्ता सुरंग से बाहर निकल आया। फूल-मालाओं की दुकान पर जाकर उसने एक गुलाब का फूल खरीदा। शायद शब्दिता के लिए…
शब्दिता, वही जिसने समीर को अवसाद में घिरे होने पर पूरा साथ दिया था। वह आती रही थी उसके घर। उसकी सह-अनुभूति से समीर का परिवार आप्लावित होता रहा था। समीर की बहन तबस्सुम तो उसकी सहेली बन गयी थी। लेकिन परिस्थितियों पर किसका वश चलता है…। बावजूद शब्दिता के प्रेमपूर्ण सद्भाव के वे टूटते ही चले गये थे। आप कितनी भी बड़ी-बड़ी बातें कर लें, जब चारों दिशाओं से आप पर संकट के बादल छाये होते हैं तो अवसन्न मन को सहेजना वैसे ही कठिन हो जाता है, जैसे नदी में अगला कदम रखते ही एकाएक आयी गहराई के मारे आप डूबने लगते हैं, आपके हाथ-पैर काम नहीं करते, दिमाग सुन्न हो जाता है, उस ऊभ-चूभ से आप पार नहीं पा सकते, सहारे के लिए बढ़े हाथों को भी पकड़ नहीं पाते, आपके नाक-मुंह में पानी भरता जाता है और…
यही दर्दनाक मनस्थिति हो गयी थी समीर की। क्या तो उसकी उम्र थी- सिर्फ सत्रह साल और पिता का साया सर से उठ चुका था। जी नहीं, उनका अवसान नहीं हुआ था, उन्हें तो हमारी सरकार ने आतंकवादी का ठप्पा लगाकर जेल में डाल दिया था। समीर और उसके परिवार के लिए तो ज्यों उनका इन्तकाल ही हो चुका था। पुलिस ने उन्हें आतंकी कानून के तहत गिरफ्तार कर पता नहीं किस काल-कोठरी में गायब कर दिया था कि किसी को उनसे मिलने की इजाजत भी नहीं थी।
खैर! साया तो उठ ही चुका था। पिता के न रहने पर तीन छोटे भाई-बहनों और अम्मी की जिम्मेदारी समीर के अपरिपक्व और नाजुक कंधों पर आन पड़ी थी। उसने दोस्तों के साथ मिलकर, कुछ बुजुर्गों की रहनुमाई में पुलिस को सच्चाई से वाकिफ कराने की पुरजोर कोशिशें कीं-कि, उसके वालिद एक मामूली नौकरी-पेशा और शरीफ इनसान हैं, उनका किसी दहशतगर्दी से कोई नाता नहीं है…लेकिन उसकी कोई दलील नहीं मानी गयी। पुलिस का कहना था कि उसके वालिद अजमल शरीफ केवल नाम से शरीफ हैं, उनकी काली करतूतों की लम्बी फेहरिस्त उनके पास मौजूद है…
समीर के अब्बू तहसील कार्यालय में वरिष्ठ लिपिक थे। बेहद ईमानदार। वहां तो रिश्वत लेने वालों की चांदी रहती है, पर इस पचड़े से उन्होंने खुद को हमेशा दर रखा। शायद उनकी यही ईमानदारी ही उनके आडे आ गयी। रिश्वत लेते नहीं थे, गैर-कानूनी काम करते नहीं थे। किसी बड़े आदमी की कोई अर्जी को उन्होंने अग्रेषित करने से मना कर दिया था कि वह झूठी है सरासर और अवैध। जिस भूभाग को वो खरीदना चाहता था, वह सरकारी थी, जिसे किसी और के नाम से रजिस्टर बताया गया था। उनके रोकने से वह लेन-देन तो रुका नहीं, उनको जरूर इसकी कीमत चुकानी पड़ी। उस बड़े आदमी के सियासत में गहरे ताल्लुकात थे। उसने अजमल शरीफ के खिलाफ पुलिस को ऐसे सुबूत पेश कर दिये, जो उन्हें देशद्रोही साबित करने के लिए पर्याप्त थे।
कहीं कोई सुनवाई नहीं थी। बताया जा रहा था कि पाकिस्तान की आइएसआइ से जुड़े होने की आशंका के कारण उसके वालिद को यहां से दिल्ली लेकर चले गये थे। आतंकवाद-रोधी धाराओं की कड़ी कार्रवाई में फंसा दिया गया था उसके वालिद को, जो बिलकुलबेकसूर थे। दूर तक उनका किसी उग्रवादी संगठन से कोई सम्बन्ध होने की गुंजाइश नहीं थी मगर पुलिस के आगे किसकी चलती है… नौकरी से उन्हें तुरंत बर्खास्त कर दिया गया था। उनकी कोई जमा-पूंजी भी नहीं थी कि उनके न होने पर भी घर सुचारु रूप से चलता रहे। किसी और स्रोत से भी आवक नहीं थी। समीर की अम्मी ने घरेलू खर्चों में जोड़-तोड़ कर जो बचा रखा था, वह भी समाप्त-प्राय था। उसके वालिद की गिरफ्तारी हुए तकरीबन एक माह बीत चुका था। कैसे बीता था, यह तो कोई उनसे ही जाकर पूछे… ऐसे में एक समीर ही था जिसे कुछ करना था।
इन सारी बातों से वाबस्ता शब्दिता ने उसे मानसिक रूप से बहुत सहारा दिया। तमाम घटनाओं की जानकारी लेने के बाद वह समीर से बोली, ‘तू चिन्ता मत कर, समी… तेरे पिताजी ने कोई गलत काम नहीं किया है तो वे जल्द ही छूट जायेंगे… फिर से खुशहाली आ जायेगी…’
समीर ने उसे इस आपदा की गंभीरता से अवगत कराते हुए कहा, ‘इतना आसान नहीं है शब्बू… हम सोच भी नहीं सकते, उससे कई गुना ज्यादा गहन मसला है यह… जिन धाराओं को मेरे बेगुनाह पिता पर चस्पा कर दिया गया है, उन से छुटकारा बेहद मुश्किल है…’
‘तू हिम्मत ना हार, समी… भगवान सब ठीक करेगा।’ शब्दिता ने उसे सांत्वना दी। ‘मेरे पास कुछ पॉकेट मनी मैंने बचा रखा है, वह मैं तुझे कल ला दूंगी। बाद में भी कोई न कोई व्यवस्था हो जायेगी…’
वे दोनों मोहल्ले के पार्क में सुनसान कोने के एक बेंच पर बैठे थे। शब्दिता की हौसला अफजाई से प्रवृत्त हो आसपास किसी को न देख एकाएक उसने शब्दिता को बांहों में भरकर चूम लिया। देर तक वे उसी अवस्था में बने रहे। फिर कहीं किसी आहट को सुनकर अलग हुए।
शब्दिता के इन विश्वास भरे बोलों से समीर आश्वस्त हुआ। उसने निश्चय कर लिया कि वह नौकरी करेगा। इस-उस स्थान पर भटकता रहा लेकिन एक दसवीं पास को कौन नौकरी देगा और ऐसी-वैसी मिल भी गयी तो कितना वेतन मिलेगा… वह परेशान हो गया। शब्दिता की आर्थिक मदद से दो जून की रोटी तो मुहैया हो जा रही थी मगर कब तक…
शब्दिता की भी अपनी मर्यादाएं थीं। एक तो वह हिन्दू, समीर मुसलमान। इस रिश्ते को वह अपने मां-बाप को बता भी नहीं सकती थी। दूसरे, वह पैसों का बन्दोबस्त करे भी कहां से… अपने इस प्यार को वह छिपा कर रखे, इसी में उसकी भलाई थी कि हो सकता है भविष्य के गर्भ में इसका कोई सुलझाव छिपा हो…
इसके बरक्स समीर दिन-ब-दिन गुस्से में पागल हुआ जा रहा था। न आजीविका का कोई साधन मिल पा रहा था और न उसके निर्दोष वालिद के छूटने की कोई सूरत दिखाई दे रही थी। एक मर्तबा तो तैश में आकर उसने अपने अबोध छोटे भाई को बेवजह पीट दिया, जिसने भोलेपन से पूछा था ‘भइया, अब्बू हमें छोड़कर कहां चले गये?…’ उसका आक्रोश उत्तरोत्तर बढ़ रहा था क्योंकि वह लाचार था। अम्मी की आंखों का एकसार आंसुओं से भरे-भरे रहना, उसकी नसों में कुछ कर बैठने के लिए जोश भरता रहता लेकिन… वह गालिब का शेर तब अकेले में गुनगुना उठता… ‘रगों में दौड़ते-फिरने के हम नहीं कायल, जो आंख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है।’
इन्हीं बेचारगी और क्रोध की घड़ियों में एक रात उसके घर की कुंडी किसी ने खटखटायी। बारह बज चुके थे। इस बेवक्त कौन आया होगा… साहस कर उसने दरवाजे की सांकल खोली। सामने एक अजनबी था। साफ-शफ्फाफ कुर्ता-पाजामा, सर पर नमाजी टोपी, दाढ़ी के लहराते सफेद बाल- निहायत शराफत में सरापा डूबी शख्सियत… समीर ने हिचकिचाते हुए पूछा, ‘जी… कौन चाहिए… आपको?’
आगंतुक ने मुस्कराते हुए जवाब दिया- ‘मुझसे डरने की जरूरत नहीं है। मैं आपकी मुसीबतों का हल लेकर आया हूं। आप मेरी बात सुन लीजिए… फिर आपकी मर्जी, चाहे तो मेरी सलाह कबूल करें या न करें। मैं जैसे आया हूं, वैसे ही लौट जाऊंगा।’
समीर ने बुजुर्गवार को गौर से देखा। उनका कहना क्या है, जान लेने से खुद को रोक न सका। एक ओर हटकर बोला, ‘भीतर आ जाइए।’
बैठक में कुर्सी पर टिकते ही उनकी निगाह चिलमन की ओट में खड़ी समीर की अम्मी पर पड़ी। उन्होंने उस तरफ देखते हुए इसरार किया- ‘आप भी आ जाइए… मुझ बूढ़े से क्या परदा!…’ उनके चेहरे पर मुस्कान थिरक उठी। सफेद दाढ़ी को सहलाते हुए ज्यों उन्होंने अपनी उम्र का वास्ता दिया। अम्मी को इसमें कुछ भी नागवार नहीं लगा। वे हौले-हौले चलते हुए दीवान के कोने पर आ बैठीं।
यकायक उनका लहजा बदला- उन्होंने आग-सी उगलते हुए कहा, ‘यह जो भी आपके साथ दर्दभरा नाइन्साफ दौर गुजरा है, यही… क्या इतना नाकाफी है जो आप चुप्पी ओढ़े निढाल रहें यूं ही…?’
समीर अटकते हुए बोला, ‘हम… हम कर भी क्या सकते है…।’
‘इन्तकाम… अंग्रेजी में कहावत है- टिट फॉर टैट… वैसे मैं खुले ख्यालात का हूं। गांधीजी ने कहा था- आपके एक गाल पर कोई थप्पड़ मार दे तो दूसरा आगे कर उसे शर्मसार किया जा सकता है। लेकिन यहां तो दोनों गालों पर थप्पड़ पड़ चुकी है…’
अम्मी ने सहमी-सी आवाज में शुबहा जाहिर किया- ‘हमारे तो दोनों हाथ कट चुके हैं भाईजान, हम थप्पड़ मारने का हौसला लाये कहां से…’
उनकी सूरत पर कई भाव आये, गये। वे मुलामियत से बोले, ‘मेरे पास इसका इलाज है। बस आप लोग ‘हां’ कर दें। हम काफिरों को ऐसा सबक सिखायेंगे कि उनके मुंह से उफ…उफ… निकलता रहेगा।’
समीर को यह मशविरा रास तो आ रहा था, मगर इससे उसकी माली हालत तो सुधरने से रही… वह अम्मी के नजदीक जा खड़ा हुआ, जैसे मिलकर इस सुझाव का विरोध करना हो- ‘चचाजान, आप हमें बदला लेने के लिए चाहे उकसा लें, उससे हमारा आबो-दाना और भाई-बहनों के परवरिश का मसला तो सुलझने से रहा…’
‘उसकी फिक्र आपको नहीं, मुझे करनी है। आप मेरी बतायी राह पर चल निकलेंगे तो आपकी झोली में दुनिया भर के साजो-सामान आप ही टपक पड़ेंगे। खुदा जब देता है तो छप्पर फाड़कर… इस कहन पर आपको यकीन हो जायेगा…’
अम्मी और समीर की नजरें मिलीं। मन में व्याप्त रोष विवशता के साथ एकमेक हो उनके जमीर के सूरज को धुंध के घने स्याह बादलों में लपेटता जा रहा था। वे जान-समझ रहे थे कि अब शायद यही तरीका बचा है…अम्मी ने ही उनकी राय को तवज्जो देने की पहल की- ‘हमें करना क्या होगा और हासिल क्या होगा…’
‘आज के लिए इतना ही बस है कि आपको इस सब के एवज में भरपूर मिलेगा, जो आपने कभी सोचा भी नहीं होगा। और इसके वास्ते करना क्या है, मैं समीर को कल दोपहर दो बजे आने पर सिलसिलेवार समझा दूंगा। अपने शहर की बड़ी मस्जिद के अहाते में जो दुकानें हैं, वहीं मेरी भी है। किसी से भी पूछ लेना अमन चाचा की कौन-सी है…। इतना मैं भरोसा देता हूं कि इसकी जान को कोई जोखिम नहीं होगा…।’
अब दूसरे अभियान पर निकला था समीर। अमन चाचा ने उसको पहले काम का ही इतना मुआवजा दे दिया था कि बरसों की फिक्र मिट जाये। इसी से प्रोत्साहित हो मजबूर समीर को यह मार्ग इतना सरल, सहज और कमाई का माध्यम लगा कि वह अपने विवेक को कहीं दुत्कार कर भगा चुका था। उसके अब्बू के संग जो भी बर्बरता बरती गयी थी, वह उसके रक्त के रेशे-रेशे में समाहित हो अच्छे-बुरे के निर्णय से उसे बहुत-बहुत दूर ले आयी थी। अपनी मुफलिसी का वह खौफनाक अरसा उसके कोप में तड़के का काम करता रहा था। उसने अपनी आदर्शवादिता से मुंह मोड़ लिया था, बल्कि ऐसा करने के लिए परिस्थितियां उसे बेहिस कर गयी थीं। इन दिनों वह शब्दिता से मिलने को भी जानबूझकर टालता रहा था। इस दूसरे मिशन पर जाते हुए उसका सारा ऊहापोह खत्म हो गया था, जो पहली बार उसे बारहा झंझोड़ता रहा था।
उस तीर्थ स्थान, जो भोले शंकर के मंदिर के नाम से प्रख्यात था, के एक छोटे-से होटल में वह आ रुका था। अगले दिन महाशिवरात्रि के अवसर पर, जिस पहाड़ पर मंदिर स्थित था, उसकी तलहटी में मेला लगना था। सुबह-सुबह जब वह होटल से बाहर आया, वह कहीं से समीर नहीं लग रहा था…। उसने पुलिस कांस्टेबल की यूनिफार्म पहनी हुई थी और एक डण्डा उसके हाथ में था।
पहाड़ी पर सीढ़ियों से चढ़ने के पश्चात एक बिलकुलकम चौड़ा रास्ता उस छोटी-सी गुफा तक जाता था, जिसमें शिवलिंग की पूजा-अर्चना की जाती थी। उस रास्ते- रास्ता भी क्या पगडण्डी-पर मात्र दो व्यक्तियों के चलने की समाई थी, एक आ तो दूसरा जा सकता था। इतना सम्भलते हुए चलना होता था कि आपका संतुलन थोड़ा बिगड़ा नहीं कि आप नीचे कई-कई मीटर अथाह खाई में, जिसमें झांकने पर नीले-नीले कोहरे के सिवा कुछ दृश्यमान नहीं होता था।
इस तंग पैदल-पथ के करीब बीच में हल्के-से मोड़ पर एक जरा उभरी हुई चट्टान थी। इसके विषय में उसे प्लान में पहले ही बता दिया गया था। समीर डण्डा घुमाकर रौब गांठते हुए जाकर उसी चट्टान के दाहिने खोह-सी बनी जगह में खड़ा हो गया। वहां से उसे दर्शन को जाने वाले दो-एक ही, पर वापिस आ रहे सभी भक्त दृष्टिगत हो रहे थे। उसकी उपस्थिति से सभी में अनुशासन-सा आ गया था।
उसे लगा कि श्रद्धालुओं की तादाद में बेहतर इजाफा हो गया है और वे खाई की उतनी परवाह न करते हुए अपनी धुन में कुछ जल्दबाजी दिखा रहे हैं। मौके को ताड़कर उसने दर्शन कर आ रहे एक साधारण-से आदमी, जो किसी युवती के एकदम अनंतर था, को लक्ष्य कर अपने डण्डे से उस पर वार करना शुरू कर दिया- ‘स्साले, जवान औरत देख छेड़ रहा है… मां-बहन नहीं है क्या?…’ उसके डण्डे की चपेट में इधर-उधर के दो-चार लोग भी उसने इरादतन ले लिए थे। भीड़ में हड़बड़ाहट तारी हो गयी थी। वह डण्डे को और-और लम्बा कर गालियों के साथ उन पर निष्ठुर प्रहार करने लगा। जो-वो अपनी जान बचाने को दिशाहीन भागने लगा। लेकिन वह मैदान तो था नहीं कि वे मनमानी दौड़ लगा पाते। औरतें-बच्चे, बड़े-बूढ़े ही नहीं युवक-युवतियां भी अचानक हुए इस हमले से घबराकर स्वयं को सुरक्षित करने के प्रयास में अन्यों को धक्का दे-देकर कहीं आश्रय पा लेना चाहते थे… पर आश्रय तो उन्हें मिल रहा था उस खाई की गहराई में। अनेक लोग किसी पुतले की माफिक पहाड़ी की खुरदरी सतह से टकराते हुए नीचे भीषण अंधेरे में गुम हुए जा रहे थे। चट्टान के साये में खड़ा समीर लगातार उन पर मुंह से कम, डण्डे से ज्यादा आघात किए जा रहा था।
जब दोनों ओर से आवागमन कुछ थम-सा गया, वह अपना डण्डा फटकारते, कान पर मोबाइल लगाये और चिल्लाते हुए वापिस चल पड़ा ‘आगे धोखा है। वहीं रुके रहो। मैं पुलिस चौकी फोन कर रहा हू…। जाकर और पुलिस लेकर आ रहा हू…। एम्बुलेंस भी…’
इस तरह की वारदातें हमारे देश में बहुतायत से होती रही है…। 27 अगस्त, 2013 को नासिक में गोदावरी नदी के किनारे चालीस; 25 जनवरी, 2005 को मंधार देवी के मंदिर परिसर में तीन सौ; 27 मार्च, 2008 को मध्यप्रदेश के करिला गांव में आठ; 2008 की 3 अगस्त को हिमाचल प्रदेश के नैनादेवी मंदिर के पास एक सौ चालीस; 2008 की ही 30 सितम्बर को जोधपुर के मेहरानगढ़ किले के चामुंडा देवी मंदिर के आसपास दो सौ बीस; 4 मई, 2010 को उत्तर प्रदेश के राम-जानकी मंदिर में तिरसठ; 14 जनवरी, 2013 के दिन केरल के सबरिमाला मंदिर में सौ; गंगा नदी के तीर पर हरिद्वार में 6 नवम्बर, 2011 को बाईस; गुजरात में जुनागढ़ के भावनाथ मंदिर के महाशिवरात्रि मेले में 19 फरवरी, 2012 को छ: 13 अक्तूबर, 2013 को मध्यप्रदेश के दतिया जिले के मंदिर की ओर जाते पुल पर कम से कम नब्बे और समीर खूब जानता था- पिछले दिनों गजाधर मंदिर में ग्यारह स्त्री-पुरुष-बच्चे-बूढ़े दर्शनार्थी काल के ग्रास बन गये थे। ये सारे सरकारी आंकड़े हैं, असल में कितने मरे, कितने घायल हुए या कि अपाहिज कौन जानता है?…
बहरहाल, समीर सही-सलामत न केवल अपने होटल अपितु अपने शहर भी शाम तक लौट आया था। उसके पास बैग के अलावा एक ब्रीफकेस भी थी, जब वह देर रात को लड़खड़ाते हुए अपने घर की कुंडी बजा रहा था। कहना न होगा कि ब्रीफकेस नोटों से भरी थी। अम्मी ने दरवाजा खोला। उसने उनको ब्रीफकेस सौंपते हुए अपनी लहराती आवाज पर बहुत संयम बरतते हुए कहा, ‘अम्मी, इसमें इतने सारे पैसे हैं…। अब हम पुलिस के हलक में उन्हें ठूस-ठूसकर अब्बू को छुड़ा लायेंगे…’ अम्मी को खुश होते देख वह संतुष्ट होकर बोला, ‘मैं बुरी तरह थक चुका हूं। खाना खा लिया है, अब सोने जा रहा हूं।’ अम्मी की अनुभवी दृष्टि ने उसकी हालत का जायजा ले तो लिया था, पर वे खामोश बनी रही…
सवेरे चाय पीते हुए समीर अखबार में कल के समाचार को पढ़ते हुए अपनी ही पीठ थपथपा रहा था। पहले ही पन्ने पर उस हादसे की खबर मोटे-मोटे शीर्षक के साथ पूरे विस्तार से प्रकाशित थी। कहीं कोई किसी पुलिस की ज्यादती का जिक्र नहीं था, जैसी कि वह अपेक्षा कर रहा था। कारण, जिन्हें सच पता होता है, उनका मुंह तो पहले ही बन्द हो चुका होता है। कई कयास लगाये जा रहे थे कि यह हुआ होगा, वह हुआ होगा। हां, एक पुलिस वाले ने लोगों की सहायता की, यह उल्लेख अवश्य था। उसे अपने पराक्रम पर नाज हो आया।
उसकी बहन ने उस दुर्घटना का वृत्तांत उसके उठने से पूर्व ही पढ़ लिया था। वह चाय का कप देने के बाद भी किसी बुत-सी वहीं खड़ी हुई थी। समीर ने जब अखबार को मोड़ कर स्टूल पर रखना चाहा, उसे उसका यों खड़े रहना अटपटा लगा। उसने सोचा कि वह क्या जाने कि उसके इसी भाई ने इस शौर्य को अंजाम दिया है। उसे यह सब राज रखे रहने की अल्लाहताला के नाम पर कसम दी गयी थी। वह चाहकर भी उसे कुछ बता नहीं सकता था। उसने उसके यों रुके रहने की वजह जानने के लिए पलकें उठाकर देखा…
उसकी बहन तबस्सुम की आंखों में आंसू देखकर वह चौंक उठा- ‘क्या हुआ तब्बू, तुम रो क्यों रही हो…?’
तबस्सुम हिचकियां लेते हुए और जोर से रो पड़ी। अवाक् समीर झटके से उठ खड़ा हुआ। तबस्सुम के कंधों को पकड़ कर हिलाते हुए उसने पूछा, ‘क्या हुआ, बता तो…’
तबस्सुम ने खुद को सम्भालते हुए किसी तरह कहा- ‘भइया… आपने खबर के… आखिर में मरने वालों के नाम… नहीं देखे शायद… न… नहीं रही… वह… आपकी दोस्त… शब।। शब्दिता… इस हादसे में वह भी गहरी खाई में कहीं स… समा…’ अंतिम शब्द उसकी सिसकियों में डूब गये।
समीर तबस्सुम के कंधों को बेतहाशा झकझोरते हुए चीख पड़ा- ‘क्या कह रही हो… तब्बू…!’ फिर पलटा और अखबार के पन्नों को किसी दीवाने जैसा देखता रहा। उसकी नजर वहां जा टिकी, जहां मृत लोगों के नाम दिए गये थे। उसने अखबार को तोड़-मरोड़ कर एक ओर फेंका और धम्म से कुर्सी में समा गया। उसकी आंखें आवश्यकता से अधिक चौड़ी होकर शून्य में अटक गयीं, होंठ खुले के खुले रह गये। जैसे वह अपना होश खो बैठा हो… तब्बू ने उसके नजदीक आकर झट उसके सिर को अपने हाथों से थामकर अपने पेट से सटा लिया और आर्तनाद कर उठी- ‘भइया!…’
इस चीख-चिल्लाहट को सुनकर अम्मी और छोटे भाई-बहन सब दौड़कर आये। समीर को अम्मी ने हिलाया-डुलाया- ‘क्या हुआ बेटे…!’ उसकी तन्द्रावस्था से भयभीत हो उसे अपने करीब खींच लिया और तब्बू की ओर सवालिया निगाह डाली। तब्बू ने रोते-रोते वह दुखदायी वाकया बताया। तब्बू से छोटी बहन तुरंत पानी का गिलास लेकर आयी। अम्मी ने उसमें से पानी के चन्द छींटे समीर के चेहरे पर छिड़के और उसे दो चूंट पानी पिलाया। समीर की आंखें धारासार बह रही थीं। वह कुछ बेहोश होकर अपने गालों पर एक के बाद एक थप्पड़ें मारता रहा। फिर बालों को मुट्टियों में जकड़ चीत्कार कर उठा- ‘शब्बू, मुझे माफ कर दो…’ उसने दोनों हथेलियों के बीच अपना सिर थाम लिया और फफक-फफककर रोने लगा…
कहीं दीवारों से गुंजायमान होती रहीं सर्वेश्वर की कविता की पंक्तियां…।
‘सारी जिन्दगी
मैं सर छिपाने की जगह
ढूंढता रहा
और अंत में अपनी हथेलियों से
बेहतर जगह दूसरी नहीं मिली…’
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
