bandhan - mukti
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Hindi Katha: शुकदेव युवा हुए तो व्यास जी को उनके विवाह की चिंता सताने लगी । एक बार व्यास जी ने शुकदेव को अपने पास बुलाया और बोले – ” हे पुत्र शुकदेव ! अब तुम युवा हो गए हो और साथ ही तुम्हें अनेक श्रेष्ठ सिद्धियाँ भी प्राप्त हो गई हैं। इसलिए तुम्हें ब्रह्मचर्य का त्याग करके गृहस्थ- जीवन का आरम्भ करना चाहिए।

लेकिन शुकदेव जी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वे मोह-माया का त्याग कर संन्यास ग्रहण कर चुके हैं और अब विवाह करके पुनः मोह-माया के बंधन में नहीं बँधेंगे।

शुकदेवजी की बात सुनकर वेद व्यास जी बोले’हे पुत्र! विवाह करने के पश्चात् मोह-माया के बंधन में बँधना अथवा न बँधना, यह मनुष्य पर निर्भर करता है। हमारे आस-पास ऐसे अनेक ऋषि – गण हैं जो गृहस्थ होते हुए भी मोह-माया से रहित होकर प्रभु-भक्ति में लीन हैं।

शुकदेवजी बोले – “पिताश्री ! यह सब भ्रम मात्र है। यह बिल्कुल ऐसा ही है, जैसे कोई कीचड़ में रहकर भी उससे अलग रहने की बात कहे। जो इस बंधन में बँध जाता है वह इससे अलग नहीं रह सकता । ” जब शुकदेव किसी भी प्रकार से समझने के लिए तैयार नहीं हुए तो वेद व्यास जी ने उन्हें मिथिला नरेश राजा जनक से शिक्षा लेने भेजा ।

मिथिला पहुँचकर शुकदेवजी ने देखा कि राजा जनक की पत्नी हैं, बच्चे हैं और फिर भी वे एक संन्यासी की भाँति पूजनीय हैं। शुकदेव जी के आग्रह पर राजा जनक ने उन्हें शिक्षा दी – ” विवाह कोई बंधन नहीं है। यदि हम यह निश्चित धारणा बना लें कि कोई भी बंधन हमें बाँध नहीं सकता तो हम सभी बंधनों में बँधकर भी मुक्त रह सकते हैं। जल में रहकर भी कमल की भाँति उस पर तैरकर अलग रह सकते हैं। ‘यह शरीर मेरा है’ – यही बंधन है और ‘यह शरीर मेरा नहीं है ‘ – यही मुक्ति अर्थात् संन्यास है । “

जनक के ज्ञानपूर्ण कथनों से शुकदेव जी की सभी शंकाएँ दूर हो गईं। वे वापस अपने पिता के आश्रम पर लौटे तो व्यास जी ने ‘पीवरी’ नाम की एक सुंदर कन्या से उनका विवाह करवा दिया। उससे शुकदेव जी के चार पुत्र – कृष्ण, भूरि, गौरप्रभ और देवश्रुत तथा एक पुत्री – कीर्ति हुए ।

पुत्र-पौत्रों से युक्त होने पर शुकदेव ने पिता का आश्रम त्याग दिया और कैलाश पर्वत पर जाकर समाधिलीन हो गए। परम सिद्धि मिल जाने पर उनका आसन पर्वत शिखर से ऊपर उठ गया। आकाश में वे इस प्रकार चमकने लगे मानो सैकड़ों सूर्य एक साथ चमक रहे हों। शुकदेवजी के ऊपर उठते समय पर्वत का शिखर फटकर दो भागों में बँट गया । वायु तीव्र गति से चलने लगी। अनेक ऋषिगण वहाँ आकर शुकदेवजी की स्तुति करने लगे । व्यासजी भी ” हे पुत्र ! हे पुत्र” कहते हुए वहाँ आ गए। फिर सबके देखते-देखते ही शुकदेवजी दुर्गा देवी के परम धाम में चले गए। महर्षि व्यास जी पुत्र शोक से व्याकुल होकर जल बिन मछली की भाँति छटपटाने लगे। तब शंकरजी ने प्रकट होकर उन्हें समझाया कि उनके पुत्र को उत्तम गति प्राप्त हुई है। वे शोक न करें । पिता को शांत करने के लिए शुकदेवजी ने उन्हें अपने प्रकाशमान प्रतिबिम्ब के दर्शन करवाए, जिससे संतुष्ट होकर व्यासजी पुनः अपने आश्रम में चले आए।