bainganmal kyun roothe
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सब्जीपुर में चाहे कोई रूठ जाए, पर किसी को अंदाज नहीं था कि सब्जीपुर के खुशमिजाज राजा बैंगनमल भी रूठ सकते हैं। पर बैंगनमल रूठे और सचमुच ऐसे रूठे कि उठकर एकदम अज्ञातवास में चले गए।

लोग महल के बाहर आकर गुहार लगाते, “हम बैंगन राजा के दर्शन करने आए हैं। बस, एक पल उन्हें देखकर चले जाएँगे।” पर राजमहल के सेवक आकर संदेश देते, “राजा साहब बहुत दुखी हैं। आजकल किसी से नहीं मिलते। यहाँ तक कि राजमहल के प्रमुख अधिकारी भी उनसे नहीं मिल पाते।”

“क्यों…? लेकिन बैंगन राजा क्यों इतने दुखी हैं? किसने उनका दिल दुखाया? जिसने भी यह काम किया हो, हम उसे जीवित नहीं छोड़ेंगे।” लोग गुस्से से भरकर कहते।

पर राजसेवक इस बारे में मौन थे। हालाँकि धीरे-धीरे असली बात भी उजागर हो ही गई।

असल में किसी ने आलू को बैंगन राजा के खिलाफ भड़का दिया। और अब आलू कहने लगा था, “आखिर बैंगन राजा क्या हैं, मैं तो उनसे भी ज्यादा बड़ा हूँ। ठीक है, बड़ा सुंदर सा मुकुट है उनके पास, पर इससे क्या..? बैंगन राजा क्या खाकर मेरा मुकाबला करेंगे?”

“मैं चुस्त-दुरुस्त और ताकतवर हूँ। मुझसे ही उसका साम्राज्य चलता है।” आलू सोच रहा था। उसने धीरे-धीरे आसपास के लोगों से भी यह बात कहनी शुरू की।

और जब आलू को बैंगन राजा के बारे में ऐसी बातें कहते सुना, तो दूसरों ने भी धीरे-धीरे उनका सम्मान करना बंद कर दिया।

राजदरबारी ऊपर-ऊपर से उन्हें बैंगन राजा कहते, पर मन में सबने मान लिया कि नहीं, अब बैंगन राजा नहीं, असल में आलू ही हमारा राजा है। यों भी बैंगन राजा ने राज-काज की अपनी सारी शक्तियाँ आलू को ही सौंप दी थीं। तो अब कसर किस बात की थी?

धीरे-धीरे ये सारी बातें बैंगनमल तक भी पहुँचीं और उनका दिल टूट गया। आलू को वे अपने छोटे भाई से बढ़कर प्यार देते थे, पर वही आलू आज…?

उन्हें पुराने दिन याद आ रहे थे। आलू पर उन्होंने कितनी कृपाएँ की थीं, पर समय का फेर!

राजा बैंगनमल का चेहरा कुछ दिनों तक बुझा-बुझा रहा। फिर एकाएक उन्होंने राजदरबार में आना बंद कर दिया।

उनके खास सलाहकार चौधरी मटरूमल ने एक दिन कान में खुस-फुस करके उन्हें आलू को गिरफ्तार करके कोई नया महामंत्री चुनने का सुझाव दिया। पर बैंगन राजा को यह सुझाव पसंद नहीं आया। बोले, “अगर लोग मुझे नहीं चाहते हैं, तो फिर मेरे राजा बने रहने की जरूरत ही क्या है?…ठीक है, आप लोग आलू को ही राजा बना लीजिए। मैं राजपद से संन्यास ले लेता हूँ।”

“नहीं-नहीं महाराज, ऐसा न कीजिए, ऐसा न कीजिए, वरना बड़ा अनर्थ हो जाएगा!” हजारों लोगों ने गुहार की।

सुनकर बैंगन राजा चुप। गुमसुम। कोई जवाब उन्होंने नहीं दिया।

पर हाँ, उसके बाद कई दिनों तक बैंगनमल राजदरबार में नहीं आए। राजसिंहासन एकदम सूना-सूना रहा। लोगों ने आलू से कहा, “सुनिए आलूराम, बैंगन राजा तो अब नहीं आ रहे। पता नहीं आएँगे भी या नहीं। लगता है, राजकाज से उनका मन उचट गया है। तो ऐसे में श्रीमान, आप ही राजा की गद्दी सँभाल लें। सब्जीपुर का राजसिंहासन यों सूना-सूना रहे, यह तो अच्छा नहीं।”

पर आलू ऊपर से चाहे जो कहे, पर अंदर से उसे हकीकत पता थी कि अगर उसने ऐसा किया, तो सब्जीपुर की जनता उसके चिथड़े कर देगी। और उसके लिए जान बचाना मुश्किल हो जाएगा।

‘कुछ चापलूस दरबारियों को अपने पक्ष में कर लेना एक बात है, और जनता के दिल में जगह बनाना बिल्कुल अलग बात।’ उसने अपने आप से कहा।

कई दिनों तक आलू के मन में उथल-पुथल चलती रही। बैंगनमल के इस अज्ञातवास से सब्जीपुर की जनता बड़ी कँटीली आँखों से उसे देख रही थी। सबकी आँखों में ऐसा गुस्सा कि बस, बैंगन राजा एक इशारा कर दें। और उसके साथ ही वे सब मिलकर आलू को खा जाएँगे।

आखिर हारकर आलूराम उन्हें समझाने गया। उसने बैंगन राजा के पास जाकर बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ते हुए कहा, “माफ कर दीजिए बैंगन राजा, अगर मुझसे कोई गलती हुई। मुझे लगता है, हम लोगों में कोई गलतफहमी पैदा हुई है। पर यह सब्जीपुर के हित में नहीं है। सब्जीपुर की भलाई इसी में है कि आप अपना गुस्सा छोड़ दीजिए और कल से राजदरबार में आना शुरू कर दें।”

आलूराम ये शब्द कह भले ही रहा हो, पर उसके मन का अहंकार गया नहीं था। बैंगन राजा यह ताड़ गए। इसलिए तेवर उनके भी गरम थे।

“अरे, छोड़ो ये बातें आलू! अब तुम सँभालो सब्जीपुर का राजपद, मैं कहाँ इस लायक…?” बैंगन राजा एकाएक फूट पड़े। उनके गुस्से में बड़ा दुख और हृदय की गहरी चोट थी।

“आपको गलतफहमी हुई है बैंगन राजा। मेरी ऐसी कोई लालसा नहीं है।” आलू कह-कहकर हार गया। पर राजा बैंगनमल पर कोई असर नहीं। वे तो निरंतर बस एक ही बात दोहरा रहे थे, “मैं कहाँ इस लायक…? अब तुम्हें जो ठीक समझ में आए, करो।”

“जनता बहुत प्यार करती है बैंगन राजा को। कहीं जनता विद्रोह न कर दे?” आलू का मन बोल रहा था। इसीलिए वह अंदर ही अंदर दुखी था। अपनी भूल उसे पता चल गई थी।

पर जो कुछ भी हुआ, उसके अभिमान का नतीजा था। काश, पहले ही उसने इस बारे में सोचा होता।

आखिर उसने दोनों आँखों से बहते आँसुओं के साथ, बुरी तरह सिसकते हुए एक बार फिर माफी माँगी। तीन बार झुककर बैंगन राजा को प्रणाम किया और वापस चला आया।

होते-होते पूरे सब्जीपुर में यह बात फैल गई। और सब्जियों ने कहा, “चलो, हम लोग मिलकर बैंगन राजा को मनाएँ।”

पर बैंगन राजा ने किसी की भी बात मानने से इनकार कर दिया। वे ऊपर से शांत थे, एकदम शांत, पर मन में दुख और वेदना की एक तीखी लहर। बैंगन राजा उसे जितना छिपाते, वह उतनी ही और प्रकट होती थी।

सब लोग यह देख रहे थे, पर लाचार थे।

तब सब्जियों ने मिलकर श्रीमती बैंगनी देवी से कहा, “आप कुछ कीजिए।”

बैंगनी देवी ने धीरे से बैंगन राजा के पास जाकर कहा, “सुनिए, इतने लोग मिलने आए हैं। आपको कितना प्यार करते हैं ये लोग। आप जरा इनकी बात सुन तो लीजिए।”

पर बैंगन राजा ने नहीं सुना तो नहीं सुना। उन्होंने चुपचाप आँखें बंद कीं और लेट गए। उनके चेहरे पर गहरा दर्द था। जिसने भी देखा, वह व्याकुल हो गया।

“हाय-हाय, बैंगन राजा अपने दिल की बात हमें बताते क्यों नहीं? हम क्या करें, क्या न करें?”

लोग अंदर ही अंदर परेशान। लेकिन लाचार भी थे।

यहाँ तक कि कुछ सब्जियों ने तो मिलकर उनके विशाल राजमहल के द्वार पर अनशन और उपवास भी किया। उनकी एक ही माँग थी कि हमें तो अपने बैंगन राजा ही चाहिए, कोई और नहीं।

बैंगन राजा अपनी प्रजा का यह प्रेम देखकर मुग्ध थे। पर साथ ही यह भी सोच रहे थे कि, “राजपद पाकर मुझे क्या मिला? बस, एक काँटों भरा ताज ही न? मुझे नहीं चाहिए ऐसा ताज!”

“आप अपना नहीं तो सब्जीपुर का तो सोचिए। लोगों का रो-रोकर बुरा हाल है।” कद्दूमल ने उनके कंधे पर हाथ रखकर बड़े दुख के साथ कहा।

कद्दूमल के साथ बैंगन राजा की सदियों पुरानी दोस्ती थी। जानते थे कि उनका दुख कितना सच्चा है। पर वे अपने मन को कैसे समझाएँ? राजनीति में इनसानियत का कोई काम नहीं। वरना जिस आलू पर उन्होंने एक के बाद एक इतने अहसान किए थे, वही यों पीठ में छुरा न घोंपता।

उधर आलू के बारे में लोग कह रहे थे, “इन्हें हमने अपने राजा की सेवा में लगवाया था, पर ये तो खुद राजा होने का षड्यंत्र करने लगे।”

“ये लोग अपने राजा के नहीं, तो किसके हो सकते हैं?” कुछ लोग जोर-जोर से चिल्ला रहे थे, ताकि उनकी आवाज राजदरबार की ऊँची दीवारों तक भी पहुँच जाए।

“इस आलू ने सारी गड़बड़ कर दी।” बैंगन राजा के सभी दरबारी अब आलू को कोस रहे थे।

अभी कुछ रोज पहले यही आलू को सलाह दे रहे थे कि वह बैंगन राजा के सिंहासन पर कब्जा कर ले और खुद को सब्जीपुर का राजा घोषित कर दे। पर अब जनता का गुस्सा देखा, तो सबकी हवा खराब।

आलू कुछ दिन तो सत्ता के नशे में रहा, फिर उसे हकीकत समझ में आई। अभी तक वह सोचता था, ‘मैं चाहूँगा तो बैंगन राजा का ताज उठाकर बाहर फेंक दूँगा और खुद राजा बन जाऊँगा।’ पर अब वह समझ गया कि यहाँ तो कुछ अलग ही खेल हो गया। जनता अपने प्यारे बैंगन राजा को इतना प्यार करती है, उसे यह पता ही न था।

“क्या मैं लोगों के पास जाकर उन्हें यह बताऊँ कि मैं बैंगन राजा से ज्यादा अच्छा राज चला सकता हूँ?” थोड़ी देर के लिए उसके दिल में यह खयाल आया।

“पर सबका फैसला अगर यही हुआ तो…?” सोचकर वह ढीला पड़ गया। फिर उसके गुप्तचरों ने भी आकर असलियत बता दी थी कि बैंगन राजा को जल्दी न मनाया गया, तो जनता उसे फाड़कर खा जाएगी।

आलू के हाथ-पैर काँपने लगे। वह समझ गया कि हालत अब उसके काबू में नहीं है।

उधर ठठ के ठठ लोग सड़कों पर निकल आए थे।

“हम अपने प्यारे बैंगन राजा को मनाने जाएँगे।” वे जोर-जोर से कह रहे थे, “और अगर वे फिर भी न माने, तो हम वहीं अपनी जान दे देंगे।”

“तो फिर आप लोग मुझे क्यों नहीं ले जाना चाहते? मैं सबसे पहले चलूँगा आपके साथ। उनसे माफी माँगूँगा और जरूरत पड़ी, तो उनके पैरों पर गिरकर उन्हें मनाऊँगा। आखिर वे मुझसे ही तो सबसे ज्यादा नाराज हैं।” आलू ने हकीकत जानकर अब गिड़गिड़ाते हुए कहा।

सब सब्जियाँ हैरान थीं कि यह आलू न जाने कहाँ से लुढ़कता हुआ भीड़ में पहुँच गया था। वह सचमुच अर्श से फर्श पर आ गिरा था।

और जब आलू सब्जीपुर की सारी प्रजा के साथ बैंगन राजा को मनाने गया, तब भी उसकी बड़ी बुरी हालत थी।

“बैंगन राजा, आप मान जाइए और कल से राजदरबार में आकर अपने राजसिंहासन पर विराजिए। आपके बिना पूरा राजदरबार सूना-सूना है।” उसने हाथ जोड़कर बड़ी विनय के साथ कहा, “और फिर मेरी नहीं, तो सब्जीपुर की प्रजा की बात तो सुनिए। ये सब आपको किस कदर प्यार करते हैं। मुझे भी आपका बहुत प्यार मिला है बैंगन राजा। मुझ पर आपकी बहुत कृपाएँ हैं। मैं उन्हीं का वास्ता देकर कहता हूँ, बैंगन राजा कि…” कहते-कहते आलू को रुलाई आ गई।

“पर तुम तो सुना है, अभी कुछ रोज पहले दरबार में हँसते हुए कह रहे थे कि बैंगन राजा में ऐसा है ही क्या कि उन्हें सब्जीपुर का राजा बनाया जाए! यह ठीक है कि उनके सिर पर सुंदर सा मुकुट है, पर देखने में तो एकदम काले-कलूटे ही हैं। सब्जीपुर का राजा ऐसा काला-कलूटा हो, क्या यह शोभा देता है? क्यों, यही शब्द थे न तुम्हारे?”

बैंगन राजा ने जब सीधे-सीधे उसी के शब्द दोहरा दिए, तो आलू की सिट्टी-पिट्टी गुम।

“मैं एकदम अंग्रेजों जैसा हूँ। मैं पैदा ही राज करने के लिए हुआ हूँ। मैं ही बनूँगा सब्जीपुर का राजा।…यह भी शायद तुमने ही कहा था?” बैंगन राजा ने तीखी नजरों से आलू दा को देखते हुए कहा, “और इसके बाद तुम्हारे शब्द थे—एक दिन बैंगन राजा का मुकुट उतारकर मैं काले पानी में फेंक दूँगा। इसलिए कि लोग मानें या नहीं, पर सब्जीपुर का असली राजा तो मैं ही हूँ। सब लोगों को आज नहीं तो कल, यह स्वीकार करना पड़ेगा।”

बैंगन राजा की बात खत्म होते ही सबकी तीखी निगाहें किसी कटार की तरह आलू दा की ओर मुड़ गईं।

आलू दा की असलियत खुल गई थी और अब वे थर-थर काँप रहे थे। देखते ही देखते गुस्से में सब्जीपुर की प्रजा ने उन्हें घेर लिया।

“अच्छा, ऐसा अपमान किया इसने हमारे राजा का? ओह, तभी तो उन्हें इतनी ठेस लगी है!” लोग एक-दूसरे से कह रहे थे।

“नीच, नमकहराम!” कहकर दाँत पीसते हुए लोग मुट्ठियाँ ताने आलू दा की ओर बढ़े।

“पकड़ लो, बहुत अहंकार हो गया है इसको। हम अपने राजा के अपमान का बदला लेंगे।” कहकर सब्जीपुर के सैकड़ों बाशिंदे आलू को मारने को तैयार हो गए।

“हाँ पीटो, मैं पिटने से नहीं डरता!” आलू हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कह रहा था, “मुझसे वाकई जाने-अनजाने बहुत भारी गलती हो गई। बैंगन राजा, माफी दे दें तो चैन पड़े। उसके बाद तो मैं जैसे आया था हाथ जोड़कर, वैसे ही हाथ जोड़कर चला जाऊँगा।”

“नहीं-नहीं, तुम कैसे चले जाओगे? तुम्हें हम जाने देंगे, तभी तो तुम जाओगे। तुम तो हमारे दिल के टुकड़े हो।” बैंगन राजा कह रहे थे। आलू दा के माफी माँगते ही उनका गुस्सा जैसे एकदम काफूर हो गया था। उनका मोम जैसा नरम दिल पिघल गया।

“मैं भूल नहीं सकता, कितने मौकों पर तुमने साथ दिया और सब्जीपुर को बड़ी-बड़ी मुसीबतों से बचाया।” बैंगन राजा भावुक होकर कह रहे थे और आलू दा बिलख-बिलखकर रो रहे थे।

बैंगन राजा उन्हें चुप कराने की जितनी कोशिशें करते, आलू दा का रोना-बिलखना और हिचकियाँ उतनी ही बढ़ती जाती थीं।

और बैंगन राजा की यह बात सुनते ही प्रजा पर भी जैसे ठंडा पानी पड़ गया हो। कहाँ तो वे आलूराम को सब्जीपुर छोड़कर चले जाने के लिए धमका रहे थे और कहाँ अब उसे रोकते हुए कह रहे थे, “देखो, बैंगन राजा तुम्हें इतना चाहते हैं, तो तुम सब्जीपुर में ही क्यों नहीं रुक लेते आलू भैया? भला तुम्हें सब्जीपुर से जाने की जरूरत ही क्या है?”

“तुम तो हमारे दिल के टुकड़े हो।” बैंगन राजा का गुस्सा उतर गया था और अब वे बड़े प्यार से आलू को समझा रहे थे, “गलतफहमियाँ कब नहीं होतीं? साथ रहें तो बरतन खड़कते ही हैं। पर उनके खड़कने का भी एक संगीत होता है। क्यों, मैं ठीक नहीं कह रहा?”

“पर अच्छी बात तो यह है कि बरतनों के साथ रहने पर लड़ाई का शोर नहीं, बल्कि एक मीठा संगीत पैदा हो।” बैंगन राजा ने मुसकराते हुए अपनी बात पूरी की।

फिर उन्हें याद आई पुदीना दीदी की संगीतशाला की। बोले, “एक दिन सब्जियों की लड़ाई पर कितना सुंदर प्रहसन लिखा था पुदीना दीदी ने। तो इस पर भी लिखेंगी वे कोई बढ़िया नाटक। वह तैयार होगा और पेश किया जाएगा इन बारिशों में होने वाले सब्जीपुर के महासम्मेलन में।”

लंबे बिछोह के बाद बैंगन राजा और महामंत्री आलूराम का यह प्यार भरा मिलन ऐसा ही था, जैसे राम और भरत का मिलन। दोनों के आँसू धार-धार बह रहे थे और पूरा सब्जीपुर भीग रहा था उन आँसुओं में।

ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंBachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)