Summary: कन्नप्पा इमोशनल कनेक्ट कर ही नहीं पाती
‘कन्नप्पा’ एक भव्य लेकिन भावनात्मक रूप से कमजोर फिल्म है, जो अपनी असली कहानी से भटक जाती है। विजुअल्स और स्टार कैमियो तो हैं, लेकिन स्क्रिप्ट और इमोशन की कमी साफ झलकती है।
‘कन्नप्पा’ में बड़े सितारे, खूबसूरत लोकेशन्स और दमदार विजुअल्स तो हैं, लेकिन फिल्म अपनी असली कहानी और भावनात्मक जुड़ाव को पीछे छोड़ देती है।
Kannappa Movie Review: ‘कन्नप्पा’ में एक सच्ची और इमोशनल कहानी है, खासकर हिन्दी दर्शकों के लिए तो नई भी है। इसे आज की पीढ़ी तक सही तरीके से पहुंचाया जाता तो वाकई कमाल हो जाता। लेकिन यह पेशकश तो भव्यता और बड़े नामों में उलझकर रह जाती है। असल कहानी आप भूल ही जाते हैं। कुछ सीन्स और कैमियो अच्छे हैं, विजुअल्स भी सुंदर हैं पर फिल्म की आत्मा गायब ही है। यहां सब इतना बनावटी है कि कई बार तो लगता है कि मानो किसी स्कूल के ड्रामा में बैठे हों। मजेदार यह है कि निर्देशक मुकेश कुमार सिंह इसे इतनी गंभीरता से पेश करने की कोशिश करते हैं कि हंसी आने लगती है। 182 मिनट तक केवल पैर पटकती रहती है कि कभी तो अपनी लय में आ जाए।
दरअसल, ‘कन्नप्पा’ में हिंदू मिथक के प्रसिद्ध भक्त की कहानी है जिसने भगवान शिव के लिए अपनी दोनों आँखें तक निकाल दी थीं। भक्त से पहले वह ‘थिन्नाडु’ नाम का एक शिकारी था, जो किसी भगवान में विश्वास नहीं करता था और मूर्ति पूजा का मजाक उड़ाता था। एक दिव्य अनुभव के बाद उसकी जिंदगी बदल जाती है और वह शिव भक्त बन जाता है। 1954 में बनी ‘बेड़ा कन्नप्पा’ और 1976 में बनी ‘भक्त कन्नप्पा’ में इस कहानी को बेहतरीन ढंग से दिखाया जा चुका है। लेकिन इस नई फिल्म में वो कहानी और संस्कृति दोनों गुम हो गए।
देश ही दिखा देते …
फिल्म का बड़ा हिस्सा न्यूजीलैंड में शूट हुआ है, जाहिर है वहां आप भारतीय संस्कृति की भावनाओं को नहीं दिखा ही नहीं सकते। पहाड़, झरने, जंगल तो सुंदर हैं लेकिन कहानी से कनेक्ट नहीं कर पाते। फिल्म में मोहनलाल, प्रभास, अक्षय कुमार जैसे बड़े सितारों की मौजूदगी है जो थोड़े समय के लिए इसमें जान फूंकते हैं। रुद्र के रूप में प्रभास हैं। अक्षय और काजल अग्रवाल शिव-पार्वती बने हैं, पर इनको ऐसे देखने की आदत नहीं है, सो कहानी का असर ही खत्म होता है।
कुछ चीजें ही अच्छी
कभी-कभार कुछ अच्छा दिख जाता है। थिन्नाडु और उसके पिता (सरथ कुमार) का रिश्ता, मां के लिए उसकी तड़प और नेमाली (प्रीति मुकुंधन) से उसका रिश्ता… सब कमाल है। नेमाली एक योद्धा राजकुमारी है, पर फिल्म उसे ग्लैमरस गानों और तलवारबाजी के कुछ सीन के बाद सिर्फ शो-पीस बना देती है। फिल्म बनाने वाले भूल रहे हैं कि ‘बाहुबली’ के बाद दर्शक सिर्फ भव्यता से खुश नहीं होते। राजामौली की फिल्मों में स्क्रिप्ट और इमोशनल कनेक्शन होता है, जो यहां नहीं है। फिल्म के एक्शन सीन भड़कीले और बिखरे हुए हैं। वीएफएक्स केवल ध्यान भटकाते हैं, रोमांचित नहीं करते।
कैमियो के लिए देखें
विष्णु मंचू ने मेहनत की है पर इमोशनल क्लाइमैक्स में वह बुरी तरह कमजोर पड़ जाते हैं। सीनियर एक्टर्स जैसे मदहो, ब्रह्मानंदम, सप्तगिरी, मुकेश ऋषि जैसे लोग भी भीड़ में खो जाते हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स और अच्छा बनता। यह भावनाओं को छूता है, पर कमी फिर भी रह ही जाती है। फिल्म तभी देख सकते हैं जब आपको भव्य दृश्य और स्टार कैमियो देखने हैं। अगर आप दिल से जुड़ने वाली पेशकश ढूंढ रहे हैं, तो ‘कन्नप्पा’ आपको निराश कर देगी।
