lanat hai
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नगर में एक बड़े महात्मा का आगमन हुआ तो पूरा नगर उनके दर्शन करने और प्रवचन सुनने उमड़ पड़ा। पहले दिन प्रवचन के पश्चात एक बड़े सेठ से महात्मा का परिचय कराया गया। धन के अहंकार में चूर सेठ अपनी संपत्तियों और सुख-सुविधाओं का गुणगान करता रहा। उसकी बातें सुनकर महात्मा बुदबुदाए, लानत है तुम्हारे जीवन पर। दूसरे दिन महात्मा का परिचय एक निर्धन व्यक्ति से हुआ।

निर्धन ने गिड़गिड़ाते हुए अपने दुःखों की दास्तां सुनाई और कहा, मुझ जैसे निर्धन इस धरती पर बोझ हैं। इस जीवन से तो मृत्यु ही भली है, ताकि मैं अपने दुखों से मुक्ति पा सकूं। निर्धन की बातें सुनकर महात्मा बुदबुदाए, लानत है तुम्हारे पर।। महात्मा के एक शिष्य ने जो उनकी बातें बड़े गौर से सुन रहा था पूछा, गुरुदेव! कृपया मेरी जिज्ञासा शांत कर मुझे उपकृत करें।

महात्मा ने कहा, पूछो वत्स! निःसंकोच पूछो? शिष्य, गुरुदेव जब आपके पास धनाढ्ड्ढ सेठ आया, तब आपने उसके अहंकार को देखकर उसे लानत दी थी मगर मेरी समझ में यह नहीं आया कि उस निर्धन गरीब की बातें सुनकर उस पर दयाभाव दिखाने के बजाय आपने उसे भी लानत दी। इसकी क्या वजह थी? महात्मा ने गंभीरतापूर्वक कहा, वत्स! मैंने दोनों को इसलिए धिक्कारा कि इंसान के लिए गरीबी से अत्यधिक शर्मिंदा होना भी उतना ही बुरा है, जितना धन का अहंकार करना।

ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंIndradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)