भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
उसका नाम राजकुमार है। झांसी के पास मऊरानीपुर गाँव। वह उदास बैठी है आज। कहीं काम पर नहीं गई। लम्बोतरा चेहरा, उदासी में और भी लम्बा लग रहा है। बाल उड़ रहे हैं क्योंकि हवा तेज चल रही है। मैं अपनी गैलरी से उतरकर उसके पास पहुँची। ‘अरे मैडमजी, आप? कोई काम है? मुझे बुला ली होती। काहे तकलीफ की? कहाँ बैठाऊ?’ रामकुमारी हड़बड़ा गई। इधर-उधर देखने लगी। वह चार ईटें जोड़कर उसके ऊपर बैठी थी।
मैंने कहा-मेरे लिए भी ईंट जोड़ दे, बैठ जाऊंगी ।
‘हाँ, मैडमजी।’ उसने राहत की सांस ली। फटाफट दो ईंट नीचे, दो ईंट उसके ऊपर रखकर ‘पाटा’ बना दी। मैं उसके सामने बैठ गई।
‘आज उदास क्यों है तू?’
वह फफक-फफक कर रोने लगी। मुझे लगा, शायद किसी रिश्तेदार की हो गई हो! नहीं, शायद सास से झगड़ा हो गया हो, नहीं, पति ने मारा-पीटा हो? यह भी नहीं, तो क्या बात है? सोचती रही। मन बहलाने के बहाने मैं बात करती रही उससे।
‘इस घर-घर काम करते कितने बरस हो गए?’
‘दो बरस मैडम जी।
‘साथ में कौन-कौन हैं? कई लोग दिखाई देते हैं।
‘हाँ, सास, ससुर, पति और मैं।’
‘एक बार एक बच्ची भी दिखाई दी थी तुम्हारे साथ, वो कौन है?’ ‘बेटी है, पर यहाँ नहीं है, कभी-कभी ले आती हूँ।’
‘कहाँ रहती है?
ननद के पास ।
‘बहुत छोटी है।
‘हाँ, चार साल की है। ननद की बेटी के साथ पढ़ाई करती है। बाल मंदिर में। जब तेवहार में जाती हूँ ले आती हूँ। फिर पहुँचा आती हैं।
‘कौन सा त्योहार?
‘सावन बाद महालक्ष्मी का त्योहार आता है। संतान सप्तमी, बेटे की
माँ रहती है, राखी में बहन जाती है, राखी बाँधने भाई के घर। फिर करवा चौथ। होली का टीका लगाने बहन जाती है, भाई के घर। हमारे झांसी तरफ येई त्योहार मनाते हैं मैडम जी। मऊरानीपुर है हमारे गाँव का नाम।
‘गाँव में खेती-बाड़ी भी होगी?।
हाँ मैडमजी, खेती-बाड़ी तो है, पर बारिश नहीं होती, तो खेती का काम नहीं होता। संक्रांति के बाद हम काम की तलाश में ठेकेदार के साथ इधर ही आ जाते हैं। मेरे सास-ससुर तीन साल से आ रहे हैं, मैं दो साल से आ रही हूँ। ठेकेदार पाँच साल के लिए बात पक्की किया है। घर बनाने का काम है। चौकीदारी का काम भी होता है। मजदूरी के साथ, तो झोपड़ी बन जाती है। जब मकान का काम करीबन पूरा होता है तो कमरों में रात को सोते भी हैं। आखिर जमीन ही में तो बिछावन होता है मैडमजी। जब घर मालिक पूजा-पाठ कराए तब तक रहते हैं। फिर डेरा उठ जाता है मैडमजी।’ ‘ओह! तो बार-बार घर बदलता है तुम्हारा?’
‘हाँ जी। ठेकेदार जब दूसरे मकान का काम शुरू करता है, तो हम फिर से झोंपड़ी बनावत हैं।
इन दो सालों में कितने घर बदले?’ ‘जे चौथा घर है मैडमजी। छह महिना में एक घर पूरा हो जाता है।
‘कालोनी भी बदल जाती होगी?’ अभी तक तो एक ही कालोनी के तीन घर बनाए, ये चौथा घर है। ये भी पूरा होने वाला है। देखो न मैडम जी कितने सुंदर टाईल्स लगे हैं।
‘चलो अच्छा है, नये-नये घर बनते हैं, सभी में रहने का सुख मिलता है। और रामकुमारी जोर-जोर से रोने लगी। मुझे समझ में नहीं आया, ऐसी क्या बात हो गई कि वह रो पड़ी? मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा–‘रामकुमारी, क्या हो गया? चुप हो जा। बता मुझे, क्या हो गया?’ ले-दे कर चुप हुई रामकुमारी। कुछ क्षण बीतने के बाद धीरे-धीरे बोलने लगी
“नये घर में जमने जमाने में परेशानी होती है मैडम जी। हर बार नये सिरे से झोंपड़ी बनाओ, कमरा रूंधो, छत बनाओ, तब तक खुले आसमान तले सोओ। त्योहार में, शादी में, मरनी-हरनी में, फोन आता है तो गाँव जाते हैं। अब चिट्ठी-पत्री का जमाना गया, सबके पास छुटका फोन है, हथेली में रखो, जेब में रखो। तुरते खबर मिल जाय। ठेकेदार छुट्टी देत है। दुइ झन जात हैं। पर मैडम जी घर बदलन में बड़ी तकलीफ होत है। वह फिर रोने लगी।
‘घर तो छूटेगा ही-यह तो मालूम है, फिर क्यों रोना?’ बड़ा विचित्र लगा मुझे। मैं समझाने लगी। वह फिर फूट पड़ी-
‘मैडम जी, बहुत आसान है कहना कि घर तो छोड़ना ही है। पर आप क्या जाने हम मजदूरन का भी दिल होता है। घर छोड़कर जावत दुख होवत है।
‘अरे दुख काहे का? मालूम तो है किसी और का घर है, तुम्हें सिर्फ बनाना है, और क्या?
‘नहीं मैडम जी। यह मकान, मकान नहीं ‘घर’ लगने लगता है। अपना घर मैडमजी! दिल के साथ आत्मा जुड़ जाती है मैडम जी! उसने दोनों हथेली दिखाते हुए कहा-‘जे हाथ ने सीमेंट की चिकनाई दी है, जे हाथ ने पोंछा लगा-लगाकर फरशी साफ किया है-बिल्कुल अपना घर समझकर। रात को सोते तो गहरी नींद पड़य-खाली फरशी पर। ऐसा लगे मानो हमारा घर है।
वह बहुत भावुक होने लगी। मेरे मन में पहली बार, उसकी बात गहरे पैठ गई। वह ऊंगली दिखाकर कहने लगी-वो देखो मैडमजी, चार अशोक के पेड़, चार रजनीगंधा के पौधे रोपें और रोज पानी देत हैं, क्यारी बनावत हैं, ये भी ऐसों लागत है, जैसो हम अपने घर में, नई ते खेत में उगात हैं। आप कैसो आसानी से कह दियो कि घर तो छोड़कर ही जाना है? आप तो एकै घर में रहत न? हम घर बदलत हैं। घर छोड़कर जात दुख होवत है। ये मकान नहीं, घर है मैडम जी। हमार लिए। अपना-सा लगता है घर मैडम जी, अपना सा लगता है घर।
मैं अवाक् सी देखती रही। वह फफक-फफक कर रोती रही।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
