नियमित अभ्यास और दृढ़ निष्ठï ही सफलता का रहस्य है। ध्यान में प्रगति कभी भी अपनी योजना के अनुसार प्राप्त नहीं होती। हड़बड़ी करने से कोई फल हाथ नहीं आयेगा, तुम्हें केवल निराश होना पड़ेगा। धीरे से आगे बढ़ो, क्रमश: उसमें गति आने दो और ध्यान को अपनी गति के अनुसार आगे बढ़ने दो। याद रखो कि तुम प्राप्तकर्ता हो, इसलिए फल-प्राप्ति की प्रतीक्षा करना सीखो।
कितने लाख वर्षों तक पशु-जीवन में संघर्ष करने के बाद तुम्हें मनुष्य जीवन मिला होगा। अब हमें तर्क-बुद्धि और मन प्राप्त हुआ है। इसके द्वारा हम कुछ सीमा तक शीघ्र विकास करने की स्वतंत्रता प्राप्त कर सके हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम उस परमात्मा के शान्त भवन में शोर करते हुए घुस जाओगे। पहले अपने अन्दर अपने बौद्धिक अहंकार को धीरे-धीरे नष्ट होने दो। हमें पूर्ण नम्रता के साथ समर्पण करने की कला सीखनी चाहिए।
समुद्र के किनारे बैठ कर देखो- समुद्र में कितने धीरे और अनवरत गति से ज्वार आता है और फिर कितने लय से उसका उतार होता है। उसमें कोई झटका नहीं आता। यह संभव नहीं है कि तुम छह दिन पापमय निन्दनीय जीवन जियो और सातवें दिन भगवान के सामने कूद कर पहुंच जाओ और ‘ही-ही’ करने लगो। यह कोई तरीका नहीं है।
आध्यात्मिक जीन का तात्पर्य है अपने विकास में गति लाना। यह कोई क्रान्ति नहीं है। सब कुछ तोड़-फोड़ और गिरा कर उसे जला देने से काम न चलेगा। ध्यान करने का प्रयोजन यही है कि हम अपनी वर्तमान जीवन-विधि और मनोदशा में सृजनात्मक प्रगति लाकर उसे धीरे से किन्तु सावधानीपूर्वक एक नये व्यापक क्षेत्र में ले चलें। अपने जीवन को परम-तत्त्व के साथ एक तान या तन्मय बनाना ही ध्यान है, किन्तु तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। यदि तुम उसमें कूदना चाहोगे तो निश्चय ही असफलता मिलेगी। धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करो और परमात्मा को अपने अनुभव में अवतरित होने दो।
यदि वह कदाचिद् अवतरित न हो तो धैर्य त्याग देने से काम न चलेगा। इसका अर्थ यही है कि तुमने उसके साथ एकतानता ठीक ढंग से नहीं की। यदि तुम्हारे मन में निराशा है, अवसाद है, दुख है, आलस्य है, तो न ध्यान मेें सफलता मिलेगी और न आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश होगा। उनका तुम्हारे ऊपर दूर से प्रभाव न पड़ेगा। आध्यात्मिक साधक के लिए निराशावाद सबसे अधिक घातक है। सभी धर्मों में यह बात बार-बार कही गयी और समझायी गयी है। यदि कोई कहता है ‘विश्वास रखो, परमात्मा की करुणा, दया, क्षमा और प्रेम पर विश्वास रखो’ तो वह विधिमुख से यही कहना चाहता है कि तुम आशा और संतोष रखो।
भक्त को सदा धैर्य का सहारा लेना चाहिए।
निराश होने से तुम्हें कोई लाभ न होगा। यद्यपि धर्म अपूर्ण लोगों के लिए है, पूर्ण लोगों के लिए नहीं है, किंतु जो साधक अपनी अपूर्णता के कारण अपनी निन्दा कर निराश हो जाता है वह मूर्ख ही है। वह स्वयं नहीं जानता कि वह क्या गलती कर रहा है। वस्तुत: वह अपने दोषों और अपनी दुर्बलताओं का ही चिन्तन करता है। परिणामस्वरूप वह अधिकाधिक अपूर्ण, दुर्बल और पतित होता जाता है। हम जैसा ध्यान करते हैं वैसा ही बनते हैं। अत: अपने सब दोष परमात्मा को समर्पित कर दो, मानो वही तुम्हारी सबसे बड़ी सम्पत्ति है।
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