घर में बच्चे हों और उनमें आपस में लड़ाई-झगड़ा ना हो, यह तो लगभग असंभव सी बात है और झगड़ों के लिए कोई खास मुद्दा होना भी जरूरी नहीं है। भाई-बहनों में अगर ज्यादा अंतराल हो तब तो दिन भर धमाचौकड़ी मची ही रहती है और अगर उनमें उम्र का चार-पांच साल का अंतर हो तो भी झगड़े हो ही जाते हैं। आमतौर पर ऐसे झगड़े कुछ ही देर में अपने आप शांत भी हो जाते हैं, लेकिन कभी-कभी यह गंभीर मोड़ भी ले लेते हैं और कभी-कभी यह इतने स्थाई हो जाते हैं कि इनका असर ताउम्र रहता है।

जैसा हमने पहले कहा, झगड़ों के पीछे कोई बहुत बड़ा कारण नहीं होता। बच्चे खेल रहे हैं, अब छोटे भाई या बहन को चोट लग गई और उसे लगा कि बड़े कि इसमें गलती है तो झगड़ा शुरू। एक ने होमवर्क जल्दी कर लिया और दूसरा नहीं कर पाया, पहले ने चिढ़ा दिया, देख तू तो फिसड्डी है, मैंने कितनी जल्दी सब कर डाला, दूसरे ने चिढ़कर उसकी कॉपी फाड़ दी, बस झगड़ा शुरू। किसी ने कहा देख गुड्डू मेरा सबसे अच्छा दोस्त है, दूसरा बोला नहीं, वह मेरा पक्का दोस्त है, बहस हुई और झगड़ा शुरू। एक ने फ्रिज से निकाल कर चुपचाप मिठाई खा ली, दूसरे ने देख लिया और मां से जाकर चुगली कर दी, जाहिर है कि मां डांटेगी, बस झगड़ा शुरू।

अगर दोनों बराबर के होते हैं तो मार-कुटाई, छीना- झपटी और शर्ट फटने तक नौबत आ जाती है और अगर एक बड़ा और दूसरा उससे चार-पांच साल छोटा होता है, तो बड़ा पिटाई कर देता है और छोटा रो-रो कर, चिल्ला-चिल्ला कर घर सर पर उठा लेता है।

आमतौर पर हर घर में, हर भाई बहन में ऐसे मामूली झगड़े होते ही हैं और यह सिवा थोड़ी देर के लिए, घर में चीख चिल्लाहट वाला वातावरण क्रिएट करने के, थोड़ा समय खराब करने के और कभी-कभी मां-बाप को परेशान करने के अलावा कोई बड़ी समस्या खड़ी नहीं करते। कुछ समय बीतते न बीतते, यह अपने आप शांत हो जाते हैं और बच्चे भी जल्दी ही सब कुछ भूल कर फिर अपने रूटीन में लग जाते हैं। यह झगड़े बच्चे की ग्रोथ में, उसके व्यक्तित्व के विकास में तब बाधक बनते हैं, जब मां-बाप अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभा पाते। उदाहरण के ल्रिए छ:-सात साल के राजू की मां जब प्रेग्नेंट हुई तो राजू बहुत खुश हुआ कि उसके घर भाई या बहन आने वाला है और उसे खेलने को एक और साथी मिल जाएगा, लेकिन पप्पू के आते ही मां का सारा ध्यान पप्पू पर केंद्रित हो गया। राजू की न केवल मां के पास सोने की जगह छिन गई, बल्कि पप्पू को खिलाने की जिम्मेदारी भी उसी पर आ पड़ी। पप्पू के तीन चार साल होते ना होते दोनों के झगड़े शुरू हो गए और यह झगड़े राजू जान-बूझकर करता था। मां स्वाभाविक रूप से पप्पू का ही पछ लेती। इससे राजू के मन में पप्पू के प्रति ऐसा कांम्पलेक्स पैदा हो गया और वह अपने आपको उपेक्षित महसूस करने लगा। पढ़ाई से उसका मन उचट गया और उसके व्यवहार में भी उद्दंडता आ गई। अगर मां पप्पू का बेजा पक्ष न लेती और राजू को समझाती की राजू बड़ा है, साथ ही उसे भी पप्पू के समान दुलराती तो राजू को आसानी से समझ में आ जाता।

हर बच्चा दूसरे से थोड़ा बहुत भिन्न तो होता ही है। इस बात को समझ कर यदि मां-बाप उसके साथ व्यवहार करें, तो उसमें कांम्पलेक्सेस पैदा नहीं होते और उसकी ग्रोथ पर भी असर नहीं पड़ता है, लेकिन यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो ग्रोथ पर फर्क पड़ता ही है।

बहुत ही जरूरी है कि किसी का भी पक्ष न लिया जाए

भाई बहनों में अगर झगड़ा हो तो मां-बाप के लिए यह बड़ा आवश्यक है कि वह किसी एक का पक्ष ना लें। झगड़े का कारण जानकर यथासंभव जिसकी गलती हो उसे सामान्य सा दंड देकर और दूसरे को समझा कर अगर इसका निवारण कर दिया जाए तो यह सही सिद्ध होता है। इसमें खास बात यह है कि बच्चे को पब्लिकली डांटना या मारना और दूसरों के सामने अपमानित करना, बच्चे के अंदर चिढ़ पैदा कर देता है और उसे ढीठ भी बना देता है। दो चार बार अगर पब्लिकली उसे डांटा गया या सजा दी गई तो वह इतना ढीठ हो जाता है कि मार लेंगे और क्या करेंगे, जैसी सोच उसमें पैदा हो जाती है और यह उसकी ग्रोथ को प्रभावित करती ही है।

एक दूसरे को उनकी अच्छाई भी समझाएं 

झगड़ा होने पर बहुत संभव है कि एक की ही गलती हो, ऐसे में जिसकी गलती हो, उसे दंड देने के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि दूसरे को यह समझाया जाए कि बेशक इस समय उसके छोटे भाई बहन ने गलती की है, लेकिन ऐसा नहीं है कि वह उसे चाहता नहीं है। उसे याद दिलाएं कि दूसरे ने किस मौके पर उसकी क्या सहायता की थी या कैसे उसका काम किया था। ऐसा सकारात्मक रूप अपनाना न केवल झगड़े को शांत करता है वरन भाई बहनों में एक दूसरे के प्रति स्थाई वैमनस्य को पनपने नहीं देता।

एक दूसरे के गुण लिखने को कहें

कभी-कभी झगड़ा इतना बढ़ जाता है कि बच्चे आपस में बोलना छोड़ देते हैं। ऐसे में एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग बड़ा ही कारगर सिद्ध होता है। दोनों को अलग-अलग बुलाकर, दोनों से यह कहा जाए कि तुम दूसरे में क्या-क्या गुण हैं, जरा इसको लिख कर दिखाओ, फिर उस पर्चे को दूसरे को दिखा कर अगर उससे यह कहा जाए कि देखो तुम्हारा भाई तुम्हारे बारे में क्या सोचता है और तुमने उससे बोलना भी बंद कर दिया है तो निश्चित रूप से बात बन जाती है।

 बच्चे को बच्चा ही समझें

‘अब तुम बड़े हो गए हो, इतनी सी बात समझ में नहीं आतीÓ, जैसे वाक्य बच्चे को कन्फ्यूज करते हैं। कोई बच्चा चाहे वह कितना भी बड़ा हो जाए, आपकी उम्र का नहीं हो सकता, उससे बड़ो सी समझदारी की आशा करना या उसे यह अहसास दिलाना कि उसे बड़ों के समान जिम्मेदारी निभानी चाहिए, उसके अंदर इन्फीरियारिटी कॉन्प्लेक्स पैदा करना ही है। उसे उसकी उम्र का ही समझें और उससे उतनी ही आशा करें, जितनी उसकी उम्र है।

बच्चों की गलतियों को बहुत गंभीरता से लेना, किसी एक बच्चे का फेवर करना, जिसकी गलती है, उसे दूसरे के सामने इंसल्ट करना, झगड़े होने पर जिसके लिये आपके मन में अधिक प्यार है, उसे ज्यादा दुलराना या वह तो बहुत अच्छा है, ऐसा कर ही नहीं सकता, गलती तुम्हारी ही होगी कहकर, बिना वास्तविकता समझे एक को डांटना या मारना, यह सब न केवल बच्चों में आपस में स्थाई वैमनस्य पैदा करता है बल्कि बच्चे की ग्रोथ पर भी इसका असर पड़ता ही पड़ता है, वरना घर में बच्चों में झगड़ा होना सामान्य ही है, होने दीजिए।

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