osho lessons
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Osho Beliefs: जिसके जीवन में प्रेम की कोई झलक नहीं है, उसके जीवन में परमात्मा के आने की कोई संभावना नहीं है। प्रेम के अतिरिक्त कोई रास्ता प्रभु तक नहीं पहुंच सकता। मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर हैं। लेकिन किस परमात्मा को? कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है, सिर्फ एक छोटा-सा अनुभव है, जो मनुष्य को ज्ञात नहीं है, सिर्फ एक छोटा-सा अनुभव है, जो मनुष्य को ज्ञात है। और जो परमात्मा की झलक दे सकता है। वह अनुभव प्रेम का अनुभव है।

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न तो प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंच सकती है, न धर्मशास्त्र पहुंचा सकते हैं, न मंदिर-मस्जिद पहुंचा सकते हैं, न कोई हिन्दू और मुसलमानों के, ईसाइयों के, पारसियों के संगठन पहुंचा सकते हैं। एक ही बात परमात्मा तक पहुंचा सकती है और वह यह कि प्राणों में प्रेम की ज्योति का जन्म हो जाए। मंदिर और मस्जिद तो प्रेम की ज्योति को बुझाने का काम करते रहे हैं। जिन्हें हम धर्मगुरु कहते हैं, वे मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने के लिए जहर फैलाते रहे। जिन्हें हम धर्मशास्त्र कहते हैं, वे घृणा और हिंसा के आधार और माध्यम बन गए हैं।

जो प्रेम परमात्मा तक पहुंचा सकता था, वह अत्यंत उपेक्षित होकर जीवन के रास्ते के किनारे अंधेरे में कहीं पड़ा रह गया। इसलिए पांच हजार वर्षों से आदमी प्रार्थनाएं कर रहा है, भजन-पूजन कर रहा है, मस्जिदों और मंदिरों की मूर्तियों के सामने सिर टेक रहा है, लेकिन परमात्मा की कोई झलक मनुष्यता को उपलब्ध नहीं हो सकी। ऌपरमात्मा की कोई किरण मनुष्य के भीतर अवतरित नहीं हो सकी। कोरी प्रार्थनाएं हाथ में रह गई हैं और आदमी रोज-रोज नीचे गिरता गया है और रोज-रोज अंधेरे में भटकता गया है। आनंद के केवल सपने हाथ में रह गए हैं। सच्चाईयां अत्यंत दु:खपूर्ण होती चली गई हैं। आज तो आदमी करीब-करीब ऐसी जगह खड़ा हो गया है, जहां उसे यह ख्याल भी लाना असंभव होता जा रहा है कि परमात्मा भी हो सकता है।

क्या आपने कभी सोचा है कि यह घटना कैसे घट गयी है? क्या नास्तिक इसके लिए जिम्मेदार हैं? या कि लोगों की आकांक्षाएं और अभीप्साएं परमात्मा की दिशा की तरफ जाना बंद हो गयी हैं? क्या वैज्ञानिक और भौतिकवादी लोगों ने परमात्मा के द्वार बंद कर दिए हैं?

नहीं, परमात्मा के द्वार इसलिए बंद हो गए हैं कि परमात्मा का एक ही द्वार था- प्रेम और उस प्रेम की तरफ हमारा कोई ध्यान ही नहीं रहा है! और भी अजीब और कठिन और आश्चर्य की बात यह हो गयी है कि तथाकथित धार्मिक लोगों ने मिल-जुलकर प्रेम की हत्या कर दी और मनुष्य को जीवन में इस भांति सुव्यवस्थित करने की कोशिश की गयी है कि उसमें प्रेम की किरण की संभावना ही न रह जाए।

प्रेम के अतिरिक्त मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता है, जो प्रभु तक पहुंच सकता हो। और इतने लोग जो वंचित हो गए हैं, प्रभु तक पहुंचने से, वह इसीलिए कि वे प्रेम तक पहुंचने से ही वंचित रह गए हैं। समाज की पूरी व्यवस्था अप्रेम की व्यवस्था है। परिवार का पूरा का पूरा केंद्र… अप्रेम केंद्र है। बच्चे के गर्भाधान, कंसेप्शन से लेकर उसकी मृत्यु तक की सारी यात्रा अप्रेम की यात्रा है। और हम इसी समाज को, इसी परिवार को, इसी गृहस्थी को सम्मान दिए जाते हैं, अदब दिए जाते हैं, शोरगुल मचाए चले जाते हैं कि बड़ा पवित्र परिवार है, बड़ा पवित्र समाज है, बड़ा पवित्र जीवन है। यही परिवार और यही समाज और यही सभ्यता, जिसके गुणगान करते हम थकते नहीं हैं, मनुष्य को प्रेम से रोकने का कारण बन रहा है।

इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा। मनुष्यता के विकास में कहीं कोई बुनियादी भूल हो गयी है। यह सवाल नहीं है कि एकाध आदमी ईश्वर को पा ले। कोई कृष्ण, कोई राम, कोई बुद्ध, कोई क्राइस्ट ईश्वर को उपलब्ध हो जाए। यह कोई सवाल नहीं है। अरबों-खरबों लोगों में अगर एक आदमी में ज्योति उतर भी आती हो तो यह कोई विचार करने की बात नहीं है। इसमें तो कोई हिसाब रखने की जरूरत भी नहीं है।

एक माली एक बगीचा लगाता है। उसने दस करोड़ पौधे उस बगीचे में लगाए हैं और एक पौधे में एक अच्छा-सा ऌफूल आ जाए, तो माली की प्रशंसा करने कौन जाए? कौन कहेगा कि माली तू बहुत कुशल है। तूने जो बगीचा लगाया है, वह बहुत अद्भुत है । देख, दस करोड़ वृक्षों में एक ऌफूल खिल गया है। हम कहेंगे यह माली की कुशलता का सबूत नहीं है- एक फूल खिल जाना। माली की भूल-चूक से खिल गया होगा। क्योंकि बाकी सारे पेड़ खबर दे रहे हैं कि माली में कितना कौशल है। यह फूल माली के बावजूद खिल गया होगा। माली ने कोशिश की होगी कि न खिल पाए, क्योंकि बाकी सारे पौधे तो खबर दे रहे हैं कि माली के ऌफूल कैसे खिले हैं!

खरबों लोगों के बीच कोई एकाध आदमी के जीवन में ज्योति जल जाती, पर हम उसी का शोरगुल मचाते रहते हैं, हजारों साल तक पूजा करते रहते हैं, उसी के मंदिर बनाते रहते हैं, उसी का गुणगान करते रहते हैं, अब तक कर रहे हैं! अब तक हम बुद्ध की जयंती मना रहे हैं। अब तक पूजा कर रहे हैं। अब तक क्राइस्ट के सामने घुटने टेके बैठे हुए हैं। यह किस बात का सबूत है?

यह बात का सबूत है कि पांच हजार साल में पांच-छ: आदमियों के अतिरिक्त आदमियत के जीवन में परमात्मा का कोई संपर्क नहीं हो सका नहीं तो कभी के हम भूल गए होते राम को, कभी के भूल गए होते बुद्ध को कभी के हम भूल गए होते महावीर को।

महावीर को हुए ढाई हजार साल हो गए। ढाई हजार साल में कोई आदमी नहीं हुआ कि महावीर को हम भूल सकते। महावीर को याद रखना पड़ा है। वह एक ऌफूल खिला था, जिसे अब तक हमें याद रखना पड़ता है। यह कोई गौरव की बात नहीं है कि हमें अब तक स्मृति है बुद्ध की, महावीर की, राम की, मुहम्मद की, क्राइस्ट की या जरथुस्त्र की। यह इस बात का सबत है कि और आदमी होते ही नहीं कि उनको हम भुला सकें। बस दो-चार इने-गिने नाम अटके रह गए हैं मनुष्य-जाति की स्मृति में।

और उन नामों के साथ हमने क्या किया है सिवाय उपद्रव के, हिंसा के और उनकी पूजा करनेवाले लोगों ने क्या किया है सिवाय आदमी के जीवन को नरक बनाने के। मंदिरों और मस्जिदों के पुजारियों और पूजकों ने जमीन पर जितनी हत्याएं की हैं, और जितना खून बहाया है, और जीवन का जितना अहित किया है, उतना किसी ने भी नहीं किया है। जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल हो गयी है; नहीं तो इतने पौधे लगें और फूल न आएं। यह बड़े आश्चर्य की बात है। कहीं भूल जरूर हो गयी है।

मेरी दृष्टि में प्रेम अब तक मनुष्य के जीवन का केंद्र नहीं बनाया था, इसीलिए भूल हो गयी है। और प्रेम केंद्र बनेगा भी नहीं, क्योंकि जिन चीजों के कारण प्रेम जीवन का केंद्र नहीं बन रहा है। हम उन्हीं चीजों का शोरगुल मचा रहे हैं, आदर कर रहे हैं, सम्मान कर रहे हैं, उन्हीं चीजों का बढ़ावा दे रहे हैं।

मनुष्य की जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा ही गलत हो गयी है। इस पर पुनर्विचार करना जरूरी है, अन्यथा सिर्फ हम कामनाएं कर सकते हैं आर कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्या आपको कभी यह बात खयाल में आयी है कि आपका परिवार प्रेम का शत्र है? क्या कभी आपको यह बात खयाल में आयी है कि आपका समाज प्रेम का शत्रु है? क्या यह खयाल में आया है कि मनु से लेकर आज तक के सभी नीतिकार प्रेम के विरोधी हैं?

जीवन का केंद्र है- परिवार और परिवार विवाह पर खड़ा किया गया जबकि परिवार प्रेम पर खड़ा होना चाहिए था। भूल हो गयी है। आदमी के सारे पारिवारिक विकास की भूल हो गयी है। परिवार निर्मित होना चाहिए ऌप्रेम केंद्र पर, किंतु परिवार निर्मित किया जाता है विवाह के केंद्र पर! इससे ज्यादा झूठी और मिथ्या बात नहीं हो सकती है।

प्रेम और विवाह का क्या संबंध है?

प्रेम से तो विवाह निकल सकता है, लेकिन विवाह से प्रेम नहीं निकलता और न ही निकल सकता है। इस बात को थोड़ा समझ लें तो हम आगे बढ़ सकें। प्रेम परमात्मा की व्यवस्था है और विवाह आदमी की व्यवस्था है। विवाह सामाजिक संस्था है, प्रेम प्रकृति का दान है। प्रेम तो प्राणों के किसी कोने में अनजाने पैदा होता है।

लेकिन विवाह? समाज, कानून नियमित करता है, स्थिर करता है, बनाता है। विवाह आदमी की ईजाद है। और प्रेम? प्रेम परमात्मा का दान है। हमने सारे परिवार को विवाह के केंद्र पर खड़ा कर दिया है, प्रेम के केंद्र पर नहीं। हमने यह मान रखा है कि विवाह कर देने से दो व्यक्ति प्रेम की दुनिया में उतर जाएंगे। अद्भुत झूठी बात है

यह, और पांच हजार वर्षों में भी हमको इसका खयाल नहीं आ सका है! हम अद्भुत अंधे हैं। दो आदमियों के हाथ बांध देने से प्रेम के पैदा हो जाने की जरूरत नहीं है, कोई अनिवार्यता नहीं है। बल्कि सच्चाई यह है कि जो लोग बंधा हुआ अनुभव करते हैं, वे आपस में प्रेम कभी नहीं कर सकते।

प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता में। प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता की भूमि में-जहां कोई बंधन नहीं, जहां कोई जबर्दस्ती नहीं है, जहां कोई कानून नहीं है। प्रेम तो व्यक्ति का अपना आत्मदान है-बंधन नहीं, जबर्दस्ती ही उसके पीछे कोई विवशता, कोई मजबूरी नहीं है।

किंतु हम अविवाहित स्त्री या पुरुष के मन में, युवक और यवती के में उस प्रेम की पहली किरण का गला घोंटकर हत्या कर देते हैं, फिर हम कर हैं कि विवाह से प्रेम पैदा होना चाहिए। फिर जो प्रेम पैदा होता है, वह बिल्कुल पैदा किया, कलटिवेटेड होता है, कोशिश से लाया गया होता। वह प्रेम वास्तविक नहीं होता, वह प्रेम सहज-स्ऌफूर्त, स्पांटेनिअस नहीं होता है। वह प्रेम प्राणों से सहज उठता नहीं है, फैलता नहीं है। जिसे हम विवाद से उत्पन्न प्रेम कहते हैं, वह प्रेम केवल सहवास के कारण पैदा हुआ मोह होता है।

प्राणों की ललक और प्राणों का आकर्षण और प्राणों की विद्युत वहां अनुपस्थित होती है। और इस तरह से परिवार बनता है। इस विवाह से पैदा हुआ परिवार और परिवार की पवित्रता की कथाओं का कोई हिसाब नहीं है! परिवार की प्रशंसाओं, स्तुतियों की कोई गणना नहीं है! और यहीं परिवार सबसे कुरूप संस्था साबित हुई है, पूरी मनुष्य जाति को विकृत करने में।

प्रेम से शून्य परिवार मनुष्य को विकृत करने में, अधार्मिक करने में, हिंसक बनाने में सबसे बड़ी संस्था साबित हुई है। प्रेम से शून्य परिवार से ज्यादा असुंदर और कुरूप, अग्लि कुछ भी नहीं है, और वही अधर्म का अड्डा बना हुआ है!

जब हम एक युवक और युवती को विवाह में बांधते हैं बिना प्रेम के, बिना आंतरिक परिचय के, बिना एक-दूसरे के प्राणों के संगीत के, तब हम केवल पंडित के मंत्रों और वेदों की पूजा में और थोथे उपक्रम में उनका विवाह से बांध देते हैं। फिर आशा करते हैं कि उनके जीवन में प्रेम पैदा हो जाएगा!  प्रेम तो पैदा नहीं होता है, सिर्फ उनके संबंध कामुक, सेक्सुअल होते हैं। क्योंकि प्रेम तो पैदा किया जा सकता है। प्रेम पैदा हो जाए तो व्यक्ति साथ जुड़कर परिवार निर्माण कर सकता है।

दो व्यक्तियों को परिवार के निर्माण के लिए जोड़ दिया जाए और फिर आशा की जाए कि प्रेम पैदा हो जाए, यह नहीं हो सकता है। समाज की पूरी व्यवस्था अप्रेम की व्यवस्था है। परिवार का पूरा का पूरा केंद्र… अप्रेम केंद्र है। बच्चे के गर्भाधान, कंसेप्शन से लेकर उसकी मृत्यु तक की सारी यात्रा अप्रेम की यात्रा है।