बम-बम-बम-के जय घोष से दूर से ही पता चलता है कि शिव भक्त कंधे पर भक्ति, आस्था, विश्वास की कांवड़ लिये अपनी मंजिल की तरफ बढ़े जा रहे हैं। श्रावण मास का माह कांवड़ यात्रा के लिए अपने अलग पवित्रता रखता है। मन में आंस बांधे प्रतिवर्ष हजारों, लाखों श्रद्धालु कांवड़ कंधे पर उठाये गंगा तट पर पहुंचते हैं और शिव का प्रसाद स्वरूप गंगा जल लेकर अपने-अपने गन्त्व्य पर पहुंचते हैं और अपने स्थानीय मंदिर में शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं। 

कांवड़ियों की ये यात्रा पूरी तरह भगवान भोले नाथ और माता गंगा को समर्पित होती है। इस माह में पूरा देश शिवमय हो जाता है। कांवड़ियों की ये यात्रा साल की सबसे बड़ी धर्मयात्रा होती है। 

कांवड़ यात्रा से जुड़े कुछ मिथक

कांवड़ यात्रा से जुड़ी कुछ बाते हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार तो है नहीं परन्तु ये काफी समय से प्रचलित है और शायद हमेशा ही रहेंगे।

 

  • कांवड़िये जब घर से निकलते हैं तो अपनी बहन से टीका कराकर चलते हैं और लौटने पर बहनें ही भाइयों की आरती उतारती हैं तभी वे घर में आते हैं।
  • कांवड़ियों के घर पहुंचने तक उनके घरों पर बिना छौंक के साग सब्जी बनती है। कहते हैं छौक लगाने से उनके पैरों में छाले पड़ जाते हैं।
  •  जब तक कांवड़िये घर पर नहीं आते तब तक उनके घरों में भोले व माता गंगा के गीत भजन गाये जाते हैं और रात में खील, बताशे के प्रसाद बांटे जाते हैं।
  • कांवड़ियों के लिये भी कहा जाता है कि वे अपनी कांवर जमीन पर नहीं रखते हैं। दैनिक कर्म करते समय प्रायः कांवड़ दूसरे व्यक्ति को पकड़ा दी जाती है। अगर कोई उपलब्ध नहीं है तो उस अवस्था में कांवर किसी पेड़ के ऊपर टांग दी जाती है।
  • इस तरह से कांवर यात्रा संपन्न होती है। एक समय था कि जब प्रायः पुरूष विशेषकर युवा ही कांवर लेने जाते थे। परन्तु आज बदलते परिवेश में प्रायः स्त्री, पुरूष, युवा, बुर्जुग यहां तक कि बच्चे भी भोले की कांवर लाने में पीछे नहीं है। कांवर संजाने में भी अब प्रतिस्पर्धा सी हो गयी है। हर कांवरिया सोचता है कि उसकी कांवर दूसरों की कांवर से ज्यादा खूबसूरत होनी चाहिए। बहुत से शहरों में तो कांवर की सजावट पर प्रथम, द्वितीय पुरस्कार भी दिये जाते हैं।
  • इस तरह कठिन मार्गों को तय करते हुए कांवरिये अपनी यात्रा को सम्पन्न करते हैं और भोले को प्रसन्न कर आशीष पाते हैं।

 

कांवड़ यात्रा इतिहास

भारत में कांवड़ यात्रा का इतिहास बहुत पुराना है परन्तु इसको शुरू करने का श्रेय मातृ पितृ भक्त श्री श्रवण कुमार को जाता है। जिन्होनें अपने बूढ़े व अंधे माता-पिता की तीर्थ करने की इच्छा जानकर उन्हें कांवर में बैठकार और कांवड़ अपने कंधे पर उठाकर चारों धाम की पैदल यात्रा करायी थी। शायद यह ही पहली कावड़ यात्रा थी जिसे बाद में लोगों ने वर्तमान कांवड़ यात्रा के रूप जारी रखा जो कि आज तक चलायमान है।

साथ ही एक कथा और भी बहुचर्चित है कि हरिद्वार का कनखल क्षेत्र भगवान शिव की ससुराल है। कहते हैं शिव विरोधी राजा दक्ष को जब शिव की शक्ति का आभास हुआ तो उन्होंने भगवान शिव से अपने द्वारा की गयी गलती की क्षमा मांगी और भगवान शिव की कठोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और वरदान मांगा कि आप अपनी ससुराल कनखल में निवास करें तब शिव जी ने राजा दक्ष के कठोर तप से प्रसन्न होकर कहां की सावन माह में भगवान भोलेनाथ पूरे तीस दिनों तक कनखल के दक्षेश्वर मंदिर में निवास करेंगें व इन तीस दिनों तक जो भी भगवान शिव पर  जल चढ़ायेगा व उसकी मनोकामना पूरी करेंगे। जो कि एक परम्परा के रूप में आज तक चली आ रही है। इस माह में श्रद्धालु हरिद्वार से पावन गंगाजल ले जाकर देश के कोने-कोने में अपने आराध्य भोलेनाथ का अभिषेक करते हैं। इन दिनों हरिद्वार में कांवड़ियों का एक बड़ा सैलाब सा उमड़ता नजर आता है।

 

 

(साभार-साधना पथ)

 

ये भी पढ़ें –

 

आखिर क्यूं इतना खास है सावन का महीना, जानिए महत्व

कैसे करें शिव का पूजन कि शिव प्रसन्न हो जाएं

भगवान शिव को पशुपति क्यों कहते है

अमरनाथ यात्रा: प्राकृतिक नजारों से सजा है बाबा बर्फानी का दरबार

 

आप हमें फेसबुक और ट्विटर पर भी फॉलो कर सकते हैं।