भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
सुधा के एम. ए. करते ही घर में जोर-शोर से शादी की बातें चलने लगीं। पापा अखबारों और पत्रिकाओं में सर डाले बैठे रहते और अपनी लाडो के लिए योग्य वर की तलाश करते रहते। कागजों के छोटे-छोटे टुकड़े पर योग्य वर… सुधा को न जाने क्यों कभी-कभी ऐसा लगता वो लड़कों का बायोडाटा नहीं एक लॉटरी है, लगी तो ठीक वरना… | सुधा एक अजीब सा जीवन जी रही थी, हर दूसरे-तीसरे महीने घर की साफ-सफाई शुरू हो जाती। चादरें बदली जाने लगती, सोफे के नीचे झाडू डाल-डाल कर सफाई होने लगती, सुधा माँ की इस हरकत पर मन ही मन मुस्कुरा देती। लड़के वाले उसे देखने आ रहे या फिर उसके घर को…पर माँ का यह भगीरथ प्रयास भी न जाने क्यों विफल हो जाता। सुधा देखने-सुनने में ठीक-ठाक थी पर न जाने क्यों लड़के वाले उसे हर बार मना कर देते।
लड़के वालों की मनाही कहीं न कहीं पूरे परिवार को तोड़ देती, कई दिनों तक घर में एक अजीब सी नीरवता छा जाती। सब एक-दूसरे से नजरें चुराते रहते, सुधा एक अजीब सी आत्मग्लानि से भर जाती। लड़के वालों के आने से पहले होने वाले तामझाम के पीछे छिपे अनावश्यक खर्चों से वो कशमशा कर रह जाती। पापा लड़के वालों को लुभाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते पर फिर भी…एक अजीब सा अपराधबोध सधा को लगातार घेर रहा था। लड़के वालों की लगातार मनाही से वो अंदर ही अंदर टूट रही थी। एक दिन माँ भैया पर बुरी तरह चिल्ला पड़ी थी,
“कितनी बार कहा कि सुधा की फोटो किसी कायदे के स्टूडियो में खिचवाओं, पर मेरी सुनता कौन है।” ।
“माँ! तुम भी न…फोटो का क्या है। मैंने तो उससे कहा भी था कि एक शेड गोरी करके प्रिंट निकालना पर पता नहीं इन लड़के वालों का कुछ समझ नहीं आता। आखिर उनको बहू लानी है कि हीरोइन ।”
माँ न जाने क्यों अचानक से वहमी होती जा रही थी,
“सुधा के पापा.. अबकी लड़के वाले आयें तो उन्हें काजू वाली नहीं पिस्ते वाली मिठाई परोसेंगे। शक्लाइन कह रही थी शभ काम में सफेद नहीं रंगीन मिठाई खाई और खिलाई जाती है। हो सकता है लाडो की शादी इसी वजह से न हो पा रही हो।”
सुधा की साड़ियों का रंग भी हर लड़के वाले की मनाही के साथ बदलता जा रहा था, शायद…???
नवीन और उसका परिवार पिछले महीने ही देख कर गया था, नवीन के परिवार ने सुधा को देखते ही पसन्द कर लिया। माँ के पैर तो जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। सुधा ने भी कहीं न कहीं राहत की सांस ली, इस रोज-रोज के दिखावे से वो भी तंग आ चुकी थी। दो साल का वनवास आज ख़त्म हो गया था, वो खुश थी शायद इसलिए… क्योंकि घर में सब खुश थे। आज तक वो उनकी खुशी में ही तो खुश होती आई थी। खुद की खुशी क्या है… वो कब का भूल चुकी थी।
पापा और मम्मी नवीन के परिवार से आगे की बात करने के लिए कल सुबह ही निकल गए थे, रात में पापा के फोन आने के बाद घर में एक अजीब सा भूचाल मचा हुआ था। सुधा पूरी रात सो नहीं पाई थी। भैया सुबह-सवेरे ही उसके कमरे में चले आये थे, वो उसे काफी देर तक समझाते रहे। सुधा विचारों के भंवर में डूब उतरा रही थी। भैया बिस्तर से उठ खड़े हुए,
“सुधा सोच लो, कोई दबाव नहीं। है। पापा-मम्मी..ने मुझ पर ये जिम्मेदारी छोड़ रखी है। कोई तुम्हारा बुरा नहीं चाहता, तुम जो फैसला लोगी वो सबको मंजूर होगा।”
भैया ने हाथ बढ़ाकर कमरे के पर्दे को हटाया और कमरे से बाहर निकल ही रहे थे कि सुधा ने पीछे से आवाज लगाई,
“भैया..?”
“क्या हुआ… कुछ कहना चाहती हो…बोलो मैं सुन रहा हूँ।”
भैया चुपचाप बिस्तर पर आकर बैठ गए, सुधा के चेहरे पर एक अजीब सी बेचैनी थी। वो समझ नहीं पा रही थी कि बात कहाँ से शुरू करें।
“भैया…आप बुरा न माने तो एक बात पूछ?”
“बोल न…मैं सुन रहा हूँ।” भैया ने बड़े प्यार से सुधा के सर पर हाथ फेरा।
“भैया!.. अगर ऐसा ही रिश्ता आपके लिए आया होता तो क्या आप… आप तैयार होते. आप शादी के लिए हाँ कर देते।”
शायद ये बात कहने के लिए सुधा को बहुत हिम्मत जुटानी पड़ी थी,उसके चेहरे पर न जाने कितने रंग आये और गए। उसकी सांसे फूल रही थी, जैसे वो न जाने कितने मीलों का सफर तय करके आयी थी ।सच ही तो था, वो आज तक एक सफर में ही थी। एक ऐसा सफर जिसकी मंजिल की डोर हमेशा दूसरे के हाथों में थी। आज पहली बार उससे उसका फैसला पूछा गया था। फैसला! अपनी जिंदगी का फैसला… आज तक वो सिर्फ दूसरे के फैसले सुनती आई थी और मानती भी आई थी।
शिकायत नहीं थी उसे किसी से.. होती भी तो किससे…फैसले लेने वाले लोग भी अपने ही तो थे पर आज तक उसके जिंदगी के फैसले दूसरों ने ही लिए थे। किस साइड से उसे पढ़ना है, कौन से विषय उसे लेने चाहिए, कॉलेज जाने के लिए इस रंग का सूट नहीं…बिलकुल भी नहीं, पढ़ने जा रहे हैं कोई बाजार-हाट घूमने नहीं। कॉलेज से इतने बजे तक आ जाना… उफ्फ। सुधा ने अपने कान बन्द कर लिए…चारों तरफ विचारों का एक अजीब सा कोलाहल था, पर भीतर एक गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था। माथे पर पसीने की चंद बूंदे चुहचुहा गईं।
“बोलिये न भैया!..क्या आपने ऐसे रिश्ते के लिए हाँ कही होती।”
“नहीं..बिल्कुल भी नहीं!”
सुधा भैया के चेहरे पर अपने सवालों के जवाब ढूंढती रही, भैया के इस एक शब्द से उसकी दुनिया हिल गई।
“क्यों..?”
“मेरे पास इतने सारे विकल्प हैं तो मैं क्यों ऐसी लड़की को पसन्द करूंगा। मुझे एक से एक लड़कियाँ मिल जाएंगी। पढ़ा-लिखा हूँ, अच्छा-खासा कमाता हूँ, मुझे लड़कियों की कौन सी कमी…जो मैं ऐसी लड़की से शादी करूँ।”
सुधा आश्चर्य से भैया का मुँह देखती रह गई, भैया अपनी ही दुनिया में मस्त थे। पुरुष होने का दम्भ अचानक से उनके चेहरे पर दिखने लगा था, पढ़ी-लिखी तो वो भी थी। शायद परिवार का प्रोत्साहन मिल जाता तो नौकरी भी कहीं न कहीं मिल ही जाती पर…
“हमारी जाति में ज्यादा पढ़ाया नहीं जाता। इतना पढ़ा-लिखा लड़का कहाँ से लाएंगे, वैसे भी सम्भालनी तो गृहस्थी ही है, फालतू में समय और पैसा क्यों बर्बाद करना।’
कितनी आसानी से कह दिया था माँ ने, कितना लड़ी थी उस दिन वो माँ से….
“अपनी जाति में लड़के न पढ़ें इसलिए मैं भी न पढूँ, ये कहाँ का न्याय है। मेरे सपनों को क्यों कुचल रही हो माँ..?”
न जाने क्या सोचकर सुधा की आँखें भीग गई, पर भैया न जाने किस दुनिया में खोए हुए थे।
“सुधा! गनीमत है लड़के वालों ने कुछ छिपाया नहीं, ये तो उनकी शराफत है, वो चाहते तो छुपा भी सकते थे। भगवान का शुक्र है हमें शादी से पहले ही पता चल गया ।”
“ऐसे कैसे छुपा लेते भैया…शादी-ब्याह का मामला है। दो परिवारों के विश्वास की बात है। उन्हें लगा होगा किसी तीसरे से पता चले उससे अच्छा है कि खुद ही बता दें।”
“तू कितनी भोली है, अभी तूने दुनिया देखी ही कहाँ है…”
“भैया!..उन्हें भी डर था कि अब गोद भराई तक बात पहुँच गई है, अब नहीं बताया तो सब गड़बड़ हो जाएगा पर गड़बड़ तो हो गई न…”
“गड़बड़ कैसी…?”
“इतना बड़ा सच उन्होंने हमसे छुपाया और आप कह रहे हैं…”
“दिक्कत क्या है सुधा..इंजीनियर है…इकलौता है..शहर के बीचों-बीच दो मंजिला मकान है। पूरा परिवार तुम्हें हाथों-हाथ लिए रहेगा और क्या चाहिए तुम्हें..?”
“भैया! उसके पैर में रॉड पड़ी है। कल…!!”
“सुधा! .वो एक दुर्घटना थी। हड्डी टूट गई, डॉक्टर ने रॉड डाल दी। तुमने भी देखा है नवीन को चलने-फिरने में कोई दिक्कत नहीं है।’
“पर कल..!”
“कल क्या, उन्होंने बताया कि रॉड जिंदगी भर भी पड़ी रहे तो भी कोई दिक्कत नहीं और निकाल ले तो भी…”
“पर..!!”
“पर-वर कुछ नहीं।”
सुधा की आशंका गहराती जा रही थी, सुधा के पास इस रिश्ते से इंकार करने के सारे तर्क भैया ने ध्वस्त कर दिए थे। एक तरफ सबने फैसले लेने के सारे अधिकार भी उसके नाम से सुरक्षित कर दिए थे और दूसरी तर्क पर तर्क दे उसकी शंका, उसके सवालों को ध्वस्त करते जा रहे थे। न जाने क्यों..उसे ऐसा लग रहा था मानो वो कोई विज्ञापन देख रही हो जहाँ सामान की कोई गारन्टी नहीं लेना चाहता और उद्घोषक वैधानिक चेतावनी के नाम पर नियम-कानून इतनी तेजी से बोलता है कि आप सुनकर भी सुन नहीं पाते।
“सुधा! एक बात कहूँ, पति अपने से कुछ कमतर हो तो जीवनभर एहसान तले दबे रहता है। परिवार तुम्हें देवी की तरह पूजेगा और समाज की नजरों में तुम हमेशा महान बनी रहोगी। जानती हो नवीन की मम्मी बता रही थी कि नवीन ने अपना सर्टिफिकेट भी बनवा रखा है ट्रेन में उसका टिकट मुफ्त हो जाता है और साथ चलने वाला का आधा..मौज ही मौज रहेगी तुम्हारी।”
सुधा आश्चर्य से भैया को देख रही थी, नवीन अपने परिस्थितियों के आगे अपाहिज थे, लाचार थे.ईश्वर ने उनके साथ अच्छा नहीं किया पर क्या ये समाज भी मानसिक रूप से अपाहिज नहीं है। महान बनने का इससे अच्छा शॉर्ट कट कोई हो ही नहीं सकता था, कहीं न कहीं इस रिश्ते के लिए पापा-मम्मी और भैया का मन भी गवाही नहीं दे रहा था, जिंदगी भर उसके हर छोटे-बड़े फैसले आज तक वो ही लोग ले रहे थे पर आज… | कहीं न कहीं भैया ने अपनी बातों से ये जता भी दिया था कि लड़कियों का क्या है उनके लिए कुछ भी चलता है पर क्या सच में..कल समाज को जवाब देते-देते वो थक जाएगी। कमी उसमें नहीं नवीन में थी पर उंगलियाँ हमेशा उस पर उठेगी, जरूर कोई बात होगी जो घर वालों ने ऐसे लड़के से शादी कर दी।
महान बनने का इससे अच्छा मौका उसे नहीं मिलेगा पर क्या वो सचमुच अपने पति को बेचारे की तरह उम्र भर चाहना चाहती है …आज पहली बार किसी ने उससे उसकी राय, उसका फैसला पूछा है ,एक बारगी उसे नवीन पर दया भी आती थी पर कहीं न कहीं वो भी तो समाज के मानसिक विकलांगता की शिकार थी।
सुधा फैसला कर चुकी थी, इस फैसले का जो भी परिणाम हो पर अब वो समाज की खोखली विकलांगता का शिकार नहीं हो सकती। सभी को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी, चाहे सामने कोई भी हो।
“भैया! मैं माफी चाहती हूँ, मैं ये शादी नहीं कर सकती। मम्मी-पापा को बता दीजियेगा..लडके वालों को मना कर दें।”
भैया हक्के-बक्के से सुधा को देख रहे थे, शायद उन्हें सुधा से इस बात की उम्मीद नहीं थी। शायद वो भी ये मानकर चले थे कि लड़कियों के लिए कुछ भी चलता है पर नहीं बस अब और नहीं। किसी न किसी को तो कदम बढ़ाना ही होगा.सुधा का चेहरा आत्मविश्वास से चमक रहा था। सुधा के एक फैसले ने जता दिया कि लड़कियों के लिए कुछ भी नहीं चलता। सुधा सोच रही थी कि सही मायने में विकलांग कौन था, नवीन या फिर समाज..?
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
