कामिनी – मैंने उसे कभी नहीं देखा।
वकील – क्या तुम शपथ लेकर कह सकती हो कि तुमने उसे प्रेम पत्र नहीं लिखे?
शिकारी के चंगुल में फंसे हुए पक्षी की तरह पत्र का नाम सुनते ही कामिनी के होश-हवास उड़ गए, हाथ -पैर फूल गए। मुंह न खुल सका। जज ने, वकील ने और दो सहस्र आंखों ने उसकी तरफ उत्सुकता से देखा।
रूपचन्द्र का मुंह खिल गया। उसके हृदय में आशा का उदय हुआ। जहां फूल था वहां कांटा पैदा हुआ। मन में कहने लगा, कुलटा कामिनी! अपने सुख और अपने कपट मान-प्रतिष्ठा पर मेरे और मेरे परिवार की हत्या करने वाली कामिनी तू अब भी मेरे हाथ में है। मैं अब भी तुझे इस कृतघ्नता और कपट का दंड दे सकता हूं। तेरे पत्र जिन्हें तूने हृदय से लिखा है या नहीं, मालूम नहीं, परन्तु जो मेरे हृदय के ताप को शीतल करने के लिए मोहिनी मंत्र थे, वह सब मेरे पास हैं। और वह इसी समय तेरा सब भेद खोलेंगे। इस क्रोध से उन्मत्त होकर रूपचन्द ने अपने कोट के पाकेट में हाथ डाला। जज ने, वकीलों ने, और दो सहस्र नेत्रों ने उसकी तरफ चातक की भांति देखा।
तब कामिनी की विकल आंखें चारों ओर से हताश होकर रूपचन्द की ओर पहुंची। उनमें इस समय लज्जा थी, दया-भिक्षा की प्रार्थना थी और व्याकुलता थी, वह मन-ही-मन कहती थी, मैं स्त्री हूं, अबला हूं, ओछी हूं। तुम पुरुष हो, बलवान हो, साहसी हो। यह तुम्हारे स्वभाव के विपरीत है। मैं कभी तुम्हारी थी और यद्यपि समझ मुझे तुमसे अलग किये देती है किन्तु मेरी लाज तुम्हारे हाथ में है। तुम मेरी रक्षा करो। आंखें मिलते ही रूपचन्द उसके मन की बात ताड़ गए। उनके नेत्रों ने उत्तर दिया – यदि तुम्हारी लाज मेरे हाथों में है तो इस पर कोई आंच नहीं आने पावेगी। तुम्हारी लाज पर आज मेरा सर्वस्व निछावर है।
अभियुक्त के वकील ने कामिनी से पुनः वही प्रश्न किया -क्या तुम शपथपूर्वक कह सकती हो कि तुमने रूपचन्द को प्रेम-पत्र नहीं लिखे?
कामिनी ने कातर स्वर में उत्तर दिया – मैं शपथपूर्वक कहती है कि मैंने उसे कभी कोई पत्र नहीं लिखा और अदालत से अपील करती हूं कि वह मुझे इन घृणास्पद अश्लील आक्रमणों से बचाये।
अभियोग की कार्रवाई समाप्त हो गयी। अब अपराधी के बयान की बारी आयी। इसकी तरफ से कोई गवाह न थे। परन्तु वकीलों को, जज को, और अधीन जनता को पूरा-पूरा विश्वास था कि अभियुक्त के बयान पुलिस के मायावी महल को क्षणमात्र में छिन्न-भिन्न कर देगा। रूपचन्द इजलास के सम्मुख आया। इसके मुखारविंद पर आत्म-बल का तेज झलक रहा था और नेत्रों में साहस और शान्ति। दर्शक-मंडली उतावली होकर अदालत के कमरे में घुस पड़ी। रूपचन्द इस समय का चांद था या देवलोक का दूत, सहस्रों नयन उसकी ओर लगे थे। किन्तु हृदय को कितना कौतूहल हुआ जब रूपचन्द ने अत्यंत शान्तचित्त से अपना अपराध स्वीकार कर लिया। लोग एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे।
अभियुक्त का बयान समाप्त होते ही कोलाहल मचा गया। सभी इसकी आलोचना-प्रत्यालोचना करने लगे। सबके मुंह पर आश्चर्य था, सन्देह था, और निराशा थी। कामिनी की कृतघ्नता और निष्ठुरता पर धिक्कार हो रही थी। प्रत्येक मनुष्य शपथ खाने पर तैयार था कि रूपचन्द सर्वथा निर्दोष है। प्रेम ने उसके मुंह पर ताला लगा दिया है। पर कुछ ऐसे भी दूसरे के दुःख में प्रसन्न होने वाले स्वभाव के लोग थे जो उसके इस साहस पर हंसते और मजाक उड़ाते थे।
दो घंटे बीत गये। अदालत में पुनः एक बार शान्ति का राज्य हुआ। जज साहब फैसला सुनाने के लिए खड़े हुए। फैसला बहुत संक्षिप्त था। अभियुक्त जवान है। शिक्षित है और सभ्य है। अतएव आंखों वाला अंधा है। इसे शिक्षाप्रद दण्ड देना आवश्यक है। अपराध स्वीकार करने से उसका दण्ड कम नहीं होता है। अतः मैं उसे पांच वर्ष के सपरिश्रम कारावास की सजा देता हूं।
दो हजार मनुष्यों ने हृदय थाम कर फैसला सुना। मालूम होता था कि कलेजे में भाले चुभ गए हैं। सभी का मुंह निराशा-जनक क्रोध से रक्त-वर्ण हो रहा था। यह अन्याय है, कठोरता और बेरहमी है। परन्तु रूपचन्द के मुंह पर शान्ति विराज रही थी।
