मैंने बड़ी नम्रता से समझाया – इस तरह कर्ज लेकर कै दिन तुम्हारा काम चलेगा। तुम समझदार आदमी हो, जानते हो कि आजकल सभी को अपनी फिक्र सवार रहती है। किसी के पास फालतू रुपये नहीं रहते और यदि हों भी तो वह ऋण देकर- रार क्यों लेने लगा। तुम अपनी दशा सुधारते क्यों नहीं।
दफ्तरी ने विरक्त भाव से कहा – यह सब दिनों का फेर है और क्या कहूं। जो चीज महीने भर के लिए लाता हूं वह एक दिन में उड़ जाती है, मैं घर वाली के चटोरेपन से लाचार हूं। अगर एक दिल दूध न मिले तो महनामथ मचा दे, बाजार से मिठाइयां न लाऊं तो घर में रहना मुश्किल हो जाए, एक दिन गोश्त न पके तो मेरी बोटियां नोंच खाए खानदान का शरीफ हूं। यह बेइज्जती नहीं सही जाती कि खाने के पीछे स्त्री से झगड़ा-तकरार करूं। जो कुछ कहती है सिर के बल पूरा करता हूं। अब खुदा से यही दुआ है कि मुझे इस दुनिया से उठा ले। इसके सिवाय मुझे दूसरी कोई सूरत नहीं नजर आती, सब कुछ करके हार गया!
मैंने संदूक से से 5 रु. निकाले और उसे देकर बोला – यह लो, यह तुम्हारे पुरुषार्थ का इनाम है। मैं नहीं जानता कि तुम्हारा हृदय इतना उदार, इतना वीर-रसपूर्ण है।
गृह-दाह में जलने वाले वीर, रणक्षेत्र के वीरों से कम महत्त्वशाली नहीं होते।
