एक सप्ताह बीत गया, पर ज्ञानचंद्र ने गोविंदी से कुछ न पूछा, और न उनके बर्ताव ही से उनके मनोगत भावों का कुछ परिचय मिला। अगर उनके व्यवहारों में कोई नवीनता थी, तो यह कि वह पहले से ही ज्यादा स्नेहशील, निर्द्वन्द्व और प्रफुल्लबदन हो गए। गोविंदी का इतना आदर और सम्मान उन्होंने कभी नहीं किया था। उनके प्रयत्नशील रहने पर भी गोविंदी उनके मनोभावों को ताड़ रही थी और उसका चित्त प्रतिक्षण शंका से चंचल और क्षुब्ध रहता था। अब उसे इसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं था कि सोमदत्त ने आग लगा दी है। गीली लकड़ी में पड़कर वह चिनगारी बुझ जायेगी, या जंगल की सूखी पत्तियां हाहाकार कर के जल उठेंगी, यह कौन जान सकता है? लेकिन इस सप्ताह के गुजरते ही अग्नि का प्रकोप होने लगा।
ज्ञानचंद्र एक महाजन के मुनीम थे। उस महाजन ने कह दिया – मेरे यहां अब आपका काम नहीं, जीविका का दूसरा साधन यजमानी है। यजमान भी एक-एक करके उन्हें जवाब देने लगे। यहां तक कि उनके द्वार पर लोगों का आना-जाना बंद हो गया। आग सूखी पत्तियों में लगकर अब हरे वृक्ष के चारों ओर मंडराने लगी। पर ज्ञानचंद्र के मुख में गोविंदी के प्रति एक भी कटु, अमृदु शब्द न था। वह इस सामाजिक दंड की शायद कुछ परवाह न करते यदि दुर्भाग्यवश इसने उनकी जीविका के द्वार न बंद कर दिए होते।
गोविंदी सब कुछ समझती थी, पर संकोच के मारे कुछ न कह सकती थी। उसी के कारण उसके प्राणप्रिय पति की यह दशा हो रही है, यह उसके लिए डूब मरने की बात थी। पर, कैसे प्राणों का उत्सर्ग करे? कैसे जीवन-मोह से मुक्त हो? इस विपत्ति में स्वामी के प्रति उसके रोम-रोम से शुभ-कामनाएं की सरिता-सी बहती थी, पर मुंह से एक शब्द भी न निकलता था। भाग्य की सबसे निष्ठुर लीला उस दिन हुई, जब कालिंदी भी बिना कुछ कहे-सुने सोमदत्त के घर जा पहुंची। जिसके लिए यह सारी यातनाएं झेलनी पड़ी, उसी ने अंत में बेवफाई की। ज्ञानचंद्र ने सुना, तो केवल मुस्करा दिए, पर गोविंदी इस कुटिल आघात को इतनी शांति से सहन न कर सकी। कालिंदी के प्रति उसके मुख से अप्रिय शब्द निकल ही आए। ज्ञानचंद्र ने कहा – ‘उसे व्यर्थ ही कोसती हो प्रिये, उसका कोई दोष नहीं। भगवान हमारी परीक्षा ले रहे हैं। इस वक्त धैर्य के सिवा हमें किसी से कोई आशा न रखनी चाहिए।’
जिन भावों को गोविंदी कई दिनों से अंतस्तल में दबाती चली आती थी, वे धैर्य का बांध टूटते ही बड़े वेग से बाहर निकल पड़े। पति के सम्मुख अपराधियों की भांति हाथ बांधकर उसने कहा – ‘स्वामी, मेरे ही कारण आपको यह सारे पापड़ बेलने पड़े रहे हैं। मैं ही आपके कुल की कलंकिनी हूं। क्यों न मुझे किसी ऐसी जगह भेज दीजिए, जहां कोई मेरी सूरत तक न देखे। मैं आपसे सत्य कहती हूं..।’
ज्ञानचंद्र ने गोविंदी को और कुछ न कहने दिया। उसे हृदय से लगाकर बोले – ‘प्रिये, ऐसी बातों से मुझे दुःखी न करो। तुम आज भी उतनी ही पवित्र हो, जितनी उस समय थी, जब देवताओं के समक्ष मैंने आजीवन पत्नीव्रत लिया था। तब मुझसे तुम्हारा परिचय न था। अब तो मेरी देह और आत्मा का एक-एक परमाणु तुम्हारे अक्षय प्रेम में आलोकित हो रहा है। उपहास और निंदा की तो बात ही क्या है, दुर्दिन का कठोरतम आघात भी मेरे व्रत को भंग नहीं कर सकता। अगर डूबेंगे तो साथ-साथ डूबेंगे, तेरेंगे तो साथ-साथ तेरेंगे। मेरे जीवन का मुख्य कर्तव्य तुम्हारे प्रति है। संसार इसके पीछे बहुत पीछे है।’
गोविंदी को जान पड़ा, उसके सम्मुख कोई देव-मूर्ति खड़ी है। स्वामी में इतनी श्रद्धा इतनी भक्ति, उसे आज तक कभी न हुई थी। गर्व में उसका मस्तक ऊंचा हो गया और मुख पर स्वर्गीय आभा झलक पड़ी। उसने फिर कहने का साहस न किया।
संपन्नता अपमान और बहिष्कार को तुच्छ समझती है। उनके अभाव में ये बाधाएं प्राणांतक हो जाती है। ज्ञानचंद्र दिन-के-दिन घर में पड़े रहते। घर से बाहर निकलने का उन्हें साहस न होता था। जब तक गोविंदी के पास गहने थे, तब तक भोजन की चिंता न थी। किंतु जब यह आधार भी न रह गया, तो हालत और भी खराब हो गई। कभी-कभी निराहार रह जाना पड़ता। अपनी व्यथा किससे कहें, कौन मित्र था? कौन अपना था?
गोविंदी पहले भी हृष्ट-पुष्ट न थी, पर अब तो अनाहार और अंतर्वेदना के कारण उसकी देह और भी जीर्ण हो गई थी। पहले शिशु के लिए दूध मोल लिया करती थी। अब इसकी सामर्थ्य न थी। बालक दिन-पर दिन दुर्बल होता जाता था मालूम होता था, उसे सूखे का रोग हो गया है। दिन-के-दिन बच्चा खुर्रा खाट पर पड़ा माता को नैराश्य-दृष्टि से देखा करता। कदाचित उसकी बाल-बुद्धि भी अवस्था को समझती थी। कभी किसी वस्तु के लिए हठ न करता। उसकी बालोचित सरलता, चंचलता और क्रीड़ाशीलता ने अब एक दीर्घ, आशाविहीन प्रतीक्षा का रूप धारण कर लिया था। माता-पिता उसकी दशा देखकर मन-ही-मन कुढ़ कर रह जाते थे।
संध्या का समय था। गोविंदी अंधेरे में बालक के सिरहाने चिन्ता में मग्न बैठी थी। आकाश पर बादल छाए हुए थे और हवा के झोंके उसके अर्द्धनग्न शरीर में शर के समान लगते थे। आज दिन भर बच्चे ने कुछ न खाया था। घर में कुछ था ही नहीं। क्षुधाग्नि से बालक छटपटा रहा था, या तो रोना न चाहता था, या उसमें रोने की शक्ति ही न थी।
इतने में ज्ञानचंद्र तेली के यहां से तेल लेकर आ पहुंचे। दीपक के क्षीण प्रकाश में माता ने बालक का मुख देखा, तो सहम उठी। बालक का मुख पीला पड़ गया था और पुतलियां ऊपर चढ़ गयी थीं। उसने घबराकर बालक को गोद में उठाया। देह ठंडी थी। चिल्लाकर बोली – ‘हा भगवान् मेरे बचे को क्या हो गया?’ ज्ञानचंद्र ने बालक के मुख की ओर देखकर एक ठंडी सांस ली और बोले – ‘ईश्वर, क्या सारी दया-दृष्टि हमारे ही ऊपर करोगे?’
गोविंदी – ‘हाय! मेरा लाल मारे भूख के शिथिल हो गया है। कोई ऐसा नहीं, जो इसे दो घूंट दूध पिला दे।’
यह कहकर उसके बालक को पति की गोद में दे दिया और एक लुटिया लेकर कालिंदी के घर दूध मांगने चली। जिस कालिंदी ने आज छः महीने से इस घर की ओर ताका न था, उसी के द्वार पर दूध की भिक्षा मांगने जाते हुए उसे कितनी ग्लानि, कितना संकोच हो रहा था, वह भगवान के सिवा और कौन जान सकता है, यह वही बालक है, जिस पर कालिंदी प्राण देती थी, पर उसकी ओर से अब उसने अपना हृदय इतना कठोर कर लिया था कि घर में कई गाय लगने पर भी एक चिल्लू दूध न भेजा। उसी की दया-भिक्षा मांगने आज, अंधेरी रात में, भागती हुई गोविंदी दौड़ी जा रही है। माता! तेरे वात्सल्य को धन्य है।
कालिंदी दीपक लिए दालान में खड़ी गाय दुहा रही थी। पहले स्वामिनी बनने के लिए वह सौत से लड़ा करती थी। सेविका का पद उसे स्वीकार न था। अब सेविका का पद स्वीकार करके स्वामिनी बनी हुई थी। गोविंदी को देखकर तुरंत निकल आयी और विस्मय से बोली – ‘क्या है बहन, पानी-बूंद में कैसे चली आयीं।’ गोविंदी ने सकुचाते हुए कहा – ‘लाला बहुत भूखा है कालिंदी! आज दिन भर कुछ नहीं मिला। थोड़ा-दूध लेने आयी हूं?’
कालिंदी भीतर जाकर दूध का मटका लिये बाहर निकल आयी और बोली – ‘जितना चाहो, ले लो, गोविंदी! दूध की कौन कमी है? लाला तो अब चलता होगा? बहुत जी चाहता है कि जाकर उसे देख आऊं। लेकिन जाने का हुक्म नहीं है। पेट पालना है, तो हुक्म मानना ही पड़ेगा। तुमने बतलाया तो नहीं, नहीं तो लाला के लिए दूध का तोड़ा थोड़ा ही है। मैं चली क्या आयी कि तुमने उसका मुंह देखने को भी तरसा डाला। कभी पूछता है?
यह कहते हुए कालिंदी ने दूध का मटका गोविंदी के हाथ में रख दिया। गोविंदी की आंखों से आंसू बहने लगे। कालिंदी इतनी दया करेगी, इसकी उसे आशा नहीं थी। जब उसे ज्ञात हुआ कि यह वही दयाशीलता, सेवा-परायण रमणी है, जो पहले थी। लेश मात्र भी अंतर न था। बोली – ‘इतना दूध लेकर क्या करूंगी, बहन। इस लुटिया में डाल दो।’
कालिंदी – ‘दूध छोटे-बड़े सभी खाते हैं। ले जाओ, (धीरे) यह मत समझो कि तुम्हारे घर से चली आयी, तो बिरानी हो गई। भगवान् की दया से अब यहां किसी बात की चिंता नहीं है। मुझसे कहने भर की देर है। हां, मैं आऊंगी नहीं, इससे लाचार हूं। कल किसी बेला लाला को लेकर नदी किनारे आ जाना, देखने को बहुत जी चाहता है।’
गोविंदी दूध की हांड़ी लिए घर चली। गर्व पूर्ण आनंद के मारे उसके पैर उड़ें जाते थे। ड्यौढ़ी मैं पैर रखते ही बोली – ‘जरा दिया दिखा देना, यहां सुझाई नहीं देता। ऐसा न हो कि दूध गिर पड़े।’
ज्ञानचंद्र ने दीपक दिखा दिया। गोविंदी ने बालक को अपनी गोद में लेकर कटोरी से दूध-पिलाना चाहा! पर एक घूंट से अधिक कंठ में न गया। बालक ने हिचकी ली और अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी।
करुण रोदन से घर गूंज उठा। सारी बस्ती के लोग चौंक पड़े, पर जब मालूम हो गया कि ज्ञानचंद के घर से आवाज आ रही है, तो कोई द्वार पर न आया। रात भर भग्नहृदय दंपत्ति रोते रहे। प्रातःकाल ज्ञानचंद्र ने शव उठा लिया और शमशान की ओर चले। सैकड़ों आदमियों ने उन्हें जाते देखा, पर कोई समीप न आया।
