pavitrata
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स्निग्ध-गम्भीर स्वर से तमिल दिव्य-प्रबंधों का पाठ करके आचार्य रामानुज धीर-गम्भीर गति से मन्दिर की परिक्रमा कर रहे थे। तभी अकस्मात् एक चाण्डाल स्त्री उनके सम्मुख आ गयी। आचार्य श्री के पैर ठिठक गये। प्रबंध-पाठ खण्डित हो गया, मुँह से ये परुष शब्द फूट पड़े, “हट जा चाण्डालिन, मेरे मार्ग को अपवित्र न कर।” चाण्डाल स्त्री हटी नहीं, बल्कि हाथ जोड़कर पूछ बैठी, “स्वामी, मैं सरकूँ किस ओर? मेरे चारों ओर तो पवित्रता है। अपनी अपवित्रता ले भी जाऊँ तो किस ओर?”

आचार्य ने इन शब्दों को सुना, तो मानो कोई परदा उन्हें अपनी आँखों के सामने से हटने का आभास हुआ। श्रद्धावनत हो उन्होंने कहा, “माता, क्षमा करो। तुम सचमुच परम पावन हो। हम सबको अपने भीतर का मैल ही बाहर दिखाई देता है, किन्तु जो मनुष्य भीतर की पवित्रता से अपनी आँखों को आज लेता है, उसे अपने चहुँ ओर पावनता ही दिखाई देती है। माता, मेरा प्रणाम स्वीकार करो।”

ये कहानी ‘ अनमोल प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंAnmol Prerak Prasang(अनमोल प्रेरक प्रसंग)