panchtantra ki kahani घूम रहा है लोभ का विचित्र चक्र
panchtantra ki kahani घूम रहा है लोभ का विचित्र चक्र

किसी नगर में चार ब्राह्मण युवक रहते थे । वे ज्ञानी और योग्य थे । उन्होंने शास्त्रों का भी विधिवत अध्ययन किया था । पर गरीबी के कारण उन्हें बड़ा कष्ट झेलना पड़ रहा था । आसपास कहीं उनकी पूछ नहीं थी । हर जगह उन्हें दुत्कारा जाता । आखिर उन चारों मित्रों में से एक ने कहा, “भाई कब तक यह रोज-रोज का अपमान झेलोगे जिसके पास धन नहीं है, उसे तो एक दिन नहीं, रोज-रोज मरना है । धन न होने पर सारा ज्ञान और विद्वता बेकार है । लोग धनी होने पर मूर्ख की भी इज्जत करते हैं और उसकी खूब बढ़-चढ़कर तारीफ करते हैं, लेकिन अच्छे से अच्छे ज्ञानी से मुँह फेर -लेते हैं । आत्मीय मित्र, रिश्तेदार, यहाँ तक कि पत्नी और गुणग्राही लोग भी उस आदमी से दूर रहना चाहते हैं जिसके पास धन न हो । तो भला यह दुख और अभाव भरा जीवन हम कब तक बर्दाश्त करें? हमें विदेश जाकर ढेर सारा धन कमाकर लाना चाहिए जिससे हमारी भी कुछ हैसियत हो तथा लोग हमारा आदर और सम्मान करें ।”

बस, उसी समय चारों मित्र धन कमाने के लिए विदेश चले गए ।

चलते-चलते वे अवंती में पहुँचे । वहाँ शिप्रा नदी में स्नान करके उन्होंने महाकालेश्वर के दर्शन किए । लौटते समय उन्हें एक बूढ़े साधु बाबा दिखाई दिए । वे महायोगी थे । चारों ब्राह्मण युवकों ने उन साधु बाबा के चरणों में सिर नवाया और उनसे अपने दुख के निपटारे का मार्ग पूछा ।

इस पर साधु बाबा ने उन्हें चार मंत्र-सिद्ध बत्तियां दीं । कहा, “तुम ये मंत्र-सिद्ध बत्तियों ले जाओ और सीधे हिमालय पहाड़ की ओर चले जाओ । वहाँ बड़ी दुर्गम चढ़ाई है, पर तुम घबराना मत । बड़ा लक्ष्य रखने वालों को बड़े कष्ट भी झेलने पड़ते हैं । इसलिए तुम हिम्मत करके आगे बढ़ते जाना । हिमालय की बीच वाली चोटियों को पार करके जब तुम और ऊपर जाओगे तो वहाँ तुम्हें ढेर सारा खजाना मिलेगा । ये चार मंत्र-सिद्ध बत्तियाँ तुम्हारी मदद करेंगी । जहाँ कोई एक बत्ती गिर जाए वहाँ खुदाई करना तुम्हें अपार दौलत मिलेगी । उसे इकट्ठे करके ले जाना तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे ।”

चारों ने सोचा कि घर से निकल ही आए हैं तो अब दुर्गम चढ़ाई पर चढ़ने से भला क्यों डरें लिहाजा चारों ही हिमालय की ओर चल दिए । वहाँ बड़ी कठिन और दुर्गम चढ़ाई चढ़ते हुए वे चोटी की तरफ चलने लगे । अचानक एक ब्राह्मण के हाथ से एक मंत्र-सिद्ध बत्ती गिर गई । उसने चिल्लाकर अपने मित्रों को बताया, “सुनो सुनो, वह मंत्र-सिद्ध बत्ती यहाँ गिरी है, जरूर यहाँ खजाना है । आओ चारों मिलकर यहीं खुदाई करें ।”

चारों ने मिलकर वहाँ खुदाई की तो अंदर ढेर सारा तांबा मिला । पहले मित्र ने कहा, “यह तो ताँबे के बहुत बड़ी खान मालूम पड़ती है । जितना भी चाहें, हम यहाँ से ताँबा ले सकते हैं । अब तो हमारे जीवन में गरीबी नहीं रहेगी । तो भई अब आगे जाने की जरूरत ही क्या है? यहाँ ढेर सारा तांबा खोद करके क्यों न हम अपने अपने घर ले जाएँ?

इस पर बाकी तीनों मित्रों ने कहा, “नहीं भई तुम्हें तांबे से संतोष हो गया तो यह सारा ताँबा तुम्हीं ले लो । हम तो और आगे जाएँगे, जहाँ इससे भी और अच्छी-अच्छी बेशकीमती धातुएँ हमारा इंतजार कर रही हैं ।” कहकर बाकी तीनों मित्र आगे चल दिए । पहले मित्र ने ढेर सारा ताँबा खोदा और घर लौट गया । उसने घर जाकर ताँबे का व्यापार शुरू कर दिया । बाकी तीनों मित्र आगे की यात्रा पर चल पड़े । चलते-चलते अचानक-दूसरे मित्र की मंत्र-सिद्ध बत्ती एक जगह गिर गई । उसने उत्साहित होकर अपने मित्रों को भी बताया । तीनों मित्र रुककर खुदाई करने लगे । अंदर से ढेर सारी चाँदी निकली ।

दूसरे मित्र ने कहा, “मित्रो, लगता है कि यह चाँदी की बहुत बड़ी खान है । क्यों न हम यहाँ से ढेर सारी चाँदी लेकर लौटें । फिर तो हम सबकी दरिद्रता दूर हो जाएगी और धन के अभाव के कारण हमें कष्ट नहीं झेलने पड़ेंगे ।” इस पर बाकी दोनों मित्रों ने कहा, “नहीं भाई, यह चाँदी तुम्हें ही मुबारक हो । जितनी चाहे चाँदी खोदो और ले जाओ । हमें इसमें से कुछ नहीं चाहिए । हम तो आगे जा रहे हैं । यहाँ इससे भी अच्छी और बेशकीमती धातुओं के रूप में भाग्य हमारा इंतजार कर रहा है ।”

दूसरा मित्र ढेर सारी चाँदी लेकर घर लौटा और वहाँ पहुँचकर उसने चाँदी का व्यापार शुरू कर दिया । उसके जीवन में अब कोई दुख और अभाव नहीं रहा ।

बाकी दोनों मित्र आगे की चढ़ाई चढ़ने लगे । अचानक चलते-चलते तीसरे मित्र की भी मंत्र-सिद्ध बत्ती एक जगह गिरी । वहाँ खोदा गया तो ढेर सारा सोना मिला । उसे देखकर उसने उल्लास से कहा, “बस-बस, अब आगे जाने की जरूरत नहीं है । हम कोई धन के लोभी तो हैं नहीं, हम तो ब्राह्मण कुमार हैं, ज्ञानी और विद्वान हैं । धन हमें इसलिए चाहिए था, ताकि कोई बिना बात हमारा अपमान न करे । और हमें ढेर सारा धन मिल जाए तो भला हमें आगे जाने की क्या जरूरत है?”

लेकिन चौथा मित्र बोला, “भाई भला धन का अर्थ केवल धन ही नहीं है । धन से प्रतिष्ठा भी मिलती है और प्रतिष्ठा का कोई अंत नहीं है । तो फिर, धन की सीमा कैसे हो सकती है? मैं तो इस सोने से संतुष्ट नहीं हूँ और आगे चलकर इससे भी बेशकीमती कोई चीज लेकर आऊँगा । शायद मेरा भाग्य मुझे तुम तीनों से ज्यादा और कुछ अधिक ही बढ़-चढ़कर देना चाहता है । तो फिर मैं उस भाग्य की बात मानकर ही आगे की चढ़ाई चढ़ना शुरू करता हूँ ।”

तीसरे मित्र ने बहुत समझाया, “भाई आगे मत जाओ । यहाँ ढेर सारा अकूत सोना है । उसे ढोकर ले जाने वाले लोग भी यहाँ मिल जाएंगे । आगे पता नहीं निर्जन में कोई मिलेगा भी कि नहीं? तो फिर आगे जाने से फायदा? मेरी मानो तो यहीं से लौट चलो ।”

लेकिन इस पर चौथे ने व्यंग्य से हँसते हुए कहा, “शायद तुम मेरी समृद्धि देख नहीं सकते, इसलिए ऐसा कह रहे हो । मुझे तो आगे जाना ही है । यहाँ भाग्य मुझे इससे भी कुछ मूल्यवान सौंपने के लिए मेरी प्रतीक्षा कर रहा है ।” आखिर चौथा युवक अकेला ही आगे की चढ़ाई के लिए निकल पड़ा । जब चौथा मित्र आगे दुर्गम पहाड़ की चढ़ाई पर चढ़ रहा था, तो उसे सब ओर निर्जन ही निर्जन दिखाई पड़ा । देखकर उसे अजीब लगा । अचानक एक जगह उसे एक आदमी दिखाई जिसका सारा शरीर तो जमीन के अंदर गड़ा हुआ था, सिर्फ सिर बाहर था और उस पर एक चक्र घूम रहा था ।यह देखकर उस चौथे ब्राह्मण कुमार से रहा नहीं गया । वह उस व्यक्ति के पास जाकर बोला, “अरे भाई, यह क्या हुआ?”

और यह कहते ही वह चक्र जो उसे व्यक्ति के सिर पर घूम रहा था, अब अचानक चौथे ब्राह्मण के सिर पर घूमने लगा ।

यह देखकर वह बड़ा घबराया । भौचक्का होकर बोला, “अरे-अरे यह क्या…? यह क्या माजरा है भाई?”

यह सुनकर उस व्यक्ति ने मुसकराते हुए कहा, “मैं यह क्या जा! मुझे तो सिर्फ इतना पता है कि मैं यहाँ हजारों बरस पहले तुम्हारी तरह हर अकूत धन की आशा में आया था । वह भगवान रामचंद्र जी का समय था । तब यह चक्र किसी और व्यक्ति के सिर पर घूम रहा था और मैं यहाँ आया तो मेरे सिर पर घूमने लगा । अब यह तुम्हारे सिर पर घूमने लगा है । मैं तो अब मुक्त होकर घर जा रहा हूँ । तुम चाहो तो हजारों बरस तक यहीं रहो । यहाँ सचमुच अकूत खजाना है, लेकिन तुम उसे घर नहीं ले जा पाओगे, क्योंकि यह विभिन्न चक्र हर वक्त तुम्हारे सिर पर घूमता रहेगा ।

कहकर वह व्यक्ति आगे चला गया ।

अब चौथा युवक बार-बार अपने आपको धिक्कार रहा था कि हाय-हाय, अपने लोभ के कारण मैं कहाँ आ गया? वह अपनी पत्नी और बच्चों से मिलना चाहता था, सबसे प्रेम से बातें करना चाहता था । सबके साथ मिलकर घूमना-फिरना चाहता था । पर सिर पर घूमते चक्र के कारण वह कहीं नहीं जा सकता था । हाँ, यहाँ आसपास अकूत धन था । पर वह उसके लिए बिल्कुल बेकार था ।

अफसोस, चौथा युवक अपने लोभ के कारण, अब एकदम निर्जन में आ पड़ा था, जहाँ उससे दो बातें करने वाला भी कोई न था । सिर पर घूमते चक्र के कारण न उसे भूख लगती थी, न प्यास और न वह कुछ सोच ही पाता था । धीरे-धीरे उसकी हालत एकदम पागलों जैसी हो गई, जो बस हर वक्त सिर धुनता, रोता और पछताता रहता था ।