जब से घुमक्कड़राम ने अपने मित्र डॉ. जयंत भास्करन से मन्ना यानी मशहूर वैज्ञानिक मानवेंद्र आनंद का किस्सा सुना है, उन्हें जरा भी चैन नहीं है। वे घुमक्कड़ी करते रोज कहीं से कहीं पहुँच जाते हैं। पर जहाँ भी जाएँ, वहाँ वे किसी न किसी बढ़िया श्रोता को ढूँढ़कर मन्ना उर्फ डॉ. मानवेंद्र आनंद का यह अनोखा किस्सा जरूर सुनाते हैं। उनके तुन-तुन-तुन इकतारे पर खुले आलाप के साथ बजता नया किस्सा, ‘मन्ना रे, मत तोड़ो फूल…!’ आप समझ ही सकते हैं, सुनने वालों को कैसा आनंद आता होगा। मगर उससे भी कई गुना आनंद खुद घुमक्कड़राम के चेहरे पर दिप-दिप कर रहा होता है। सुनाते हुए कई बार उनका गला भर आता है, तो न चाहते हुए भी उन्हें कथा बीच में ही रोक देनी पड़ती है। फिर बड़ी मुश्किल से उन्हें आगे की कथा सुनाने के लिए तैयार करना पड़ता है। एक दिन मुझे भी सुबह – सुबह घर आकर उन्होंने मन्ना का यह दिलचस्प किस्सा सुनाया था। वह दिन मेरे जीवन के सबसे यादगार दिनों में से है। एकदम भोर वेला में ही अपना तुन-तुन-तुन बाजा बजाते हुए वे अचानक कहीं से प्रकट हो गए थे।
और आते ही उन्होंने मेरे मुँह पर पड़ा लिहाफ उठाते हुए कहा, “अरे चंदू भाई, नींद छोड़ो और यह किस्सा सुनो। बड़ा ही अनोखा किस्सा है। और हाँ, एकदम सच्चा भी…!” सुबह की हवा अच्छी थी, पर सुबह – सुबह अचानक घुमक्कड़राम का यों चले आना इससे भी अच्छा। तो मैंने झटपट लिहाफ को परे फेंका। जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोए और घुमक्कड़राम का किस्सा सुनने के लिए तैयार हो गया। मन में उत्सुकता ऐसी, जैसे कोई जादूगर नया करिश्मा दिखाने वाला हो, तिन्नक… तिन्नक, तिन्न…!! सच बताऊँ, खूब लंबी सफेद दाढ़ी और शानदार कनटोपे में घुमक्कड़राम को पिछले चालीस बरसों से देखता आ रहा हूँ। उनके जगविख्यात तुन-तुन बाजे के साथ, जिस पर घुमक्कड़राम की उँगलियाँ नाचती हैं, तो कहते हैं, वह तुन-तुन बाजा जिंदा हो जाता है। सचमुच जिंदा…! और उससे ऐसे-ऐसे कमाल के सुर निकलते हैं कि सुनते-सुनते कब, कौन कहाँ से उड़कर कहाँ पहुँच जाए, पता ही नहीं। एक-एक कर बरसों बीत गए, पर घुमक्कड़राम की यह धज जरा भी नहीं बदली और न उनकी मस्ती का आलम, तुन-तुन-तुन बाजा और किस्सों का अपरंपार खजाना…! पिछले चालीस बरसों से देख रहा हूँ, घुमक्कड़राम के पास एक मैला, पुराना खादी का झोला है। सदियों पुराना। उसमें वे हाथ डालते हैं तो झट कोई नया किस्सा निकल आता है। और फिर वे सुनाने पर आते हैं तो न आपको अपना होश रहता है और न समय का।… तो अलबत्ता, अब घुमक्कड़राम थे, मैं था और किस्सा…! घुमक्कड़राम के उस किस्से के साथ कहाँ से उड़ता – उड़ता मैं कहाँ पहुँचा, क्या बताऊँ? लग रहा था, किस्सा सुनते-सुनते मेरे भी पर उग आए हैं। वाकई मन्ना का यह अजब – गजब किस्सा सुनकर लगा था, कि मन्ना उर्फ डॉ. मानवेंद्र का किस्सा ही मैंने उनसे नहीं सुना। खुद उससे जाकर मिल भी आया हूँ। शायद इसीलिए घुमक्कड़राम के उस किस्से को मैं आज तक भूल नहीं पाया। लीजिए, आप भी सुनिए फूल तोड़ने वाले बच्चे का यह अनोखा किस्सा…और थोड़ा फूलों में छिपे आँसुओं से भी मिल लीजिए! * एक थे डॉ. जयंत भास्करन। खासे पढ़े-लिखे थे, यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैड थे वनस्पतिशास्त्र के। सिविल लाइंस पर खूब बड़ी कोठी थी उनकी। कोठी में खूब बड़े-बड़े लॉन। उनमें चारों ओर बड़े करीने से बनाई गई क्यारियाँ। कुछ गोल, कुछ आयताकार। क्यारियों में एक से एक हरियाले पेड़-पौधे, फूल। बहुत से दुर्लभ पेड़-पौधे भी। फिर हर मौसम में उस मौसम के खास-खास फूल, पौधे। एक ओर तरह-तरह के कैक्टस तो दूसरी ओर चंपा, चमेली, बेला और मोगरा के खुदर – खुदर हँसते शरारती फूल। कनेर, हरसिंगार, गुलमोहर और अमलतास भी। डॉ. जयंत भास्करन की कोठी हमेशा मह – मह करती रहती। बहुत खुश थे वे, कि उनके पास प्रकृति का इतना बड़ा खजाना है। वनस्पति विज्ञानी थे, प्रकृति से अथाह प्रेम था। यही उनका पढ़ने-पढ़ाने का विषय भी था। तो उनका रिसर्च का काम भी साथ ही साथ चलता रहता। इसीलिए जब भी मन में कोई नया विचार आता, वे न दिन देखते, न रात। उठकर बैठ जाते और झट अपनी छोटी सी प्रयोगशाला में पहुँच जाते, जिसमें एक से एक नायाब सूक्ष्मदर्शी और न जाने कौन-कौन से उपकरण थे। और प्रयोगशाला में पहुँचते ही उनके अध्ययन का सिलसिला चल पड़ता। पर इधर डॉ. जयंत के साथ जाने क्या गड़बड़ हो रही थी? रोजाना वे देखा करते थे कि सुबह कोई पाँच-छह बजे उनकी बाहर वाली क्यारी में थोड़ी हलचल सी मचती है।
जल्दी-जल्दी ढेर सारे चाँदनी के फूल तोड़े जाते हैं, थोड़े अनाड़ी ढंग से। आसपास के पौधे हिलते हैं, कुछ टूट भी जाते हैं। जमीन पर यहाँ-वहाँ बिखरी टूटी डालियाँ। जैसे अपनी किस्मत पर विलाप कर रही हों। डॉ. भास्करन समझ गए, जरूर यह किसी शरारती लड़के का काम होगा। पर एक बात उनकी समझ में नहीं आई, इतनी सुबह – सुबह क्यों चला आता है वह दुष्ट लड़का? … आखिर इतनी सुबह वह उठ कैसे जाता होगा? तो भी मुसीबत तो मुसीबत थी ही न। डॉ. भास्करन को भी सुबह – सुबह उठकर काम करने की आदत थी। अपने पढ़ने के कमरे से कभी-कभी वे झाँक लिया करते थे कि शायद उस शरारती लड़के की एक झलक दिखाई दे जाए तो उसे सबक सिखाया जाए। पर वह लड़का किसी आफत से कम न था। अकसर वह प्रचंड आँधी- तूफान की तरह आता। और थोड़ी सी देर में तबाही मचाकर आँधी-तूफान की तरह ही चला भी जाता। उसके बाद देर तक डॉ. भास्करन का मन अशांत रहता। वे अपनी छोटी सी प्यारी बगीची के नुचे हुए पेड़-पौधों को देखते तो तड़पकर रह जाते, “उफ, कैसा जंगली लड़का! शरारती तो बहुत देखे, पर ऐसा दुष्ट…?” न-न, दुष्ट नहीं, महादुष्ट…! “अब के यह आया तो पकड़कर कमरे में बंद करना होगा और फिर पुलिस को फोन… कि देखिए जी, एक हत्यारा पकड़ में आया है, फूलों का हत्यारा….!!” डॉ. भास्करन ने मन ही मन फैसला कर लिया था। और फिर एक रात ऐसी भी आई कि वे बिल्कुल सो नहीं पाए। लग रहा था, उनकी बगीची के फूल, पेड़-पौधे सब मिलकर उनसे सिसकते हुए कह रहे हैं, “कुछ कीजिए डॉ. भास्करन, कुछ कीजिए। आप तो यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं तो पुलिस आपकी बात जरूर सुनेगी। इस दुष्ट लड़के का कुछ कीजिए, वरना तो यह ऐसी तबाही मचा देगा कि आप से वह देखी न जाएगी।” “बात तो ठीक ही है…!” डॉ. भास्करन मन ही मन गुन-सुन करते हुए सोच रहे थे। वे सोचते रहे, सोचते रहे और पूरी रात गुजर गई। … आखिर सुबह पाँच बजते ही वे झट से उठे और गेट के पास पहुँच गए। वहीं पास में कुरसी डालकर बैठ गए। पास में एक मोटा डंडा भी। अभी शायद पाँच-सात ही मिनट हुए होंगे कि जोर से ‘धप्प…’ की आवाज! और उसके साथ ही चाँदनी की दो-एक डालियाँ जैसे कड़कीं। कराहीं। नाजुक पौधों की धीमी सी सिसकी और पुकार। बगिया के फूलों का एक साथ क्रंदन, “लो, आ गया वह शैतान। वही दुष्ट, महादुष्ट जो…!” वह लड़का गेट के ऊपर चढ़कर अंदर कूदा था और उसका रोज का तबाही का खेल अभी शुरू होना ही था कि अचानक सामने कुर्सी पर बैठे डॉ. भास्करन पर उसकी नजर पड़ी। देखा, उनके पास एक मोटा सा डंडा भी रखा है। वह बुरी तरह घबरा सा गया। डॉ. भास्करन की भी अजीब हालत। चोर सामने था। भले ही वह छोटा ही हो, पर चोर तो चोर ही था। उन्हें इतना गुस्सा आ रहा था कि अभी उसे ले जाकर भीतर वाली कोठरी में बंद कर दें और पुलिस की तरह डंडा हिलाते हुए पूछें कि रोज-रोज इतनी तबाही करने वह क्यों आ जाता है? इसकी इतनी हिम्मत…? उनका गुस्सा जैसे काबू से बाहर हो गया था। आखिर यही तो वह बदमाश लड़का था, जिसकी वजह से वे पूरी रात सो नहीं पाए थे। एक पल भी। घड़ी की टिक-टिक की तरह उनके भीतर भी विचार पर विचार चल रहा था कि इस दुष्ट और शरारती लड़के पर कैसे काबू पाया जाए। … कैसे? पर अब…? उन्होंने देखा कि यह लड़का तो वैसा नहीं है, जैसी उन्होंने कल्पना की थी। लड़का बुरी तरह घबराया हुआ था। इस कदर कि वह रोने- रोने को हो रहा था। दोनों हाथ जोड़कर, बुरी तरह हकलाते हुए कह रहा था, “नहीं, नहीं… अंकल, आप मुझे मत मारना…! मत मारना, अंकल। प्लीज अंकल, प्लीज…!” और अगले ही पल दो लफ्जों में उसने फूल तोड़ने की अपनी पूरी कहानी ही बता दी, “सॉरी अंकल, मैंने मजबूरी में फूल तोड़े। मम्मी और दादी जी को माला बनानी थीं न। तो आप मुझे मत मारना अंकल… प्लीज! कल से मैं बिल्कुल फूल नहीं तोडूंगा…!” अचानक जाने क्या हुआ डॉ. भास्करन चुप। एकदम चुप। अवाक्। जैसे भीतर से पिघल गए हों। उनका गुस्सा जैसे पानी हो गया था। वे धीरे से चलकर आगे आए। उस बच्चे के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “अरे बेटा! तुम रोज-रोज इतने फूलों का क्या करते हो?” इस पर उस लड़के की सिसकियों के बीच एक अजब सी कहानी पता चली। बड़ी ही दुख – दर्द भरी कहानी। लड़के ने बताया कि उसका नाम मन्ना है और वह अपने दादा जी के लिए फूल लेकर जाता है। उसकी मम्मी, दादी और दादा जी भी फूल तोड़ने जाते हैं। फिर मम्मी और दादी जी उन फूलों की मालाएँ बनाती हैं और बूढ़े दादा जी एक मंदिर के बाहर बैठकर उन्हें बेचते हैं। “और पापा…! तुम्हारे पापा नहीं हैं?” डॉ. जयंत भास्करन ने पूछा। “नहीं बाबू जी, वे कलकत्ता गए हैं नौकरी करने, बहुत दिनों से आए नहीं। इसीलिए तो मेरी पढ़ाई भी बंद है। और अब तो बस फूल, मालाएँ…! कुछ पैसे आ जाते हैं। उसी से गुजारा होता है।” सुनकर डॉ. भास्करन ने एक क्षण सोचा। फिर शांत चित्त से कहा, “देखो मन्ना, ये फूल तुम्हारे हैं। जब भी मर्जी हो, सुबह-शाम तुम तोड़ सकते हो। बस, यह जरूर देखना कि पौधों को कोई नुकसान न हो। और हाँ, सुनो, फूल ही तोड़ना, कलियाँ नहीं।” “ठीक है बाबू जी।” कहते-कहते बच्चे की आँखों में चमक आ गई। उसके बाद तो मन्ना का रोज का ही नियम बन गया। आते ही ‘राम-राम बाबू जी’ कहकर अपने काम में लग जाता। एक बड़ी सी टोकरी में जितने फूल बीन सकता, बीनकर डाल लेता और ले जाता। * एक दिन बातों-बातों में डॉ. भास्करन को पता चला कि मन्ना छठे दर्जे तक पढ़ा है। आगे फीस न दे पाने की वजह से उसने पढ़ाई छोड़ दी। कुछ सोचकर उन्होंने कहा, “क्यों बेटा, मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा तो पढ़ोगे? पढ़ने के लिए किताबें – कॉपियाँ भी मैं ही दूँगा। कोई फीस भी नहीं देनी होगी।” सुनकर मन्ना खुश हो गया। अगले दिन डॉ. जयंत भास्करन ने उसे बच्चों की दो-चार रंग-बिरंगी किताबें और पत्रिकाएँ दीं। कहा, “मन्ना, इन्हें पढ़ना और फिर पढ़कर बताना। फिर इस पर बात भी करेंगे।” अब मन्ना रोजाना एक – दो किताबें ले जाता। उन्हें पढ़कर वापस कर देता और फिर नई किताबें ले जाता। लग रहा था, किताबों से उसकी दोस्ती हो गई है। जल्दी से किताब पूरी करके नई किताब लेने की उसकी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।
देखकर डॉ. भास्करन को भी अच्छा लगता। वे बीच-बीच में उसकी पढ़ी हुई किताब के बारे में भी कुछ सवाल पूछ लेते। और बताते हुए नन्हे मन्ना की आँखों में जो चमक आती, उससे खासे आनंदित होते। डॉ. भास्करन खेल-खेल में उसे आसपास की दुनिया और ज्ञान की ढेरों बातें भी बताते। मन्ना को अच्छा लगता। वह इस तरह आँखें टिकाए सुनता, जैसे ज्ञान-विज्ञान की ये बातें भी किस्से-कहानियों से कम नहीं। डॉ. भास्करन हँसकर कहते, “देखो मन्ना, ये किताबें पढ़ोगे तो तुम्हारी आँखें खुलेंगी। दुनिया को जानोगे। अपनी धरती और आकाश को जानोगे। धीरे-धीरे तुम्हें पता चलेगा कि ये जीवन की सच्ची कहानियाँ हैं। … तब तुम्हें समझ में आएगा कि घास की एक पत्ती की भी अपनी कहानी है। एक फूल, एक पौधे, एक पेड़ की भी। यहाँ तक कि मिट्टी के एक ढेले की भी। एक बीज कैसे इतना बड़ा पेड़ बन जाता है, कहाँ से वह खाना लेता है, कहाँ से पानी, कैसे वह तमाम मुसीबतों से लड़ता है, यह खुद में एक कहानी है। एक नन्ही सी कली कैसे इतना सुंदर फूल बन जाती है और फूल बनकर पहली बार जब वह आँखें खोलती है तो उसे कैसा लगता है, यह भी अपने आप में एक कहानी है।…” कहते-कहते डॉ. भास्करन की आँखें चमकने लगतीं। हुलसकर कहते, “जैसे-जैसे तुम सोचोगे, तुम्हें अपने आसपास की हर चीज कुछ कहती नजर आएगी। लगेगा, हर चीज का अपना आनंद है।… मन्ना, तुम उस आनंद से आनंदित होना सीखो। तभी तुम बड़े होकर फूल विज्ञानी बन सकते हो। फूलों का भी अपना विज्ञान है, उसे तुम सीखोगे तो बहुत मजा आएगा। फिर आगे चलकर तुम नए-नए आविष्कार भी कर सकते हो।… क्यों, तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा?” मन्ना को डॉ. भास्करन की बातें ऐसी लगतीं, जैसे आसमान से कोई फरिश्ता बोल रहा हो। फूलों पर शोध में लगे डॉ. भास्करन तो हर वक्त सपने में खोए रहते। वही सपना अब नन्हे मन्ना की आँखों में भी उतरने लगा था। उसकी आँखों में आई चमक अकसर उसके मन की बात कह देती, “हाँ-हाँ, मैं ऐसा ही करूँगा। … मैं ऐसा ही करूँगा डॉ. भास्करन। आखिर अब मैं वह फूल तोड़ने वाला लड़का तो नहीं कि….!” मन्ना से बातें करने में डॉ. जयंत भास्करन को अच्छा लगता। लगता, इसमें जानने और पढ़ने की ललक तो है। अगर इसे ठीक-ठीक मौका मिले तो बहुत कुछ कर सकता है। पर क्या यह बात इसके घर के लोगों से कही जाए? इसके दादा-दादी जी से, मम्मी से…? पापा घर पर नहीं हैं तो आखिर यही लोग तो निर्णय लेंगे। डॉ. भास्करन सोचते रहे, सोचते रहे। फिर कुछ दिन बाद उन्होंने मन्ना से कहा, “मन्ना, मुझे अपने घर नहीं ले जाओगे?” सुनते ही मन्ना की आँखों में खुशी झलकने लगी। बोला, “चलिए ना, चलिए अंकल, अभी चलिए।” और मन्ना की उँगली पकड़कर डॉ. भास्करन उसके घर जा पहुँचे। एक कमरे का छोटा सा घर। वहाँ फर्श पर चादर बिछाकर बैठा पूरा परिवार। धीरे-धीरे आपस में बतियाता हुआ। एकदम विपन्न हालत। सामान के नाम पर बस तीन-चार टोकरियाँ और मालाएँ बनाने का जरूरी सामान, जिसके सहारे घर चल रहा था। मन्ना के साथ किसी पढ़े-लिखे सम्मानित सज्जन को देख, दादा जी चौंके। एकाएक खड़े होकर बोले, “आप…?” “मैं भास्करन…!” डॉ. जयंत भास्करन ने अपना परिचय देते हुए कहा, “यूनिवर्सिटी में बौटेनी का प्रोफेसर हूँ। मन्ना मेरे पास बैठता है तो बड़ी-बड़ी बातें करता है। इसकी बातें मुझे बड़ी अच्छी लगती हैं, जहीन भी है। जो भी बताओ इसे, झट याद हो जाता है। तो आप इसे स्कूल क्यों नहीं भेजते…?” इस पर उस घर की जो सच्चाई सामने आई, उससे डॉ. भास्करन तो जैसे अवाक् रह गए। पता चला कि घर के सारे प्राणी मेहनत करते हैं, पर सब दिन फूल मालाएँ बनाकर बेचने से इतने पैसे भी नहीं आते कि सूखी दाल-रोटी का भी इंतजाम हो जाए। कई बार तो भूखे ही पूरा-पूरा दिन…! तो ऐसे में मन्ना की स्कूल की पढ़ाई की तो बात ही क्या…? “ओह…!” सुनकर डॉ. भास्करन को लगा, दुनिया का एक और रूप भी है, जिसकी अभी तक उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। “और मन्ना के पापा…? इसने बताया कि वे कलकत्ता गए हैं। वे भी तो वहाँ से कुछ भेजते होंगे…?” डॉ. भास्करन ने पूछ लिया। पर उनकी बात पूरी होते-होते पूरा घर आँसुओं के समंदर में डूब जाएगा, यह उन्होंने कब सोचा था? पता चला कि मन्ना के पापा नहीं हैं। डेढ़-दो बरस हुए, उन्होंने आत्महत्या कर ली। जिस कंपनी में वे काम करते थे, वहाँ छँटनी हुई। काम से निकाल दिया गया। फिर इधर-उधर हर जगह काम खोजा।… छोटा- बड़ा कोई भी काम। घर के हालात का उन्हें पता था। हर वक्त मन में चिंता रहती। पर अब तो खुद उनका अपना गुजारा भी नहीं हो रहा था। तो ऐसे में क्या वे घर पर बोझ बनें? उन्होंने यहाँ वहाँ भाग-दौड़कर हर जगह काम खोजा और जब कहीं नहीं मिला तो एक दिन रेल के नीचे कटकर … “मन्ना को अभी तक नहीं बताया। उसे तो बस यही कहा है कि… तेरे पापा जल्दी आएँगे। पर अब तो…” कहते-कहते मन्ना की दादी की जो हालत थी, वह देखी नहीं जा रही थी। सुनकर डॉ. भास्करन की आँखों में भी आँसू छलछला उठे। बड़ी मुश्किल से उन्होंने खुद को सँभाला। “आप मन्ना को शाम के समय मेरे पास भेज दिया कीजिए। जो मुझसे हो सकेगा, जरूर करूँगा। मैं इसे पढ़ाऊँगा। लड़का जहीन है, यह जीवन में जरूर आगे निकलेगा! आप… आप इसकी पढ़ाई मत रोकना। मेरी बस आपसे इतनी गुजारिश है।” कहकर भास्करन उठे तो पूरे घर ने आदर से उन्हें विदा किया। और भला कोई आतिथ्य वे कर ही क्या सकते थे? * भास्करन घर आए तो सोच रहे थे, मन्ना का परिवार गरीब है, पर संस्कारी है। और मन्ना…? इसमें प्रतिभा है। इसे आगे लाना ही होगा। कोई फूल कुसमय मुर्झा जाता है तो मुझे दुख होता है। मन्ना भी तो एक खिला-खिला सा हँसमुख फूल है। जीवित फूल। इसे मुर्झाना नहीं चाहिए। अगले दिन से ही डॉ. भास्करन ने मन्ना को घर पर ही गणित और साइंस पढ़ाना शुरू कर दिया, ताकि उसकी पिछली छूटी हुई पढ़ाई फिर से लाइन पर आ जाए। बाकी विषयों में तो वह होशियार था ही। जब डॉ. जयंत भास्करन को लगने लगा कि अब मन्ना के आगे कोई मुश्किल नहीं आएगी, तो वे उसे अपने साथ स्कूल ले गए। स्कूल के प्रिंसिपल से मिले और फीस जमा करके मन्ना का दाखिला करा दिया। मन्ना के अंदर पढ़ने की इतनी गहरी ललक थी कि जब उसे नई किताबें-कॉपियाँ, बस्ता मिला तो उसे लगा, वह एक नई दुनिया में पहुँच गया है। तिमाही इम्तिहान में उसके खासे अच्छे नंबर आए। और सालाना इम्तिहान में तो वह पूरी क्लास में तीसरे नंबर पर रहा। मन्ना का रिजल्ट कार्ड देखकर डॉ. जयंत भास्करन बेहद खुश थे। और मन्ना के दादा जी तो ऐसे पुलकित थे कि खुद डॉ. जयंत भास्करन के घर धन्यवाद करने पहुँच गए। होते-होते मन्ना ने हाईस्कूल का इम्तिहान भी बहुत अच्छे नंबरों से पास किया। वह फर्स्ट आया और उसे वजीफा मिलने लगा। पर अब भी वह सुबह – सुबह दादा जी की फूल मालाओं के लिए फूल तोड़ने का काम करता था। * डॉ. जयंत ने मन्ना को बुलाकर कहा, “देखो मन्ना, अब तुम्हें फूल तोड़ने की जरूरत नहीं है। तुम घर का छोटा-मोटा काम कर दिया करो और यहीं रहो। पढ़ते रहो और छोटा-मोटा काम भी करो। क्यारी की सफाई का काम भी तुम कर सकते हो। चार हजार रुपए महीना मैं तुम्हारे दादा जी को देता रहूँगा। यों तुम्हारे घर का गुजारा होता रहेगा और तुम आराम से पढ़ना।” उस दिन से मन्ना ने डॉ. जयंत भास्करन की क्यारी को सँवारने का जिम्मा ले लिया। खाद और बीज की जानकारी डॉ. भास्करन ने उसे दी। किस मौसम में किस पौधे में कौन सी खाद डालनी चाहिए, कैसे पौधे की देखभाल करनी चाहिए? डॉ. जयंत भास्करन सब बताते। फिर मन्ना और डॉ. भास्करन मिलकर क्यारी की निगरानी करते। पानी देते, पौधों की कटाई – छँटाई और सफाई करते। डॉ. भास्करन की क्यारी में अब खूब फूल खिलते। चारों ओर फूलों की उजली हँसी नजर आने लगी। क्यारी की सफाई और दूसरे काम करते हुए भी डॉ. भास्करन मन्ना को बीच-बीच में फूल और पौधों के बारे में जरूरी जानकारी देते जाते। किस फूल का वैज्ञानिक नाम क्या है? फूलों में कैसी-कैसी बीमारियाँ हो जाती हैं और अच्छी तरह देखभाल करें तो फूल भी कैसे नटखट बच्चों की तरह खुशी से चहकते और किलकारी मारकर हँसते हैं। डॉ. भास्करन बताते तो मन्ना बस उन्हें देखता ही रह जाता। उसे लगता, डॉ. भास्करन तो जैसे फूलों से बातें करते हैं। काश, मैं भी यह कला सीख जाऊँ। डॉ. जयंत भास्करन के घर की छोटी सी प्रयोगशाला उसे आकर्षित करती थी। वहाँ डॉ. भास्करन अकसर अपने प्रयोगों में मदद के लिए उसे बुला लेते। साथ ही बातों-बातों में वनस्पति विज्ञान के बहुत से गूढ़ रहस्य भी बताते। सुनकर मन्ना चकित हो उठता। मन ही मन कहता, “मैं भी बड़ा होकर डॉ. भास्करन की तरह बड़ी-बड़ी खोजें करूँगा। मेरा भी बहुत नाम होगा। … अपनी मम्मी और दादा-दादा जी को तब मैं कोई काम नहीं करने दूँगा।” डॉ. भास्करन कई तरह के प्रयोग करके पौधों की किस्में सुधारने के काम में लगे थे। इसमें मन्ना भी उनका सहायक हो गया। * अब डॉ. भास्करन ने मन्ना के घर का सारा भार सँभाल लिया था। उनकी कोठी में ऊपर का हिस्सा खाली था। वे मन्ना के घर गए और उसके दादा जी से बोले, “मुझे मन्ना की मदद की हर वक्त जरूरत रहती है। रात-बिरात मेरा रिसर्च का काम चलता है। तो मैं चाहता हूँ कि मन्ना अब रात-दिन मेरे साथ ही रहे। पर अकेला मन्ना नहीं। आप सब भी अब मेहरबानी करके मेरे घर में ही रहें। ईश्वर का दिया सब कुछ है। कोठी का ऊपर का हिस्सा पूरी तरह खाली है। आप लोग वहीं आकर रहें। घर में जो खाना बनेगा, सब मिलकर खाएँगे। खाने – कपड़े या किसी और चीज की अब आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है। मन्ना को मैंने बेटा मान लिया है। तो आप सब भी तो मेरे अपने ही हुए…!” भास्करन बोल रहे थे तो उनका स्वर काँप रहा था। आज पहली बार उन्होंने वह सब कहा था, जो बरसों से सपने की तरह उनकी आँखों में टिम – टिम कर रहा था। मन्ना की मम्मी और दादा-दादी बड़े संकोच में थे। उन्हें लग रहा था कि डॉ. भास्करन के इस अहसान को वे कैसे उतार पाएँगे? इस पर भास्करन बहुत विनम्र होकर बोले, “अहसान मेरा नहीं, अहसान आपका मुझ पर है। आपने मुझे मन्ना जैसा जहीन बेटा दे दिया, जिसकी मदद के बिना मैं कुछ नहीं कर सकता। इससे बड़ा अहसान तो और क्या हो सकता है? और फिर आप लोग मेरे साथ ही रहेंगे तो मन्ना को आगे अपनी पढ़ाई-लिखाई में भी मदद मिलेगी।” बात मन्ना के दादा जी को समझ में आ गई। उन्होंने समझाया तो मन्ना का पूरा परिवार डॉ. भास्करन की कोठी के पहले तल्ले पर आकर रहने लगा। बहुत मुसीबतों के बाद जैसे अब जीवन शुरू हुआ था। मन्ना भी अब डॉ. भास्करन से निर्देशन लेकर रात – दिन काम में जुटा रहता। आखिर उसकी मेहनत रंग लाई।
वनस्पति विज्ञान में एम.एससी. करने के बाद उसने पीएच. डी. की। अब वह उसी कॉलेज में लेक्चरर बनकर पढ़ाने लगा है, जिसमें डॉ. जयंत भास्करन वनस्पति विज्ञान के विभागाध्यक्ष थे। कुछ समय बाद डॉ. भास्करन सेवामुक्त हुए, तो उनके अधूरे कामों को पूरा करने का जिम्मा मन्ना ने उठाया। मन्ना अब डॉ. मानवेंद्र आनंद बन गया है। पर अकसर वह छात्रों को अपनी कहानी सुनाया करता है। एक फूल तोड़ने वाले लड़के की कहानी, जो डॉ. भास्करन की वजह पेड़-पौधों और वनस्पतियों का प्रोफेसर बन गया। कहते-कहते उसकी आँखों में डॉ. भास्करन के लिए जो आदर छलछला रहा होता, उसे देखकर सबकी आँखें नम हो जातीं। आजकल डॉ. मानवेंद्र को बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय सेमिनारों में बुलाया जाता है। हर जगह उसका बड़ा मान-सम्मान होता है। पर वह हर जगह एक ही बात कहता है, “मैं जो कुछ भी हूँ, अपने गुरु डॉ. भास्करन की वजह से हूँ। मैं तो मिट्टी का एक ढेला था, उन्होंने उसे भी वैज्ञानिक बना दिया!” डॉ. मानवेंद्र को बड़े से बड़े राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं। दुनिया में उनका बड़ा नाम है। पर आज भी हर सुबह उठते ही पहले वे डॉ. भास्करन के पैर छूने जाते हैं। कहते हैं, “डॉक्टर साहब, मैं हूँ आपका मन्ना…फूल तोड़ने वाला मन्ना…!” और डॉक्टर भास्करन प्यार से अपने प्यारे मन्ना की पीठ थपथपाकर उसे गले लगा लेते हैं।… * पता नहीं कब घुमक्कड़राम की कहानी पूरी हुई और उनके तुन-तुन एकतारे पर अब कहानी का आखिरी हिस्सा तिर रहा था। लग रहा था, आसमान से ठंडी-ठंडी बूँदों की रिमझिम सी शुरू हो गई है- सुनो सुनो यह अजब कहानी मन्ना की, फूल तोड़ने वाले लड़के मन्ना की। फूल तोड़ते बना फूल का विज्ञानी, पत्ते – पत्ते की महिमा उसने जानी। सब कहते, मन्ना हम सबसे न्यारा है, सब कहते, लड़का सचमुच यह प्यारा है। रोते-रोते जिसने हँसना सीख लिया, बिना कहे कुछ जिसने कहना सीख लिया। सुनो सुनो, यह अजब कहानी मन्ना की, फूल तोड़ने वाले लड़के मन्ना की …! मैं घुमक्कड़राम के तुन-तुन एकतारे के सुरों में बह रहा था…कि न जाने कब, अचानक वे उठ खड़े हुए और उसी तरह तुन-तुन बाजे पर गाते – गुनगुनाते चल पड़े। मैंने जोर से चिल्लाकर कहा, “घुमक्कड़राम जी, अजी घुमक्कड़राम जी, जरा सुनिए तो…! ठीक है, किस्सा पूरा हुआ, पर आप थोड़ी देर बैठिए ना। मैं चाय बना रहा हूँ, अपन जरा मिलकर….!” पर घुमक्कड़राम जी को कहाँ सुनाई देता? वे अपने सुर में थे और उसी सुर में गाते-गुनगुनाते हुए अपनी राह पर चले गए। जाने कहाँ, जाने किधर…? हाँ, चलते-चलते वे बीच-बीच में हाथ जरूर हिला देते थे, जैसे बिन कहे कह रहे हों कि “अरे चंदू भाई, अभी नहीं… अभी तो मैं जल्दी में हूँ! अगली बार आऊँगा तो तुम्हारी चाय जरूर पिऊँगा… बल्कि तुम्हारी क्यों, सुनीता भाभी के हाथ की। और हाँ, एक नया किस्सा भी सुनाऊँगा, यह वादा रहा!” मैं क्या करता? घुमक्कड़राम जी को उनके तुन-तुन बाजे के साथ जाते, बस जाते देखता रहा। जब तक कि वे आँख से ओट नहीं हो गए।
