जानकीबाई का नाम आज कौन नहीं जानता? जियावनपुर में तो लोग जानकीबाई को देवी की तरह पूजते हैं। और बहुत से लोग तो यह भी कहते हैं कि वह तो एक सुंदर परी है, जो जियावनपुर का नाम ऊँचा करने के लिए आई है। आसपास के गाँव-कसबों और शहर के लोग उसे बड़े प्यार से ‘निर्मल परी’ कहकर याद करते हैं। सबके होंठों पर बस उसी का ही नाम, जैसे जियावनपुर की जानकीबाई हर दिल में बस गई हो!
यों जानकीबाई की कहानी भी कुछ अजीब है। उसके पिता थे नहीं। अम्माँ आसपास के घरों में छोटा-मोटा काम करके उसे किसी तरह पाल रही थीं। पर जानकीबाई के सपने ऊँचे थे। वह थी भी कुछ अलग सी। सोचती, ‘बड़ी होकर मैं ये करूँगी, वो करूंगी…वो… वो करूँगी! मतलब वह सब कुछ कर डालूंगी, जो कोई न कर सका हो।’
अम्माँ उसकी जाने कैसी-कैसी बुद्धूपन वाली बातें सुनकर हँसती, “अरे, पहले बड़ी तो हो जा मेरी लाडली!”
पर जानकीबाई सोचती, क्या बड़ा होना जरूरी है कुछ भी करने के लिए? तो क्या बच्चे कुछ भी नहीं कर सकते!
फिर एक दिन सुरसती बुआ से रिमझिम परी की कहानी सुनकर उसे लगा, ‘हाँ-हाँ, बच्चे भी कुछ कर सकते हैं। जरूर कर सकते हैं।’ बल्कि उसे लगा कि उसे भी कुछ करने का रास्ता मिल गया है।
असल में शाम के समय जानकीबाई रोज पड़ोस में रहने वाली सुरसती बुआ से कहानियाँ सुना करती थी। एक दिन सुरसती बुआ ने उसे कहानी सुनाई एक परी की, जिसका नाम तो नहीं पता, पर वह बादलों में रहती थी। इसलिए हर कोई रिमझिम परी कहकर बुलाता था। बड़ी दयालु और नेक थी रिमझिम परी। एक दिन उसने एक छोटी सी लड़की की मदद की, जो बगीचे में एक पेड़ के नीचे बैठी रो रही थी।
रिमझिम परी ने उसकी आँखों में आँखें डालकर मुसकराकर कहा, “हँसो, ओ नन्ही प्यारी बच्ची, हँसो!” और लो, चमत्कार हो गया। उस दिन के बाद वह नन्ही सी बच्ची, खुशी जिसका नाम था, खुश रहने लगी। फिर पता नहीं क्या हुआ कि वह जीवन में आगे ही आगे बढ़ती चली गई। रिमझिम परी ने उसे वरदान ही ऐसा दिया था! …
‘कितनी कमाल की कहानी है। सचमुच, कमाल की!’ जानकीबाई ने सोचा, ‘और फिर रिमझिम परी ने खुशी को वरदान भी दिया तो कैसा अनोखा! खुश रहने का वरदान। खुश रहो तो तुम दुनिया में आगे ही बढ़ते जाओगे, आगे ही बढ़ते जाओगे। बस जरूरत है मन की खुशी की और लोगों को वही तो नहीं मिलती!’
कहानी सुनने के बाद जानकीबाई ने सोचा तो बस सोचती ही चली गई। उस दिन के बाद जानकीबाई को बड़ी अजब सी बीमारी लग गई। सोचने की बीमारी। … वह हर वक्त सोचती रहती, बस सोचती ही रहती। पता नहीं, क्या-क्या!
और आज भी तो यही सारा घनचक्कर उसके दिमाग में चल रहा है। जानकीबाई अपने छोटे से खटोले पर बैठी थी और सोच रही थी। जाने क्या-क्या! रात का अँधेरा घिर आया था। पास में ही अम्माँ गहरी नींद सो रही थीं, पर जानकीबाई की आँखों में भला नींद कहाँ? इसलिए कि वह तो सुरसती बुआ की कहानी याद आ रही थी, एक छोटी सी बच्ची खुशी और रिमझिम परी की कहानी।
‘परी ने वरदान दिया भी तो क्या? वाह!’ वह फिर-फिर सोच रही थी, ‘कैसी कमाल की बात है कि एक छोटे से वरदान ने खुशी की जिंदगी बदल दी!’
सोचते-सोचते जानकीबाई के दिमाग में एक बात कौंधी, ‘काश!… मुझे भी कोई परी मिल जाती तो?’
मन में यह विचार आते ही उसे इतनी खुशी हुई कि उसका सारा शरीर झनझना गया। फिर वह सोचने लगी कि ‘अच्छा जी, अगर परी मिल भी जाती तो भला मैं उससे माँगती क्या? हाँ-हाँ, मान लो, रिमझिम परी मेरे आगे खड़ी है और हँसकर कह रही है कि ओ री ओ जानकीबाई, माँग क्या माँगती है, तो भला मैं परी से क्या माँगूँगी? क्या खूब सारा पैसा? क्या ढेर सारा सोना-चाँदी? क्या बढ़िया-बढ़िया पकवान! महल – अटारी? ना जी ना, इसमें क्या धरा है? ये चीजें तो बहुतों के पास हैं। वरदान माँगो तो वह कुछ अलग सा होना चाहिए। है ना! तो फिर क्या माँगूँ मैं परी से? क्या…?’
तभी उसे याद आया, उसके मोहल्ले में और आसपास कूड़ा-करकट बहुत है। लोग अपने घरों की सफाई करके कूड़ा बाहर सड़क पर फेंक देते हैं, जैसे सड़क कोई बहुत बड़ा कूड़ेदान हो। जगह-जगह कूड़े और गंदगी के ढेर! बाजार में लोग खोमचे और ठेले वालों से चाट-पकौड़े, कुल्फी, आइसक्रीम और जाने क्या-क्या चीजें लेकर खाते हैं और खाने के बाद दोने, कुल्हड़ और पत्तल जहाँ-तहाँ फेंक देते हैं। कितनी बुरी बात… बहुत बुरी बात!
फिर इन दिनों तो प्लास्टिक की थैलियाँ, बोतलें, गिलास और प्लेटें भी चल गई हैं। वे जगह-जगह लुढ़कती – पुढ़कती पड़ी रहती हैं। देखकर जी खराब होता है। यह गंदगी न होती, तो कितना अच्छा होता अपना जियावनपुर! …
‘कितना अच्छा हो कि परी से यही वरदान माँग लूँ कि अपना जियावनपुर खूब साफ-सुथरा हो। वहाँ जगह – जगह गंदगी के ढेर न हों। गलियों में और सड़कों पर जहाँ-तहाँ कूड़ा-करकट न बिखरा हो।’ जानकीबाई ने सोचा।
तो क्या वह परी से यह वरदान माँगेगी? अजीब वरदान…! सोचकर उसे हँसी आई। उसने हँसते-हँसते अपने आप से कहा,” ऐसा वरदान तो परी से किसी ने न माँगा होगा।”
पर जानकीबाई को सफाई इतनी अच्छी लगती थी और जियावनपुर में जगह-जगह कूड़े-करकट के पहाड़ देखकर इतनी कोफ्त होती थी कि वह कुछ और सोच ही नहीं सकी। उसे लगा कि अगर अपना जियावनपुर एकदम साफ-सुथरा, चम-चम चमकता और सुंदर हो जाए तो आसपास के शहर और कसबों के लोग भी उससे सीख लेंगे। यह कितनी अच्छी बात होगी, सचमुच कितनी अच्छी बात!
“ठीक है… ठीक, परी आए तो मैं उससे यही माँगूँगी कि वह जियावनपुर को स्वच्छ, सुंदर बना दे।” जानकीबाई ने मन ही मन कहा और लेट गई।
जानकीबाई को नींद तो आ गई, पर पूरी रात उसे तरह- तरह की शक्लों में यही सपना आता रहा।
कभी उसे लगता कि रिमझिम परी उसके सामने खड़ी है और शर्म के मारे उससे कुछ बोला ही नहीं जा रहा। कभी लगता कि उसने जैसे ही परी से यह अजीब सा वरदान माँगा, वह फिक्क से हँस पड़ी। हँसते-हँसते उसका बुरा हाल हो गया। वह पेट पकड़कर देर तक हँसती ही रही, बस हँसती ही रही।
कभी उसे लगता कि उसकी बात सुनते ही रिमझिम परी ने बड़े प्यार और दुलार से उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘तुम सबसे अलग हो जानकीबाई, सबसे अलग! तुमने अपने लिए नहीं, सबके लिए माँगा। तुम्हारा मन बड़ा और उदार है। इसलिए तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो। देखना, जियावनपुर को सुंदर बनाने का तुम्हारा सपना एक दिन पूरा होगा, जरूर पूरा होगा!’
*
जानकीबाई को पूरी रात सपने में बस रिमझिम परी ही नजर आई। उससे बातें करते हुए उसे लगा कि उसके भीतर एक अलग तरह की खुशी फूट रही है। दीवाली की फुलझड़ियों की तरह।
अगले दिन रोज की तरह सुबह – सुबह जानकीबाई उठी तो सपने की बात सोचकर मुसकरा उठी। वह अभी सोच रही थी कि क्या करूँ, क्या नहीं? इतने में किसी ने बड़े मीठे स्वर में उसके कानों में कहा, “चलो जानकीबाई! भूल गईं, तुम्हें जियावनपुर को सुंदर बनाना है?”
सुनकर जानकीबाई चौंकी, ‘ऐं… हाँ-हाँ!’ पर उसके भीतर खुदर – बदर सी थी, ‘अरे, यह कौन बोला, कौन? किसने उसके कानों में कही जियावनपुर को सुंदर बनाने की बात? … कहीं रिमझिम परी तो नहीं!’
एक पल के लिए जानकीबाई कुछ सोच में पड़ गई। पर फिर जाने क्या हुआ, उसने झटपट एक बड़ा सा थैला उठाया और उसे लेकर बड़ी तेजी से घर से निकल पड़ी। जैसे उसके सपनों को पंख लग गए हों। रास्ते में जितने भी कागज – वागज, खाली लिफाफे, पुराने कपड़े की कतरनें, प्लास्टिक की थैलियाँ, लोहा-लंगड़ या इधर-उधर बिखरा कबाड़ नजर आया, सबको उठा-उठाकर वह उस बड़े से थैले में भरती जाती। जब थैला भर गया तो उसने वह कूड़ा शहर के बाहर बने बड़े से कूड़ाघर में डाल दिया।
इसके कुछ देर बाद फिर निकल पड़ी। इस बार वह अपने घर के पास बने बड़े से पार्क में जा पहुँची। वहाँ इधर-उधर कागज, अखबार के टुकड़े, प्लास्टिक की बोतलें, गिलास और प्लेटें बिखरी पड़ी थीं। लोग शाम के समय यहाँ खाने-पीने की चीजें लेकर आते। पर खाना खाकर अखबार और दूसरा सामान वहीं बिखरा छोड़ देते। सुबह देखने पर पार्क का हुलिया बड़ा बेढंगा लगता था।
जानकीबाई ने यहाँ-वहाँ बिखरा जितना भी कूड़ा था, उसे अपने बड़े से थैले में भरा और जाकर कूड़ेदान में डाल दिया।
लोग देख-देखकर हैरान थे। सोच रहे थे, ‘यह क्या कर रही है जानकी? कहीं यह पगला तो नहीं गई?’
पास ही कसरत कर रहे भोला चाचा ने पूछ ही लिया, “अरे, यह क्या कर रही हो बिटिया? रहने दो। यह तुम्हारा काम थोड़े ही है!”
“पार्क तो हम सबका है न चाचा। तो फिर इसे साफ रखना भी तो हमारा ही जिम्मा है ना!” जानकीबाई ने धीरे से हँसकर कहा।
इस पर भोला चाचा चुप। कुछ देर बाद वे फिर से कसरत करने में जुट गए। पर साफ लग रहा था कि कसरत में उनका मन लग नहीं रहा। जैसे बार-बार जानकीबाई की कही हुई छोटी सी बात उनके भीतर खलल पैदा कर रही हो।
पर जानकीबाई तो चुपचाप बड़े धीरज से अपने काम में लगी थी। वह पक्का निश्चय कर चुकी थी। और अब तो परी का भी उसे वरदान मिल चुका था। फिर उसे क्या चिंता थी? उसे आज अपने जीवन में बिल्कुल अलग सी खुशी महसूस हुई। उसने मन ही मन कहा, काम तो मैं रोजाना करती हूँ। पर आज पहली बार मैंने अपने दिल की बात मानकर कोई काम किया है। इसीलिए मैं खुश हूँ, बहुत खुश!
अगले दिन वह दो बड़े-बड़े थैले लेकर घर से निकली और बड़ी सुबह से अपने काम में जुट गई। कहीं ज्यादा उत्साह से। इस बार पार्क में घूमने आए कुछ बच्चों ने भी उसका साथ दिया। एक नन्हें से बच्चे काकू ने जानकीबाई को पार्क की सफाई करते देखकर पूछा, “आप यह क्या कर रही हो दीदी?”
“देखते नहीं काकू, कितना कूड़ा है यहाँ? क्या यह अच्छा लगता है? अगर हम इस पार्क को साफ रखें तो खुद हमें कितना अच्छा लगेगा!” जानकीबाई ने समझाया।
‘बात तो सही है।’ काकू ने सोचा। फिर उसने उसी समय पार्क में सैर करने आए बच्चों को आवाज दी, “सारे बच्चे आ जाओ जल्दी से। जानकी दीदी पार्क की सफाई कर रही हैं। हम भी उनके साथ मिलकर सफाई करेंगे।”
देखते ही देखते आठ-दस बच्चे इकट्ठे हो गए। कुछ बच्चे दूर खड़े थे। सकुचा रहे थे। कूड़ा साफ करने का काम उन्हें गंदा काम लग रहा था। पर जानकीबाई ने समझाया, कूड़े के बीच रहना गंदा है या कूड़ा हटाकर पार्क को साफ – सुथरा रखना?
बात सबको समझ में आ गई। अब तो पंद्रह-बीस बच्चों की टोली बन गई थी और सब जानकीबाई से पूछकर काम कर रहे थी। जानकीबाई खुद भी काम कर रही थी, दूसरों को समझाती भी जा रही थी। देखते ही देखते कुछ बड़े लोग भी शामिल हो गए। कुछ ने घास की भी कटाई-छँटाई कर दी। पार्क थोड़ी ही देर में इतना सुंदर लगने लगा कि देखकर छोटे-बड़े सभी रीझ गए।
जानकीबाई खुश थी और काकू समेत बहुत से बच्चे तो एकदम रोमांचित थे। उनमें से कुछ बच्चे तो खुशी की तरंग में नाचने-कूदने भी लगे। देखकर पार्क में घूमने आए लोग जोरों से हँस पड़े।
अगले दिन जानकीबाई की टोली और बड़ी हो गई। उसने सबके साथ मिलकर पार्क ही नहीं, सरकारी स्कूल के आसपास का कूड़ा – कबाड़ भी साफ कर दिया। अपने घर के सामने वाली गली और और बाजार जाने वाली सड़क भी।
आज भी कई लोगों ने हैरान-परेशान होकर पूछा, “यह क्या कर रही हो बेटी? तुम… अ…तुम्हें यह सूझा क्या? और ये बच्चे, ये… ये भी तुम्हारी तरह…?”
जानकीबाई हँसकर बोली, “जो काम बड़ों को करना चाहिए, अगर वे नहीं करते, तो बच्चे भला क्यों पीछे हटें? हम किताबों में पढ़ते हैं, जहाँ सफाई है, वहाँ ईश्वर रहता है। पर घरों के बाहर इतना कूड़ा जहाँ-तहाँ बिखरा पड़ा है, किसी को जरा भी चिंता – फिक्र नहीं। तो फिर हम बच्चों ने सोचा कि चलो, हम ही करते हैं।”
फिर सड़क पर इधर-उधर बिखरे कागजों और प्लास्टिक की थैलियों की ओर एक नजर डालकर उसने कहा, “लोगों को सोचना चाहिए कि वे इधर-उधर कूड़ा न फैलाएँ। पर कोई सोचता नहीं। लोग कागज – पत्तर उधर डाल देते हैं। मगर मैं इतने दिनों से देख रही हूँ, कि यहाँ सफाई करने तो कोई आता नहीं। कितना बुरा लगता है, जब कागज इधर-उधर उड़ते हैं। मेरी अम्माँ कहती हैं कि एक जमाने में इतना सुंदर होता था जियावनपुर कि क्या कहने! क्या आज फिर पहले जैसा नहीं हो सकता….?”
कुछ देर बाद खुद ही बोली, “अगर लोग आदत सुधार लें तो हो सकता है, जरूर हो सकता है।”
जल्दी ही जानकीबाई की नन्ही तपस्या का फल दिखाई देने लगा। उसे अपनी छोटी सी टोली के साथ सड़क पर से फालतू कागज – पत्तर उठाते देख, जियावनपुर के लोगों ने सोचा, ‘नन्ही सी जानकीबाई को कितनी परेशानी उठानी पड़ रही है। तो क्यों न हम अपनी आदत सुधारें?’
और वाकई लोगों की आदत सुधरने लगी। अब वे राह चलते सड़क पर केले या मूँगफली के छिलके न डालते। कूड़ा-कर्कट न फैलाते। धीरे-धीरे जियावनपुर वैसा ही सुंदर हो गया, जैसे जानकीबाई की दादी और नानी के समय था।
आसपास के लोग आते तो इस कसबे की सुंदरता को मन ही मन सराहते। कुछ कहते, “आदमी एक छोटी सी चीज भी ठान ले और उसे अमल में लाए, तो आखिर दुनिया बदल सकती है!”
और जानकीबाई …? वह मन ही मन परी को धन्यवाद देती है। आखिर उसी ने तो जानकीबाई के कानों में फुसफुसाकर कहा था, “चलो जानकी, नहीं चलोगी जियावनपुर को साफ और सुंदर बनाने?”
अब भी कभी जानकीबाई की नींद न खुले तो परी सुबह – सुबह उठा देती है। उसकी मीठी आवाज सुनाई देती है, “उठो, मेरी नन्ही परी, उठो! तुम्हारा समय हो गया।”
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सुबह पाँच बजे उठकर जानकीबाई अपना काम शुरू कर देती। धीरे-धीरे और बच्चे भी साथ आ जाते हैं और उसकी टोली पूरी उमंग के साथ गीत गाते हुए अपने काम में जुट जाती है। थोड़ी ही देर में पूरा कसबा चमचमा उठता है। देखकर हर कोई हैरान! सबकी आँखों की चमक कह उठती है, “अरे वाह! कोई धुन का पक्का जिद ठान ले तो क्या नहीं हो सकता? जानकीबाई की एक धुन ने क्या कमाल कर दिखाया!”
जानकीबाई को अब जियावनपुर के लोग ‘निर्मल परी’ के नाम से जानते हैं, जिसने जियावनपुर की शक्ल बदल दी। उससे प्रेरणा लेकर और दूसरे गाँव- कसबे और शहरों में भी ‘सफाई करो अभियान’ शुरू हो गया। जगह-जगह लोग जानकीबाई के सफाई आंदोलन में साथ देने के लिए आगे आ गए। लोगों में कुछ नया करने का जोश था। कुछ कर दिखाने का जोश।
स्वच्छता के निर्मल देवदूत अब हर जगह नजर आते थे और उनके चेहरे दमक रहे होते थे। कई स्कूल और संस्थाएँ भी इसमें शामिल हो गईं।
यों ‘निर्मल परी’ के पीछे एक लंबा कारवाँ नजर आने लगा। जब जानकीबाई सड़क पर आती, ठठ के ठठ लोग उसकी मदद के लिए आगे आ जाते। यू.एन.ओ. से उसे ‘सफाई की देवी’ का खिताब मिला। मगर हजारों लोगों ने उसे इससे भी बड़ा खिताब दिया। जियावनपुर और आसपास के लोग उसे कहते, “निर्मल परी…! हमारी प्यारी निर्मल परी!”
यों देखते ही देखते जानकीबाई लाखों लोगों के लिए उम्मीद की एक किरण बन गई। लोग बात-बात में आदर से उसका नाम लेते। फिर बड़े गर्व से कहते, “हमें खुशी है कि सारी दुनिया जिसे निर्मल परी कहकर पुकारती है, वह जानकीबाई हमारे ही शहर जियावनपुर की है, हमारे ही शहर की…!”
कहते-कहते लोगों की आँखों में चमक आ जाती।
मुझे यकीन है, जो बच्चे इस कहानी को पढ़ेंगे, उनमें से कुछ तो जरूर निर्मल परी की दिखाई राह पर चलेंगे। और तब उनके जीवन और आँखों में भी वही खुशी, वही चमक होगी, जो निर्मल परी की आँखों में है।
