एक था निरगुनिया। उसकी पत्नी थी छिगुनिया। एक दिन छिगुनिया बोली, ”चलो, हरिद्वार जाकर गंगा में स्नान करके आएँ।”
निरगुनिया बोला, ”चलो!”
पर उनकी घास-फूस की कुटिया थी। छिगुनिया के पास चाँदी के कुछ बढ़िया गहने थे। ‘अगर पीछे से किसी ने चुरा लिए तो…?’ उसने सोचा।
निरगुनिया ने सलाह दी, ”ऐसा करते हैं, सेठ जानकीदास के पास उन्हें रख देते हैं। लौटकर ले लेंगे।”
ऐसा ही हुआ। जब वे सेठ जानकीदास के पास गहने रखने के लिए गए, तो सेठ बोला, ”चिंता न करो। समझो कि गहने अपने घर में ही हैं।”
पर जब तीर्थ-यात्रा से लौटने के बाद निरगुनिया और छिगुनिया जानकीदास के पास गए, तो वह बोला, ”कौन से गहने? क्या मैं ही तुम्हें मूर्ख बनाने के लिए मिला हूँ?”
सुनकर निरगुनिया और छिगुनिया का मुँह सूख गया। उन्होंने फिर से सेठ को याद दिलाया, ”हम लोग हरिद्वार जाने से पहले आपके पास चाँदी के गहने रख गए थे। आपने कहा था, समझो कि गहने अपने घर में ही हैं। लौटकर ले लेना।”
पर जानकीदास अब साफ-साफ मुकर गया था। बोला, ”बक-बक मत करो। तुम्हारी चाँदी के गहने पहनने की हैसियत ही कहाँ है। कौन तुम्हारी बात पर यकीन करेगा? मेरे पास कोई तुम्हारे गहने-वहने नहीं हैं।”
हारकर निरगुनिया और छिगुनिया राजदरबार में गए। रो-रोकर राजा हमीरसिंह को अपनी विपदा सुनाई। उन्होंने अपने बुजुर्ग मंत्री सोमदेव से कहा, ”जल्दी इन्हें न्याय दिलाइए।”
सोमदेव समझ गए थे कि ये लोग झूठ नहीं कह रहे हैं। जरूर सेठ जानकीदास की नीयत में खोट आ गया है। उसने निरगुनिया और छिगुनिया के कान में कुछ कहा और उनसे अगले दिन राजदरबार में आने के लिए कहा।
अगले दिन सोमदेव ने सेठ जानकीदास को दरबार में बुलवाया। फिर उसके सामने छिगुनिया को खड़ा करके पूछा, ”सच-सच बताओ, तुमने जानकीदास के यहाँ कौन-कौन से गहने रखे थे?”
”सच कह रही हूँ मंत्री जी।” छिगुनिया बोली, ”चाँदी के मैंने सात गहने रखे थे सेठ जी के पास। साथ ही सोने का एक सात तोले का हार भी था…!”
”झूठ, बिल्कुल झूठ!” जानकीदास चीखा, ”सोने का कोई हार नहीं था। चादी के गहने तो थे, पर…”
अपनी बात कहते-कहते जानकीदास अचानक रुक गया। वह समझ गया, अनजाने में ही उसके मुँह से सच निकल गया है। उसकी चोरी पकड़ी गई!
सोमदेव मुसकराए, ”तो ठीक है सेठ जानकीदास, निरगुनिया और छिगुनिया के चाँदी के गहने जो तुम्हारे पास रखे हैं, उन्हें जल्दी लौटा दो, नहीं तो तुम्हें अभी जेल में भेजता हूँ।”
सुनते ही सेठ जानकीदास थर-थर काँपने लगा। उसने सोमदेव से माफी माँगी और अपना कसूर मान लिया। निरगुनिया और छिगुनिया को उसने उनके चाँदी के गहने लौटा दिए और दंड के रूप में सौ मुद्राएँ भी दीं।
जब राजा हमीरसिंह को इस न्याय का पता चला तो उन्होंने सोमदेव को बुलाकर पूछा, ”आपको कैसे पता चला कि सेठ जानकीदास ने बेईमानी की है?”
इस पर सोमदेव ने सारी बात बताई कि कैसे खुद सेठ के मुँह से ही निकल पड़ा कि सोने का हार नहीं, सिर्फ चाँदी के गहने ही उसके पास हैं।
सुनकर राजा हमीरसिंह हँसते हुए बोले, ”सोमदेव जी, आपकी इसी बुद्धिमत्ता के तो हम कायल है। इसीलिए आप इतनी बार कह चुके हैं, पर आपको सेवामुक्त करने की हमारी इच्छा ही नहीं होती!”
