भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
“वोऽ बिट्टो आ गई!” हवन-कुंड के चारों तरफ बैठे लोगों के बीच में से एक आवाज उभरी थी। सभी की नजरें एकदम गेट की ओर उठ गईं। मैंने थोड़ा-सा उचककर गेट की ओर देखा। बिट्टो एक हाथ में मुन्ना को लिए और दूसरे हाथ से रिक्शा को थामे नीचे उतर रही थी। हल्के पीले रंग की साडी और उलझे-उलझे बालों में वे सचमच बडी संदर लग रही थी।
“पंडित जी, आप हवन शुरू कीजिए।” बुआ जी का आक्रोश भरा स्वर फूटा। कारण मैं समझ गई थी। यकीनन उन्हें बिट्टो के देर से आने पर काफी नाराजगी थी। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि उससे बदला ही लिया जाता। दो मिनट तो रोका ही जा सकता था।
काफी गुस्सा आया था मुझे बुआ जी पर। लेकिन दूसरे ही क्षण वह सब सुखद भी लगा था। क्योंकि अब सभी की नजरें गेट से हटकर पंडित जी की ओर जम गई थीं। और अब बिट्टो लोगों के लिए एक नाहक तमाशा-सा बनकर नहीं रह गई थी।
मैं अब भी तिरछी नजरों से बिट्टो की ओर देख रही थी और इस बात का अंदाजा लगा रही थी कि वह मेरे पास कितने मिनट में पहुँच जाएगी।
थोड़ा-सा एक ओर सरककर मैंने उसके बैठने की जगह बना दी। लेकिन यह सोचते ही कि अगर वह कहीं और बैठ गई, मैं निराश हो आई थी।
मुन्ने को रास्ते में ही मालती ने पकड़ लिया था। बिट्टो मेरे ही पास छुई-मुई-सी बनी आ बैठी।
थोड़ी ही देर में सभी पंडित जी के मंत्रों में डूब गए, तो मैं अपना प्रश्न उठाए बिना न रह सकी, ‘बड़ी देर से पहुंची है री? अजय नहीं आया?”
बिट्टो ने क्षणभर को घूरते हुए मेरी ओर देखा और गर्दन झुका ली। आँखों ही आँखों में उसने ऐसे माहौल में अपना जवाब देने की शायद असमर्थता प्रकट कर दी थी। मुझे खुद पर गुस्सा आया। क्या यही वक्त था यह सब पूछने को? मेरे आसपास पचास-सौ व्यक्ति और बैठे हैं, वे सब बहरे तो नहीं।
तभी किसी के आने का आभास हुआ तो मैंने गर्दन उठाकर देखा। शक्ल से जाना-पहचाना व्यक्ति था। लेकिन कौन है, कहाँ रहता है, यह मैं नहीं जानती थी। यों हर आने-जाने वाले का मैं निरीक्षण-सा कर रही थी। पापा का शहर में जितना नाम था और जिन-जिन लोगों के बीच उनका उठना बैठना था, क्या उतने लोग आए हैं?
सच में, थोडी देर के बाद लोगों की एक अच्छी खासी भीड जमा हो गई थी, जो पापा के बड़े होने का एहसास दिला रही थी।
आज पापा की बरसी थी। बाहर के लोगों का आना जाना तो दो रोज पहले ही शुरू हो गया था। मैं ही चार रोज पहले आ गई थी। इतनी दूर से आओ तो कुछ रोज का प्रोग्राम तो बनाकर आना ही होता है।
मेरे यहाँ पहुँचने के पन्द्रह मिनट बाद ही बड़े भैया और भाभी रिक्शा से उतरे थे। उनका जल्दी आ जाना मुझे अच्छा लगा था। वरन् रास्ते-भर मैं घर में छाए मौन और उदासी का सोच-सोचकर डूबी जा रही थी। विशेषकर जब ममी का उदास चेहरा आँखों के सामने आ जाता था।
ममी अभी तक अपने को ‘एडजस्ट’ नहीं कर पाई है ऐसा मैं अतुल के पत्रों से जानती चली आई थी। एक वर्ष हमारे लिए काफी लंबा था लेकिन ममी के लिए शायद नहीं। यों पापा की याद और उनकी बातें अभी तक दिमाग से जुड़ी थीं लेकिन उन्हें कभी सोचने या किसी से कहने का वक्त ही कहां मिला था। अब वे मात्र एक कहानी की तरह लगने लगी थीं, जिसे कभी परदे पर देखा हो।
सुबह की गाड़ी से मँझले भैया और भाभी आ गए थे। साथ में बुआ जी भी थीं जिन्हें आंखों पर मोटा-सा चश्मा लगाए देख मैं हंसी थी, “आपको क्या हो गया बुआ जी! इतनी मोटी ऐनक… वैसे आप जच रही हैं।”
“शर्म नहीं आती कलमुंही। हम लोगों की दिन दुनिया चली गई है और तुझे मजाक सूझता है।”
“लेकिन इतना मोटा चश्मा लगा कर तो दिन दुनिया लौट आई होगी।”
“अभी कहां लौटी है री! अभी तो दूसरी आंख में मोतियाबिंद उतर रहा है। जब तक उसका ऑपरेशन नहीं होता, नजर कहां टिकेगी।” बुआ जी ने ऐनक उतारी और शीशे साफ करते हुए बोली, “बिट्टो रानी कहां है री!”
क्षणभर पहले बुआ जी से मजाक करने का मूड बना था, वह बुआ जी के प्रश्न के आगे एकदम से बुझ सा गया।
सचमुच जैसे बिट्टो की हमें भी याद आई थी। इतनी नजदीक रहते हुए भी पापा की लाडली अभी तक नहीं पहुंची थी।
अतुल बाहर आ रहा था, तो उसी से पूछा मैंने, “ऐ बिट्टो नहीं आई अभी तक? कोई फोन-पत्र नहीं आया उसका?” अतुल ने पैनी सी दृष्टि मेरी और डाली ओर “पता नहीं” कहकर बाहर निकल गया।
“लो, इसे क्या हो गया है! सीधे मुंह जवाब ही नहीं। जब से आई हूं, एक मिनट भी जी भर कर बात नहीं की इसने। चिट्ठियों में तो क्या-क्या लिखा करता था।”
गर्दन झटकते हुए मैं बुआ जी की ओर मुड़ी थी और उखड़े हुए स्वर में बोली, “उसका ससुराल से आना इतना आसान थोड़े न है। चूल्हे-चक्की से फुरसत मिलेगी तब न!”
मैंने बात पूरी कही थी लेकिन बात पूरी होने तक बुआ जी कमरे की दहलीज भी लांघ चुकी थीं।
पंडित जी की आवाज रुकी तो मेरा ध्यान उस और बँटा। हवन कुंड में लकड़ियां डाली जा रही थीं। छोटी भाभी अंदर से कुछ लेने जाने लगी, तो जाते-जाते उसने एक नजर मेरे और बिट्टो के ऊपर फेंकी थी। यों दोनों भाभियों के चेहरे रुआंसे पडे थे लेकिन मंत्रों के उच्चारण के वक्त उनकी आवाज काफी ऊंची रहती थी। कई बार उनकी आवाज एकदम से रुक जाती, शायद मंत्र पूरी तरह से न आने की वजह से, तो मैं बिट्टो की तरफ देख कर तनिक मुस्कुरा भर देती। प्रत्युत्तर में बिट्टो का भावहीन चेहरा देखकर मुझे काफी गुस्सा आने लगता।
बड़े भैया ने एक-दो बार पीछे मुड़ कर देखा था। शायद वे मुझे आगे आने का संकेत कर रहे थे। लेकिन मैं औरतो में इस कदर घिरी बैठी थी कि मुझे आगे जाना काफी कठिन-सा लगा। यों भी आगे जाना मेरे लिए मात्र एक औपचारिकता थी। मैं जानबूझकर भैया से दृष्टि चुराती रही।
औरतों के बीच बैठी मैं ममी की स्थानापूर्ति भी तो कर रही थी। घर में बड़ी होने के नाते, लोग मेरे नजदीक ही अधिक आ-जा रहे थे। ममी की आंखें इस कदर कमजोर हो चुकी थीं कि हर एक को पहचानना उनके बस की बात नहीं थी। और ऐसे मौके पर तो लोग अपनी सूरत दिखलाना ही अधिक जरूरी समझते हैं न।
हवन खत्म होते ही सब लोग उठ खड़े हुए। लोगों को विदा कर के जैसे ही मैं अंदर आई, स्टोर की तरफ से किसी की सिसकियां सुनाई दीं। मैं तेजी से मुड़ी। देखा, घुटनों में सिर छुपाए अतुल था।
“अऽतुल… क्या हुआ रे?” करीब पहुंचकर जैसे ही मैंने उसका चेहरा ऊपर उठाया, बच्चों की तरह पापा-पापा कहते हुए मुझसे लिपट गया।
जड़-सी हो आई थी मैं। आज आना था कि दु:ख-पीड़ा क्या होती है। हम लोग तो अपने-अपने घरों में व्यस्त हो गए। पापा को याद करने की कभी फुर्सत ही नहीं मिली। लेकिन अतुल के आगे अपना और ममी का एकाकी जीवन था, जो पापा की याद हरदम ताजा करवा सकता था।
बालों को सहलाते हुए मैं बोली, “जी छोटा न कर। सब कुछ तुम्हीं ने ही करना है अब।”
दरअसल, पिछले तीन चार माह से उसने हर पत्र में ममी को ही लेकर लिखा था। कई कई पंक्तियां मेरे सामने उभर-उभर कर आने लगी थीं।
‘दीदी, कभी-कभी लगता है, मैं बहुत उदास हूं। जी चाहता है, यहां से भाग जाऊं, बहुत दूर… लेकिन किसे छोड़ दूं… किसे पा लूं…।’
‘हर वक्त मन में एक आतंक-सा बना रहता है। रात में सोता हूं तो लगता है सुबह है… ममी… मुझे लगता है, ममी अब जीना ही नहीं चाहती।… दीदी, मरे हुए व्यक्ति को देखा जा सकता है लेकिन मरते हुए व्यक्ति को देखना बड़ा मुश्किल होता है।’
ममी अधिक उदास हो उठती होंगी, इसलिए भावुक हो उठता है। इस स्थिति में उन्हें उबारने का कोई तरीका भी तो नहीं था मेरे पास। हार कर मैं उसे उसकी इन बातों का जवाब ही नहीं देती थीं।
किसी तरह उसे धीरज बंधा कर मैं बाहर आई, तो देखा बरामदे में से दरियां और हवन आदि का सारा सामान उठवा दिया गया है। लोग-बाग सभी जा चुके थे। बड़ी भाभी फर्श पर पानी की बाल्टियां फेंक रही थी और रघु फर्श पर झाडू लगा रहा था। ऐसे लगा, जैसे अभी अभी यहां से हवन कुंड नहीं, पापा की लाश उठाई गई है।
बुआ जी के माथे पर काफी तेवर बने हुए थे। इन्हें कुछ कह तो नहीं दिया किसी ने। मैंने बुआ जी की ओर रुख किया ही था कि वे उबल पड़ी-
“जीते-जी कितना दान-पुन किया करता था वह। मरने के बाद तुम्हारा तो फर्ज बनता था कि दो रोटी गरीबों को ही खिला देतीं।”
बुआ जी के तेवरों का कारण अब समझ में आया था। भैया-भाभी से पहले बात कर चुकी हैं, इसका मुझे पता चल गया था। लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं थे। मैंने अतुल से ही आकर कहा, “बुआ जी ठीक ही तो कहती हैं। अब सब कुछ हमी ने ही तो करना है।” मैंने जानबूझकर ऊंचे स्वर में कहा ताकि भैया तक भी पहुंच जाए। लेकिन बड़े भैया कन्नी काट छत पर चले गए थे।
बुआ जी की बात का पलड़ा भारी होते देख मंझले भैया ने हां में हां मिलाई। सब चीजें लाने देने का काम अतुल ने ही किया था। इस सारे कार्यक्रम के समाप्त होने तक बड़ी भाभी का मुंह सूजा रहा था।
रात को हम केवल घर के सदस्य ही बाकी रह गए थे। डाइनिंग टेबल पर प्लेट से लगाते वक्त मैं सोचने लगी थी, ‘आज इतने दिन बाद हम सब भाई बहन इकटे हए हैं। इस घर में शायद ऐसा ही कोई मौका आता है जब हम सभी इकट्ठे हो पाते हैं, वरन् सभी अपने आप में व्यस्त हैं।’
“अब अतुल की शादी जल्दी ही हो जानी चाहिए। खाना खाते वक्त बड़ी भाभी ने मेरे मुंह की बात छीन ली थी। आज पहली बार लगा था कि भाभी ने कोई अक्ल की बात की है और इस घर की जिम्मेवारी को समझा है। छोटी भाभी ने इसका समर्थन किया और बड़े गर्व के लहजे में बोली, “लड़की तो मैं बतला सकती हूँ। एकदम ए वन!”
मैं तिरछी नजर से अतल की ओर देखते हए मस्कराई थी। केवल उसके चेहरे पर होने वाले प्रतिक्रिया जानने के लिए। लेकिन उसके चेहरे पर न कोई रंग आया, न गया। गर्दन झुकाए रोटी चबाता रहा वह।
“लड़की तो एक मेरे माइंड में भी है।” एकाएक जैसे बिट्टो को भी ख्याल आया था, “पढ़ी-लिखी तो मैट्रिक तक ही है लेकिन सुंदर बहुत है।”
“सच!” मैंने अनचाही प्रसन्नता चेहरे पर ओढ़ी और अतुल की ओर मुखातिब हुई, “भैया, अब निर्णय दे दे। तुझे कौन-सी चाहिए?”
अतुल बिना किसी की ओर दृष्टि डालें वाश-बेसिन की ओर बढ़ गया।
“लो! देवर जी गुस्सा कर गए।” छोटी भाभी बोली, “इन्हें तो पढ़ी-लिखी भी चाहिए और सुंदर भी। लेकिन आप लोग हैं कि…” और खिसियायी-सी हँसी हँस दी वह।
गुस्सा तो बहुत आया था भाभी पर, लेकिन चुप बनी रही मैं। दो-चार दिन तो रहना है यहां। वो भी बिगाड़ कर चली जाऊं।
“इस तरह का गुस्सा तो हम भी किया करते थे”, बड़े भैया थे, “लेकिन जब देवी जी के दर्शन किए तो…” और ठहाका मारकर हँस दिए वे।
बात जितनी गंभीरता से शुरू हुई थी उतनी ही मजाक में जाती लगी। विषय वहीं छोड़ मैं उठ खड़ी हुई।
रात छत पर टहलने के लिए निकल आई थी। थोड़ी ही देर बाद बड़ी भाभी भी आ गई।
“आपने क्या सोचा है दीदी?” मेरे करीब आते हुए वह बोली।
“किस बारे में?” मैं समझते हुए भी अनजान से बन गई थी।
“अतुल की शादी के बारे में। आखिर वह कैसी लड़की चाहता है, हमें भी तो कुछ पता चले।”
“कैसी भी लडकी चाहे. लेकिन अतल में क्या कमी है जो उस पर इतने व्यंग्य कसे जा रहे थे?” मैं काफी कठोर हो आई थी।
भाभी ने सहज एवं दृढ़ मुद्रा बनाई, “बात दूसरों ने बढ़ाई थी दीदी। भला इसमें मेरा क्या दोष।… मुझे तो ममी का ध्यान आता है। भला कब तक यों अकेली रह सकेंगी वे।”
भाभी को यों रहम दिल होते देख सचमुच मैं विस्मय में पड़ रही थी।
‘अतुल की पसन्द के बारे में मैं क्या जानूँ भला।’ मैंने स्वयं को थोड़ा संयत किया।
‘जानती नहीं, जान तो सकती हो न? हमारे रिश्ते में एक लड़की है, कहो तो चिट्ठी लिखकर किसी बहाने उसे यहाँ बुलवा लूँ।’
बात गलत नहीं लगी थी मुझे। इतना वक्त ही कहाँ था कि पहले हम लोग वहाँ जाते और फिर अतुल के देखने-दिखलाने का चक्कर पड़ता।
अतुल को जिम्मेवारी मैंने अपने ऊपर ले ली। मुझे विश्वास था कि अगर लड़की मुझे पसन्द आ गई तो अतुल ‘न’ नहीं करेगा।
सुबह अपने सामने ही मैंने भाभी से पत्र लिखवाया। काफी हल्का महसूस करने लगी थी मैं खुद को। मेरे उठते-उठते भाभी ने जैसे पुनः याद दिलाया, ‘दीदी, अतुल से बात कर लेना आज ही।’
ब्रेकफासट लेते हुए छोटे भैया-भाभी ने लेक जाने का प्रोग्राम बना लिया था। बड़े भैया भी भाभी को लेकर शायद किसी दोस्त के यहाँ जाने का प्रोग्राम बना चुके थे। मुझे अच्छा ही लगा था। क्योंकि यही वक्त था जब मैं अतुल और ममी से खुलकर बात कर सकती थी।
उनके जाते वक्त मुझे चुभन तो हुई थी फिर भी मुस्कराते हुए उन्हें विदाकर मैं बरामदे में पहँची। ममी रॉस के पास खडी दाल बीन रही थीं।
“ओह ममी! पहले ही आँखें इतनी कमजोर हैं, ऊपर से…” मैंने झट से ममी के हाथ से थाली छीन ली थी।, “अभी तो हम यहीं है।”
“जब चली जाओगी?”
‘तब का इन्तजाम भी हम कर रहे हैं।’
“यही, कि मुझे विरेन के पास भेज देना चाहते हो?”
“मतलब?” मैं चौकी थी।
“जान-बूझकर सब अन्जान क्यों बन रहे हैं? आज मैं अकेली रह गई हूँ, इसका मतलब यह तो नहीं कि जिधर जी चाहे, उधर फैंक दो मुझे।”
भाभी की रहमदिली का मतलब मैं अब समझ रही थी।
कुछ और करीब होते हुए मैं बोली, “ममी, मैं तो अतुल की शादी के बारे में कह रही थी।”
ममी फटी-सी आँखों से मेरी ओर देखने लगी, “लेकिन बाकी सभी मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हैं?” ममी रूआँसी हो आई थीं।
“कोई आपको जबरदस्तर नहीं करेगा ममी। जहाँ आपका जी चाहेगा, वहीं रहेंगी आप।”
मैं समझ गई थी कि ममी यह घर छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहतीं। मैंने जल्दी ही माहौल को थोड़ा हल्का बनाना चाहा। “ममी, भाभी ने अतुल के लिए एक लड़की सजैस्ट की थी। मैंने सुबह पत्र लिखवा दिया है कि वे लोग लड़की को लेकर यहीं आ जाएँ। मैं जानती हूँ, सब आपकी राय के बिना हुआ है, लेकिन अब हम आपको अकेले नहीं छोड़ना चाहतीं। हाँ, निर्णय तो आप ही देंगी।” ममी को बुरा न लगे, इसलिए मैंने सारी बात स्पष्ट कह दी।
‘मैं तो निर्णय दे दूंगी, लेकिन अतुल मानेगा?’ ममी के स्वर में किसी तरह का आक्रोश नहीं था।
“आप अतुल की चिन्ता मत करें।” मैंने बड़े आत्मविश्वास से कहा। अतुल सामने होता तो बात स्पष्ट हो जाती। लेकिन वह तो सुबह ही बिट्टो के साथ उसे उसकी ननद के यहाँ छोड़ने के लिए चला गया था।
रात सोते वक्त बिट्टो ने कई बार दोहराया था कि सुबह उसे जल्दी उठा दिया जाए क्योंकि उसे अपनी ननद से मिलकर शाम की गाड़ी से ससुराल वापिस भी पहुँचना है। एक अजीब-सी दहशत, डर उसके चेहरे पर रहता जो मुझे जला-सा गया था।
‘ऐऽऽ! दो-चार रोज तो रुक जा। जब तक हम यहाँ हैं तब तक ही सही। ससुराल में तो सारी उम्र ही रहना है।’
‘मेरी जगह होती न, पता चल जाता दीदी।’
उसने जिस कड़वाहट से कहा, लगा, अपने दुःख का दोष वह मुझे ही दे रही है। मन में आया कह दूँ, दोष तेरा ही है जो इतनी दब्बू बन गई है। पर सोचा, मन का चाहा मैं ही कितना कर पाती हूँ। एक और भय भी तो हम लोगों के मन में समाया हुआ है। पापा सिर पर नहीं हैं, झगड़ा मोल लेकर हम किधर भटकेंगी।
बिट्टो जाने लगी थी तो बुआजी को भी अपने गुरुजी की याद आ गई थी। अपने छोटे से थैले में एक धोती और थोड़ा सा प्रसाद लेकर वे गुरुजी के दर्शन करने को निकल गई।
सुबह से दोपहर तक का एक-एक पल मैंने घर की एक-एक वस्तु का निरीक्षण करते हुए गुजारा था। कोठी के मेन गेट से बरामदे तक के दरवाजे तक एक अजीब-सा सूनापन छाया हुआ था। पापा थे तो कोठी का एक-एक कोना हरियाली और फलों से भरा रहता था। गेट से प्रवेश करते ही मोतिया और चमेली की गन्ध पुलकित-सा कर जाती थी। बरामदे में फैला मनी-प्लांट अपना अस्तित्व ही खो बैठा था। छतों पर फैले जाले एक अजीब सा भयानक रूप दे रहे थे। मन में आता है ममी से चिल्ला पर पूछू, ‘आखिर यह क्या हालत बना रखी है घर की।’ पर मैं जानती हूँ, मेरे इस प्रश्न के आगे ममी के पास रोने के सिवाय कुछ नहीं होगा।
क्या व्यक्ति अपने लिए कभी नहीं जीना चाहता? पापा के होते हुए दुःखों के कम अम्बर टटे थे भला। लेकिन रोने रूलाने के बाद भी ममी में जीने की पूरी इच्छा थी। हर हाल में समझौता किए हुए थीं वे।
एक साथी चला गया तो क्या हम भी पूरी तरह ढह गए। खुद के लिए खुद को भी नहीं सँभाल सकते। शायद इन्सान बहुत कमजोर है। दूसरे के सहारे के बिना जी ही नहीं सकता।
पीछेवाले बगीचे में बैठी डूबते सूरज को देख रही थी कि अतुल आ गया। “बहुत देर से आया है रे? तू तो बिट्टो को छोड़ने ही गया था, और कहाँ चला गया था?”
“कहीं भी तो नहीं…बस जरा…।” ।
“कहीं नहीं, बस जरा, पता नहीं…ये क्या जवाब मिल रहे हैं आजकल? दो-चार रोज के लिए आए हैं। पास बैठने को मन नहीं करता?”
“दो-चार रोज के लिए आई हो, इसीलिए मोह नहीं बढ़ाना चाहता।” आँखों में गहरी उदासी लिए वह मुस्करा दिया।
बड़ी मुश्किल से खुद को पिघलने से बचाया। फिर भी कह उठी, “ठीक कहता है रे। ये मोह-ममता न होती तो इन्सान कितना सुखी होता।”
गर्दन झुकाए घास का तिनका चबाने लगा था वह।
“प्रमोशन के चांसिस कब तक है?” यों ही पूछ बैठी जैसे मैं।
“शायद जल्दी हो जाए।”
“तो फिर इसी खुशी में एक काम कर डाल।”
“क्या?”
“झट से शादी करवा ले।”
इस बार खुलकर हँस दिया वह। “इतनी भी क्या जल्दी है। अभी तो सारी उम्र पड़ी है।”
“तुम्हें जल्दी नहीं, हमें तो है। अपना नहीं ममी का तो ख्याल करो कुछ।”
“मेरे शादी करवाने से ममी को क्या सुख मिलेगा?”
“क्यूँ, कोई सुख नहीं मिलेगा? कुछ नहीं करेगी वह ममी के लिए?”
“जो सेवा वह ममी की करेगी, विश्वास दिलाता हूँ दीदी, उतनी सेवा मैं भी ममी की करूँगा।”
“लेकिन वो सुख… वो चौन नहीं दे पाओगे जो बहू के आने से माँ को होता है।”
“पहले भी तो दो बहुएँ आ चुकी हैं। इसकी पूर्ति तो अब तक हो सकती थी।”
मैं बात को जितना ‘लाइटली’ ले जाना चाहती थी वह उसे उतना ही तूल दे रहा है। फिर भी मैंने स्वयं को संयत रखा, “अच्छा-अच्छा ज्यादा बातें मत बना। छोटी के आने का जो चाव होता है. त क्या जाने।”
वह खामोश रहा। मैं ही बोली, “कल ऑफिस से जरा जल्दी आ जाना।”
“क्यों?”
इस बार निगाहें उसने मेरे चेहरे पर गड़ा दीं। जैसे सचमुच वह किसी बात से शंकित-सा हो उठा था।
“कल कुछ लोग आ रहे हैं। मैं चाहती हूँ जाने से पहले मैं सबकुछ करके जाऊँ।”
वह एक झटके से उठ खड़ा हुआ। आँखों में जैसे खून उतर आया था उसके।
“किसके कहने पर किया जा रहा है यह सब?” उसकी मुट्ठियाँ भिंच आई थीं।
“किसके कहने पर होगा? क्या हमारा कोई अधिकार नहीं है?”
वह पाँव पटकते हुए ड्राइंग-रूम की ओर चल दिया। मैं भी पीछे-पीछे हो ली थी। “आखिर हो क्या गया है तुझे?” मैं चलते-चलते बोली, “इस उम्र में कितना चाव होता है लड़कों को। एक छोटा-सा घर बन जाता है अपना। जीवन में स्थिरता आ जाती है। जिन्दगी अर्थपूर्ण हो जाती है।”
“यह जीवन तो दान में दे दिया है दीदी। अगले जनम में देखेंगे।” वह ड्राइंग-रूम में सोफे पर जा दुबका था।
“तो पहले ही क्यूँ नहीं बता दिया रे! अब तक पहेलियाँ क्यूँ बुझाए जा रहा था। कौन है वो, जिसे यह जीवन दान में दे दिया है?”
“नहीं दीदी! तुम गलत समझ बैठीं। मुझे समझने की कोशिश करो।”
“क्या समझने की कोशिश करूँ?” मैं झुंझला आई थी।
“मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता।” उसका स्वर एकदम शान्त था।
“क्या अच्छा नहीं लगता?” मेरी आवाज पता नहीं क्यों कुछ दब-सी गई थी।
“कुछ भी अच्छा नहीं लगता।” वह पुनः उसी रौ में बोला।
“पहेलियाँ क्यों बुझा रहा है। साफ-साफ कह दे जो कहना है।”
“मैं बहुत अकेला पड़ गया था दीदी। बहुत दुःख देखे हैं मैंने।”
“लो, यह कौन-सी बात ले बैठा है।” विस्मय में पड़ रही थी मैं। मैंने भी चोट-सी करनी चाही, “तू सोचता है हम बहुत सुखी हैं। हमें किसी की चिन्ता नहीं है।”
“मैं जानता हूँ दीदी। लेकिन दु:ख और आतंक में बहुत अन्तर है। मेरी अब तक की जिन्दगी केवल आतंक में गुजरकर रह गई है।”
“वो आतंक अकेलेपन की वजह से ही तो था। उस आतंक से उबरने का इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता है भला।”
“नहीं, अब वक्त ही नहीं रहा।”
“क्यूँ…। किस भ्रम को पाले हुए है आखिर तू?” यह मैं नहीं, मेरे अन्दी से कोई और ही बोला था जैसे।
“ठीक कहती हो दीदी”, उसके शब्दों में कम्पन था, “शायद यह मेरा भ्रम ही हो। लेकिन कभी-कभी लगता है, उस आतंक ने जिस्म की एक-एक नस को कहीं अन्दर-ही-अन्दर जला डाला है।…इस उम्र में ही नपुंसकता का बोध होने लगे, तो जानती हो कैसा लगता है?”
कहने को वह कह गया। लेकिन यह शायद उसने बाद में महसस किया कि सामने मैं बैठी हूँ। चेहरा घुटनों में छिपा लिया उसने। मैं जड़-सी हो आई थी।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
