Jataka Story in Hindi : प्राचीन समय की बात है, भारत में काशी को विद्या पाने का सबसे श्रेष्ठ स्थान माना जाता था। देश के विभिन्न हिस्सों से छात्र वहाँ पढ़ने जाते।
वहाँ धर्मानंद नामक गुरु रहते थे। उनकी पुत्री का नाम था ‘सद्गुणवती’। वह अपने नाम की तरह ही गुणों व रूप की धनी थी। धर्मानंद उसके लिए योग्य वर तलाश रहे थे।
वे चाहते थे कि अपने छात्रों में से ही कोई बुद्धिमान दामाद तलाश लें।
अपने छात्रों की बुद्धि की परीक्षा लेने के लिए, वे उनसे बोलेः- प्रिय छात्रों! मुझे अपनी बेटी की शादी के लिए खास वस्त्र व गहने चाहिए। मेरे पास तो इतने साधन नहीं हैं। क्या आप मेरे लिए इतना कर सकते हैं?
उन्होंने चेतावनी भी दी- अगर कोई ये वस्तुएँ चुरा कर भी लाए तो इतना ध्यान रखे कि कोई भी उसे चोरी करता न देखे।


छात्रों ने गुरु जी की बात को बहुत ध्यान से सुना। अगले ही दिन से वे गुरु को वस्तुएँ ला-ला कर देने लगे लेकिन एक छात्र गुणशील कोई भी वस्तु नहीं लाया।
गुरु ने उससे पूछा – गुणशील! तुम तो कुछ नहीं लाए? गुरुजी- मैं ला सकता था किंतु आपने कहा था कि बस चोरी करते समय कोई न देखे। लेकिन यह तो संभव ही नहीं। हो सकता है कि मुझे चोरी करते समय कोई दूसरा न देखे, किंतु मैं तो देखूँगा ही। मेरी आत्मा ने मुझे चोरी करने की गवाही नहीं दी। गुणशील ने उत्तर दिया।

गुरु जी मुस्कुराकर बोलेः- बहुत अच्छे! मैं वास्तव में तुम्हारे जैसे शिश्य की तलाष में था। तुम बहुत बुद्धिमान हो। तुम इस परीक्षा में खरे उतरे।
बाकी सभी शिश्य यह सुन कर हैरान रह गए। गुरु ने उनसे कहा- मुझे तुम लोगों से कोई वस्तु नहीं चाहिए। मैंने तो आप में से सबसे बुद्धिमान शिश्य को पाने के लिए यह चाल चली थी।
तुम सबको यह याद रखना चाहिए कि चोरी करना बुरी बात है, चाहे वह किसी भलाई के लिए क्यों न की जाए।

धर्मानंद के आदेश पर शिश्यों ने चोरी का सारा सामान लौटा दिया। सद्गुणवती व गुणशील का विवाह हो गया। धर्मानंद जी पुत्री के लिए योग्य वर पा कर बहुत प्रसन्न थे।
शिक्षा:- जिस काम के लिए अपना मन गवाही न दे, उसे कभी मत करो।

