buddhi shuddhi mahayagya
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

तनी एक प्लेट फटाक से दीजिए ……जगत मिसिर कह लाईन में लग गये….

बड़े से स्टील के प्लेट में भर कर मंसूरी चावल और गमगम-गमकते गरम मसाले की गाढ़े रस्से की तरकारी देख आँखें भर आईं..मारे भूख के अतड़ियाँ लहक रही थीं। पेट में चूहों की धमा-चौकड़ी मची थी। पिछले चौबीस घण्टे से अन्न के दाने से भेंट नहीं हुआ था।

हुआ यह कि जगत मिसिर बी.एड. कॉलेज के सहपाठियों संग आगरा शैक्षिक भ्रमण को चले थे। पहले आज़मगढ़ से साठ की संख्या में लड़के-लड़कियाँ तय समय पर बनारस पहुँचे…. शिक्षकों ने मरुधर एक्सप्रेस की एक बोगी पहले से रिजर्व करा रखी थी। कैण्ट स्टेशन पर शिक्षक-शिक्षिकाओं का दल पहले से ही उपस्थित था। …साथ में दो चपरासी । आते पता चला ट्रेन एक घण्टे लेट है…फिर देखते-देखते एक्कम का चाँद पूर्णिमा को प्राप्त हुआ और पूरे आठ घण्टे बाद ट्रेन चली। चलते वक्त माँ ने आठ-दस पूड़ियाँ और आलू-गोभी की सब्जी अखबार में लपेट कर दिया था जो स्टेशन पर ही सफाचट हो गया…लगभग सभी छात्रों का यही हाल। गाड़ी हिचकोले खाते चली…जगत मिसिर पहली बार किसी ऐतिहासिक जगह के भ्रमण को जा रहे थे…मन रोमांचित था…प्रेम की निशानी ताजमहल आँखों के सामने नाचने लगी….खिड़की से ठण्डी हवा का झोंका गालों को सहलाने लगा तो मन नदी में भावों के लहर मचल उठे। याद आई अनीता..सोचने लगे, नौकरी लगते अनीता से पहले शादी करेंगे और साल भीतरे आगरा घुमाएंगे।

बोगी में कुछ लड़के-लड़कियों की सेटिंग पहले से थी….उनका समूह एक-दूसरे के आमने-सामने के बर्थ साथियों से अनुनय-विनय कर फिट कर चुका था। शिक्षिका मनोरमा राय अपने साथ दोनों बच्चों को लेकर आई थीं …. उन्हीं में व्यस्त-मस्त हसराज सिह भी अपनी नवेली दुल्हन के साथ सबसे किनारे के बर्थ पर अपनी दुनिया में मगन, हाँ हेड माथुर साहब जरूर हरकत में थे। चालीस लड़के/बीस लड़कियों के दल को सम्हालना आसान नहीं था। अक्टूबर की सिहरन भरी शाम में पसीने से तर-बतर घूम-घूम कर कभी छात्रों की संख्या गिनते, कभी तरह-तरह की हिदायते देते….लड़के ट्रेन की बाट जोहते थक कर चूर थे….विनय यादव बर्थ पर चद्दर बिछा, कम्बल ओढ़ सोने चले…ट्रेन भी रफ्तार पकड़ने लगी….माथुर साहब थे कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। वह मुँह ढ़ापें हेड पर पिल पड़ा…अरे तनी चुप रहते महराज!…का तबसे पटपटा रहे हैं, साला इहां कपार टभक रहा है और आपका भोंपू बन्दे नहीं हो रहा। हा हा हा हा की चारों तरफ गूंज….माथुर सटक गये, जानते थे विनय नम्बरी लंठ है….ऊपर से बाप ब्लाक प्रमुख । भाई दिन दहाड़े तीन जने को ठोंक,खुलेआम ठेकेदारी करता था, सो चुप रहना भला समझ अपनी बर्थ पर आकर लेट गये। बोगी में सन्नाटा हो गया। बत्तियाँ बुझ गयीं..रेल छुक…छुक….धांय करती चली जा रही थी। जगत मिसिर भी हिचकोले खाते सपनों के झूले पर झूलते मगन थे।

कभी-कभी परेशानियाँ जो एक बार पीछे पड़ती हैं …..पीछा छोड़ती ही नहीं। ट्रेन हर दूसरे पड़ाव पर रुठ कर बैठ जाती उस पर दूसरी मार ट्रेन में पेन्टीकार नहीं…रात बीत गयी….सूरज चढ़ा तो लड़के निबटने के लिए लाईन में लगे। गवइं लड़के पहले ही निबट चुके थे…..ट्रेन भागी जा रही थी, ब्रश कर मोनिका ने माथुर से शिकायत की….क्या सर, कैसी ट्रेन है? मुझे बेड़ टी की आदत है….अब तो सर दुखने लगेगा। मोनिका, विनय की खास दोस्त थी …शहर के नामी व्यापारी की बेटी। मुँह फुला कर अपनी बर्थ पर बैठ गयी। विनय से देखा न गया ….आकर बगल में बैठ गया, मुस्कुरा कर कहा …घबडाईये नहीं..आपको चाय पिलाते हैं,नजरे मिलीं और दोनों के चेहरे लाल हो गये…अगल-बगल की लड़कियां ध्यान से देख रही थीं. ….लड़के भी ताक-झांक रहे थे…पिछले पाँच मिनट से दोनों आँखों में आँखे डाले एक दूसरे में खोए थे कि जगत मिसिर ने टोका…विनय भाई!

वह झेंप गया, उठ कर साथ हो लिया। दोनों खास मित्र थे, आकर दरवाजे पर खड़े हो गये…. ट्रेन गाँवों के बीच से गुजर रही थी…धान की तैयार फसल लहलहा रही थी….कुछ खेतों में काट कर क्रम से बिछी थी। जगत ने कहा….मरदे ऐन्नी त धान खूबे हुआ है। किसान का बेटा किसानी की बातें समझता था, विनय का परिवार कई पीढ़ियों से राजनीति में था सो हूं कह कर रह गया। उसका ध्यान चाय में अटका था। अन्दर लड़कियाँ नमकीन बिस्कुट आपस में बांट कर खा रही थीं, ज्यादातर लड़के देहात के थे…अपनी-अपनी बर्थ पर बैठ लाई-चने का मिक्स दाना गुड़ ले फांक रहे थे। शेखर लाल एक पन्नी में दाना भेली लिए दोनों के पास आए…लिजिए भाई…टाईम पास, जगत और विनय मुस्कुराकर दाना भेली खाने लगे। शेखर, विनय, जगत अभिन्न मित्र थे, आपस में बतियाते…दाना फांक ही रहे थे कि खचाक की तेज आवाज के साथ झटके से ट्रेन रुकी…विनय यादव फाटक से गिरते-गिरते बचे… लपक कर जगत ने पकड़ लिया।

शेखर लाल….का हुआ मरदे, इ ससुरा टापू में ले आ के काहें रोक दिया?

जगत मिसिर फाटक से मुँह निकाल कर…बुझाता है कौनों कटाया है?

विनय यादय गमछे से सिर पर पगरी बाँधते… हत ते रे की,साला हो गया जय सिया राम । अब तो जब तक पुलिस आके बाड़ी नहीं ले जाएगी इ ससुरी हिलेगी नहीं।

तीनों ने सिर पीट लिया। देखते-देखते सभी बोगियों में हलचल बढ़ी ….लोग निकल कर इंजन के पास जुटने लगे…रेलवे पुलिस के चार सिपाही खैनी फांकते भीड़ को ढकेलते घटना स्थल का मुआयना करने लगे… पीछे-पीछे गार्ड साहब हांफते-दांफते पहुँचे। एक जवान औरत सीने पर बच्चा बांधे कट गयी थी। …ट्रेन की रुकने की आवाज सुन आस-पास के खेतों में कटाई कर रहे ग्रामीण भी आ पहुँचे। औरत की सिनाख्त हो गयी. ….थोड़ी देर में पगडंडियों पर दौड़ते…चीखते…चिल्लाते लोगों का रेला आता दिखा तो जगत ने सिर के बाल खुजलाते हुए कहा.. बवाल नाधेगे सारे, देखिएगा। राजनीति का रुख हवा की चाल देख भांप लेते थे।

जगत-बवाल का करेंगे भाई…अपने कटी है सारी, बस-गाड़ी थोरे न है कि मुआवज-सुवावजा मिलेगा मनइ को।

विनय…हँसते हुए…..कोशिश करने में का जाता है। कौन जाने मिलिए जाए। इ गाँव के लोग चक्काजाम करने में माहीर होते हैं बाबू..जब केहू न सुने तो सड़क पर मेहरारुन के बैठा के जाम ठेल दो…देखो हाकिम सुनेगा काहें नहीं।

शेखर और जगत मुस्कुराए, कॉलेज में भी आए दिन अवैध वसूली के नाम पर विनय की नारे बाजी चलती रहती थी और प्रिंसिपल जगदंबा पाल कुर्सी पर पैर चढ़ा ऑफिस चपरासियों से पिटने के भय से बन्द करवा लेते थे। मजाल कि मनमानी मैनेजमेण्ट की चले….परिणामस्वरूप लडके/ लड़कियों में विनय की अच्छी धौंस थी।

तीनों अपनी बोगी में लौट आए….लड़के बाहर निकल कर तफरीह में व्यस्त थे। माथुर साहब गेट पर खड़े हो लोगों से पूछ-ताछ कर रहे थे …. बेचारे लड़कियों को छोड़ कर हटने का खतरा नहीं ले सकते थे। मनोरमा राय बच्चों को जबरन बैठाए अपनी सीट पर अंगद का पैर बने ज़मीं थी… | हंसराज सिंह झांक-झूक कर बीबी के पास आकर बैठे बतियाने में मशगूल. ..बातें थीं कि हनुमान की पूंछ की तरह बढ़ती ही जा रही थीं। लड़कियाँ देख –देख मुस्कुराती तो मनोरमा राय..बेशर्मी की हद कह अन्दर ही अन्दर कुढ़तीं। पति के लिए वह केवल एक जरूरत भर थीं…जैसे रोटी और कपड़ा। गाँव वाले ट्रैक पर धरना दे मुआवजे की मांग ले बैठ गये..थोड़ी दूर पर हसुआ गिरा देख, घटना को ड्राईबर की लापरवाही बताने लगे…एक स्वर में सबने नारा दिया..हारन नहीं बजा था। गाँव वालों के भय से ड्राईबर और गार्ड दुबक कर बैठ गये। पूरे चार घण्टे बाद पुलिस आई…नोक-झोंक गाँव वालों से होने लगा..दरोगा ने फोन करके और पुलिस बुलाई…जब पुलिस गाँव वालों पर भारी पड़ी,तब मामला सलटा, इस पूरी प्रक्रिया में दो घण्टे और गये। शाम हो आई…पुलिस ने लाश सील कर उठवाई और गन मैनों से ट्रैक साफ करवाया तो इंजन से हार्न के घनघनाने की आवाज गूंजी…. सभी यात्री अपनी-अपनी बोगी में फटाफट चढ़े। ट्रेन चली तो सबने राहत की साँस ली। हंसराज सिंह पहली बार छात्रों के बीच आकर सफर में बैठे. …..अइसा टापू में अटके की साला चाय-पानी को भी मुहाल हो गये, कहते हुए झल्लाहट बंया किया। का माथुर साहब! आपको भी इहे ट्रेन मिली थी। …जैसे छछून्नर छूई हो रह -रह कर बिपता रही है। आठ घण्टे उधर,सात घण्टे इधर, हो गया टूर इहें ससुर । दो घण्टा पहिले चौंहपे होते,अभी आधे रास्ते पर अटके हैं।

माथुर साहब कोई अंग्रेजी का उपन्यास खोले, लेट कर पढ रहे थे… धीर-गम्भीर आदमी। धीरे से बिना उनकी तरफ देखे…उत्तर दिया, हर बार तो इसी से आते थे, संयोग है।

हंसराज सिंह पनपनाते हुए दुबारा अपनी बर्थ पर आ कर बैठ गये, सोचे थे मुफ्त में बीबी पर रौब गाठेंगे कि विभाग में उनकी खूब चलती है और इधर माथुर चिढ़े बैठे थे। एक बार नाम तक नहीं लिया था। हंसराज एढ़ाक पर नियुक्त थे..कॉलेज उन्हीं के गाँव में था। …अच्छी दबंगइ थी पर माथुर नियन्त्रण से बाहर रहते, कारण छात्रों में अपनी रेगुलर्टी…पंचुअल्टी और अच्छे शिक्षण कार्य के लिए खासा लोकप्रिय थे।

रात हुई तो भूख ने जोर पकड़ा….साथ में लाई गयी थोड़ी बहुत नमकीन…बिस्कट…दाना-भजा की सफाई सबह ही हो चकी थी। सभी बेचैन…ट्रेन भागी जा रही थी। अजीब हाल था…. रुकती भी तो ऐसी जगहों पर जहाँ खोमचे वाले अपना ठेला बाँध बूंध कर सो रहे होते….. विनय ने एक स्टेशन पर मिन्नत करके चाय बनवाई और सबसे पहले मोनिका और शिक्षकों को पिलवाया…जगत ने चुस्की ले कर शेखर से कहा …. ऊंट की मुँह में जीरा ..इससे तो करेजवे फूंका जाएगा, का जानी कैसे पीते हैं इ शहरी लोग भिनहिए हो मुन्शी जी। शेखर लाल ने भी उसी लय में जवाब दिया.. पंडी जी! जिसका जौन कल्चर है करेगा ही … और धीरे-धीरे चुस्की लेने लगे। हंसराज भड़कते हुए स्टेशन मास्टर के केबीन में धड़धड़ाते हुए पहुँचे….काहें साहब! इस मुरदहिया स्टेशन पर आके इ बैलगाड़ी काहें बैठ गयी। एक हाथ कमर पर दूसरा मेज पर रखे हंसराज सिंह क्रोध में हांफ रहे थे….पीछे-पीछे कुछ लड़के भी आ पहुँचे। स्टेशन मास्टर जम्हाई लेते हुए…लाइनिये क्लीयर नहीं है साहब, क्या करें। तीन एक्सप्रेस पास कराएंगे फिर जाएगी। पीछे से दनदनाते हए एक छात्र कॉलर चढाए आगे आया…हद है महराज, ये पहले से ही इतनी लेट है, ऊपर से और….अभी वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि स्टेशन मास्टर ने हँसते हुए टोका….अब लेट वालों के लिए टाईमवालों को तो नहीं रोक सकते, जो पीछे है पिछड़ता ही जाएगा भाई साहब । यही नियम है और उठ कर दूसरे कमरे में चला गया। जगत ने खीझ कर कहा…. “एक त धिया अपने गोर, ओपर अइली कमरी ओढ़।” इ त मुअन हो गया यादव जी ।

तीनों स्टेशन पर बनी बेंच पर बैठ गये….रात के तीन बज रहे थे, चारों तरफ सन्नाटा…स्टेशन किसी ऊसर, सिवान में था। दूर-दूर तक कहीं कोई आबादी नहीं। दो-चार पीली रोशनी के छोटे बल्ब जरूर जल रहे थे, पर अन्धेरे को जरा भी आँख दिखाने में सफल नहीं थे। कुछ कुत्ते रह-रह कर निरवता में खलल डालते और स्टेशन को पूरी तरह भूतहिया बनाने का प्रयास करते….।

घण्टे भर बाद तीन ट्रेनों को आगे निकाल गाड़ी चली….घूमने का सारा रोमांच खत्म हो रहा था…जैसे-जैसे समय बढ़ता जा रहा था। तीन दिन के टूर में एक दिन लगभग निकल चुका था…तीसरे दिन वापसी का टिकट, लड़के जम कर ट्रेन की माँ/बहन एक कर रहे थे….लड़कियाँ इन बातों से असहज थीं। मोनिका…विनय से दो बार गाली बकने पर लड़ चुकी थी। ….खैर, जो हुआ सो हुआ…आगरा आ ही गया। सभी ट्रेन से उतरते बोगी को एक लात जरूर मारते…माथुर से रहा न गया….दो तुम लोग परिचय बढ़ियाँ से अपने पूरबियापन का…रह गये वहीं के वहीं। माथर ने थकते हए कहा। लडके स्टेशन के बाहर निकले….धर्मशाला पहले से बुक था। माथुर हर दूसरे साल छात्रों को लेकर आते थे…. परिणाम स्वरुप अब सारी व्यवस्था फोन से ही कर लेते थे। ….धर्मशाला पास में ही था..पहुँचते ही मैनेजर ने हँस कर स्वागत किया…..वेलकम सर!…आप लोग काफी लेट हो चुके हैं। झट-पट रेड़ी हो जाइये। ठीक दस बजे बस आ जाएगी। घड़ी की तरफ देख कर….आठ बज रहे हैं। माथुर ने छात्रों को जल्दी नहा-धो कर तैयार होने का आदेश दिया। लड़कियाँ मनोरमा राय के साथ हो ली….न चाहते हुए भी हंसराज सिंह को पत्नी को भी साथ में भेजना पड़ा। माथुर लड़कों को लेकर एक बड़े हॉल में पहुँचे…गलियारे में लाईन से लैट्रीन/बाथरुम बने थे। लड़के कपड़ा खोल, गमछा लपेट कतार में लग गये। …..इधर लड़कियाँ भी टावेल/ साबुन/शैम्पू लिये हो हल्ला करती नहाने लगीं। डेढ़ घण्टे में लड़के तैयार होकर लाबी में आ गये….कैण्टीन से चाय, नाश्ता ले कर करने लगे। जगत मिसिर ने थैली में हाथ डाला…..पाँच सौ की नोट…..नोट छू कर छोड़ दिया, गांठ के पूरे पक्के जगत यजमानिका बाभन ठहरे। रुपया दाँत से पकड़ते थे। अन्दर अभाव था पर बाहर पूरी सजगता से परदेदारी थी। चार भाइयों और दो बहनों में सबसे छोटे जगत को पिता दो बिस्से खेत बेच कर प्राईवेट कॉलेज से बी.एड. करा रहे थे। बडे भाई संस्कृत थोडा बहत जानते थे…..काशी चले गये। जम गये…अच्छी पुरोहिती चलती थी। दोनों उनके बाद के ससुराल की मदद से बी.एड.कर शहर में प्राईमरी स्कूलों में मास्टर हो बस गये। …बीबियों की धौंस से दोनों दबे गाँव को भूल चुके थे। पिता ने येन-केन प्रकारेण बेटियों को ब्याह मुक्ति पा ली थी। बच गये थे जगत….सत्तर की उमर में पिता पंडिताई से मिली दान दक्षिणा से उन्हें पढ़ा रहे थे……गाँव में बीस बिस्से की जोत और अठन्नी चवन्नी की यजमानिका में किसी तरह गुजारा चल रहा था। जगत नोट तुड़ाना नहीं चाहते थे….जानते थे टूटा कि खर्च हुआ। उधर विनय यादव लड़कियों के आते प्रेमिका में मशगूल हो गये | शेखर भी एक कायस्थ लड़की से मेल जोल बढ़ा रहे थे। मन मसोस कर रह गये…विनय कभी जेब में हाथ नहीं डालने देते थे। शेखर भी लिहाज करते थे….पर आज दोनों अपनी-अपनी गणित में व्यस्त थे। बेचारे मन मार कर बाहर निकल आए। बस आकर खड़ी थी….दस की जगह साढ़े दस हो गया तो ड्राईबर हार्न बजा बुलाने लगा। माथुर ने शोर मचाना शुरू किया….सभी बस की ओर भागे। पहले बस फतेहपुर सिकरी चली…किले के भग्नावशेष से लेकर पंचमहल, बुलंद दरवाजा देखते घूमते सभी दरगाह पर पहुँच मन्नत का धागा बांध रहे थे। जगत की अतड़ियों में अन्न की मांग का आलम यह था कि आँखों के सामने रह-रह कर तितलियाँ नाचने लगतीं। समय कम था और अभी माथुर कम से कम छात्रों को ताजमहल और आगरे का किला जरूर दिखा देना चाहते थे। सबको आवाज लगा बस की तरफ चले…..बस अगले गन्तव्य की ओर चल पड़ी.. अचानक किसी लड़के को उल्टी होने लगी तो माथुर ने बस रुकवाया, कछ लडके उतर कर सड़क के किनारे ही पैंट खोल खडे हो गये, जगत भी…..लड़के को पतली दस्त भी महसूस हुई तो सड़क किनारे पानी का बोतल ले झांडियों के पीछे चला गया। हंसराज का भन्ननाना चालू था। जगत की नज़र अचानक सड़क किनारे एक मड़ई में चल रहे ढाबे पर गयी। जगत की क्षुदाग्नि का जोर इस कदर उफान पर था जैसे जेठ की दुपहरी में लू का तूफान । उड़ियाये-पड़ियाये मड़ई में पहुंचे और प्लेट में भात तरकारी चांप रहे लोगों को देख झट एक प्लेट मांग टूट पड़े। ऐसा न था कि मांस गन्ध पहचानते न थे, पर भूख न जाने जठा भात की गणित से अनुप्रेरित हो मन ही मन तय कर चुके थे कि पकड़े जाने पर भात तरकारी का भ्रम बता पल्ला झाड़ लेंगे।

रस्से से भात सरपोट-सरपोट खा रहे थे जगत…शेखर और विनय की भी नज़र पड़ी, चल पड़े मित्र का साथ देने। जब पेट में जरूरत भर भात पहुँचा जगत का चित्त शान्त हुआ…प्लेट में चार बड़े आलू के फांक जान एक को मीस कर खाने के लिए दबाए ही थे कि शेखर लाल आ धमके। जगत मारे भय के हिल गये. | झेंप मिटाते हुए धीरे से बोले..हत तेरी की….इ मीट है का मरदे, होटल वाला मुस्कुराया। जगत को काटो तो खून नहीं, सरेआम मास खाते पकड़े गये थे।ये तो गनीमत था कि सहयात्री बस में बतकुच्चन में व्यस्त थे वरना आज पंड़ी जी की इज्जत का जनाजा निकल जाता। मित्रों को निकट देख प्लेट फेंकने ही वाले थे कि शेखर लाल ने लपक लिया, बचपन की यारी थी, एक दूसरे के जूठे बेर खूब खाए थे, साथ ही पोखरे से मारी भुनी सिधरी का स्वाद लुक-छिप कर शेखर के साथ जगत ने बचपन में खुब लिया था। आज मामला पंडी जी का सार्वजनिक था इस लिये लेहाजे बनावटी परहेज दिखा रहे थे। भूख शेखर को भी लगी थी…बस ड्राईबर हार्न बजाने लगा तो बड़े-बड़े कौर मुँह में डालने लगे। जगत पैसा देने हाथ धो कर पहुँचे। पाँच सौ की कड़क नोट अन्ततः टूट ही गयी। चार सौ पचास रुपये लौटे। जगत चौंके…मीट इतना सस्ता। आस-पास खा रहे लोगों पर नजर दौड़ाई…ज्यादातर मजदूर तबके के लोग खा रहे थे। शरीर में बिजली सी कौंध गयी.धीरे से दुकान वाले से पूछा…काहे का मीट था? इहां तो बड़का ही मिलता है साहब.होटल वाले ने मुस्कुराकर कहा। मामला कुछ-कुछ समझ रहा था। बड़का मन्ने? जगत समझते हुए अरथियाये….सुअर बाबू! उत्तर मिला। शेखर हाथ साबुन से मांज आवाज दे रहे थे। जगत के सामने धरती आसमान नाचने लगा। अन्दर से रुलाई आँखों में उमड़ी-घुमड़ी चली आ रही थी। झट दोस्तों संग बस में सवार हुए….मन में भूचाल मचा था, धर्म नसा चुका था …पेट में सुअर का मांस जीभ चिढ़ा रहा था। ऊपर से भेद खुलने का भय, साथ में शेखर को भी नासने का अपराधबोध सालने लगा। ताज के दिदार की चाहत हवा हो गयी…आँखें बन्द करते शौच खाती सुअर आ धमकी। ऐसी हल आई की सर खिड़की से निकाल हकर-हकर मन भर उल्टी करने के बाद ही राहत मिली। मन ऐसे बेचैन था जैसे किसी प्रिय जन की आकस्मिक मृत्यु हुई हो। चेहरा रह-रह कर पसीने से भीग जाता तो गमछे से झट पोंछ भाव छिपाने की नाकाम कोशिश करते। उनकी हालत देख विनय और शेखर कई बार तबियत का हाल पूछ चुके थे। खैर दिन भर के तूफानी दौरे के बाद वापसी के लिए सभी ट्रेन में बैठे….पूरे सफर जगत मौन धरे रहे। जैसे आंधी-तूफान के बाद मौसम सुहावना हो जाता है तपती गरमी में….ट्रेन समय से बनारस की ओर भागी जा रही थी। सभी खुश थे ….कोई पेठे का गुणगान कर रहा था तो कोई ताज का गान । बस मातमी सन्नाटा था तो जगत की दुनिया में। बनारस पहुँच लड़के विदा ले अपने-अपने घर की ओर चले। लड़कियाँ माथुर साहब के साथ कैण्ट बस अड्डे की तरफ चहकती, मचलती लड़कों को हाथ हिला विदा कर बढ़ गयीं। माथुर उन्हें आज़मगढ़ बस अड्डे से पहले छोड़ने वाले नहीं थे।

शेखर और जगत एक गाँव के होने से साथ चले शेखर ने जगत के कन्धे पर हाथ रख पूछा….काहें एतना उदासे हैं बाबा?..देख रहा हूँ, मरदे आगरे से चुप हैं। जगत भरभरा कर रो पड़े। शेखर से लिपट गये…. यार!..धरम नसा गया।

शेखर…हे, आश्चर्य से आँखें फटी रह गयीं, जानते थे जगत नियम,धर्म और बात के पक्के हैं। भीड़ भाड़ वाले कैण्ट स्टेशन पर दोनों एक किनारे खड़े थे.. | का हुआ पंडी जी!…मारे जिज्ञासा के उनकी खोपड़ी उड़ी जा रही थी…लप्प से गमछी की पगड़ी बांध कमर पर हाथ धर ऐसे तन गये जैसे किसी से मार करनी हो। ….जगत ने खुद को नियन्त्रित किया…हमको माफ करना मित्र…ये पाप अनजाने में हुआ…वो जो मास तुमने खाया था, बड़का का था…कहते कहते गला रुंध गया। शेखर तनिक विचलित हुआ…क्या कहते हैं महराज! …फिर सम्हल कर, जगत को दोनों हाथों से बाहों में भर कर मुस्कुराते हुए…अच्छा, चलिए…था तो था। इ बात हम दोनों तक है…रहेगी। चल कर गंगा नहाते हैं और विश्वनाथ बाबा को एक लोटा जल चढ़ा कर शुद्धि कर लेते हैं। जगत अभी भी नज़रें चुरा रहे थे। दोनों ऑटो पकड़ गोदौलिया पहुंचे …वहाँ से सीधे गंगा घाट..शेखर ने कहा…चलिए नाए से ओह पार चलते हैं…सालों ने इधर बहुत कचरा फैला रखा है। जगत चुपचाप चल पड़े। उस पार शान्ति थी….गंगा अपने मन्थर वेग में बह रही थी….दोनों उस पार से सामने के घाट को देख रहे थे….अचानक घाट से हट कर एक बड़े नाले से गिरते गन्दे पानी को देख कर शेखर ने कहा….देखिए न बाबा, एतना मइला गिरने के बाद भी गंगा पवित्र है…हम तो अनजाने में खाये…. जगत उसके चेहरे को ध्यान से निहार रहे थे। शेखर कपड़ा खोल मुस्कुराते हुए नदी में उतरने लगे…जगत ने हिम्मत करके धीरे से कहा….मास सुअर का थो, शेखर पानी में फिसलते-फिसलते बचा। का कहते हैं यार!…हत मरदे…पानी से निकल बालू पर पसर गये। कपार पर हाथ रख थोड़ी देर मौन रहे…जगत बार-बार अपने आँसू पोंछता सुबक रहा था। कुछ देर बाद शेखर सामान्य हुआ…चलिए जौन हुआ उसमें सारी गलती भूख की थी, उ कहा गया है न…भूख न जाने जूठा भात। धीर गम्भीर बहती गंगा को देख कर, माँ नहाते शुद्धि करेगी, और गंगा में उतर गये, दोनों मल-मल के नहाने के बाद इस पार आए। प्लास्टिक का लोटा खरीद गंगा जल भरा और मन्दिर में जा बाबा को नहला, कान पकड़ माफी मांगी।

घर पहुँचते-पहुँचते दोनों को रात हो गयी….शेखर ललान की ओर विदा होकर निकल गये। बाभनों का टोला गाँव के मध्य में था…अन्धेरी रात में झिंगुरों की झनझनहाट निरवता में भय पैदा कर रही थीं..इक्के दुक्के घरों में बाहरी ताखे पर ढिबरी जल रही थी। सभी घरों में दुबक गये थे, जगत के बूढ़े पिता को छोड़ कर | जगत दुवार पर पहुँचे…पिता मड़ई में बैठ कउड़ा ताप रहे थे। देखते खुश हो गये..आ गये बाबू…मन कैसा कैसा ना जाने हो रहा था…बड़ी रात कर दी। ढिबरी की रोशनी में बूढ़े पिता की नम आवाज सुन जगत सिहर गये। सुना था उन्हें होनी अनहोनी ज्ञात हो जाती है…. सोचने लगे…हो न हो बाबूजी को उसी का भान हुआ हो। जल्दी-जल्दी घर में घुस गये…माँ चारपाई पर लेटे-लेटे बोली…खाना चौकी पर तोप कर रखा है…खा लेना। वह हूं कह अन्दर आँगन में आ हाथ मुँह धो कर किसी तरह एक रोटी खा बिस्तर में आ कर लेट गये। बगल में माँ की खटिया थी। तीन दिन की थकान का आलम था कि अपने बिस्तर में घुसते नाक बजने लगी। भोर में नींद अपने चरम पर थी कि लगा सिराहने सुअरों का झुण्ड मंडरा रहा है…जगत उछल कर उठ बैठे…माथे से पसीने की धार बह निकली, इतने भयभीत हुए । वह लगभग हांफ रहे थे। माँ उठ कर खटिया पर बैठी राम राम रट रही थी….का हुआ बाबू? कौनों खराब सपना देखे का? …जगत हामी में गर्दन हिला उठ कर बाहर निकल गये। सुबह के पाँच बज रहे थे ….औरतें खेतों की ओर झुण्ड में बतियाती आ-जा रही थीं। जगत के बाबा प्राईमरी के हेडमास्टर थे….खासे प्रगतिशील। गाँव में पक्के मकान में पहला पायखाना इन्हीं के घर बना। औरतों लड़कियों को खेतों में जाने की सख्त मनाहट थी। माँ बाल्टी का पानी ले हाते के पखाने में जा रही थी…पिता खरहरा से दुआर झार रहे थे….भुअरी गाय तीन दिन बाद जगत की आहट पा खूटे के चारों ओर चक्कर लगा रम्भाने लगी….जगत की दुलारी गाय । जगत पास आ भुअरी की गर्दन सहलाने लगे…पगहा खोल चरन पर लाकर बारी-बारी से गाय बाछी को बान्ह, लेहना चला निबटे ही थे कि पेट में मरोड़ मची। पखाने में माँ के बाद पिता घुस चुके थे। प्रेसर बढ़ता जा रहा था। लोटा उठा सामने के ऊख के खेत की ओर निकल गये….अभी निबट कर उठे ही थे कि सामने फूफूआती एक सुअर शौच की गन्ध पा आ धमकी….जगत का मारे भय के प्राण सूख गया। लोटा उठा कर भागे। नौ बजे खा पी कर साईकिल उठा विद्यालय निकले…..आज परीक्षा का प्रवेश पत्र बंटना था, गाँव के बाहर खडंजे पर शेखर पहले से जोह रहे थे। दोनों मित्र बोलते बतियाते चले जा रहे थे कि अचानक सुअरों का झुण्ड रास्ता काट कर निकल गया । जगत की बेचैनी बढ़ती जा रही थी…सुअरें नींद से लेकर हर जगह आ कर धमका जा रही थी….वह भुलाना चाहते थे, सुअरें थीं कि आश्चर्यजनक ढंग से सामने आ जा रही थीं। शाम तक पाँच बार सुअर के सामने पड़ने पर जगत हिल गये….निश्चित कोई दैवी कोप है जगत सोचने लगे कि क्या करें? किससे कहें? एक बार खयाल आया काशी चलें बड़े भाई कर्मकांडी हैं ….कोई हल निकालेंगे। फिर खयाल आया भावज नम्बरी चुगलखोर है… चारों तरफ पुगिया देगी….बियाह होना मुश्किल हो जाएगा।

सोचते-सोचते बेचारे की हालत खराब..शाम घिरते माँ आँगन में रसोई बनाने लगी…बूढ़ों को जाड़ा कुछ ज्यादा ही लगता है….पिता दुवार पर पुवाल जला कउड़ा बार बैठ गये। दूध दूह कर जगत बाल्टी चुल्हानी रख पिता के पास आकर बैठ गये….मन व्यथित होने से चेहरा उतर गया था। बुढ़ापे की औलाद से मोह कुछ ज्यादा ही होता है….जगत को चुप बैठे देख पिता ने पूछा……सब भला है न बबुआ? जगत मौन.कछ कहेंगे तबे न हल निकलेगा. ..पिता की आवाज में चिन्ता थी, सोच रहे थे शायद कॉलेज वालों ने फिर पैसे की मांग की है। जगत पास सरक आए….सबसे छोटे थे….पिता का साथ और दुलार खूब मिला था….सिर पर पिता का हाथ पड़ते रो पड़े…..बाबूजी बड़ी भारी गलती हो गयी….और सारा हाल कह सुनाया।

पिता ने धीरज रखने को कहा ….चिन्ता में पड़ गये,कहें तो किससे कहें….क्या उपाय निकालें की लड़के का हाड़ शुद्ध हो। मन ने कहा….हाड़ जनेऊ अशुद्ध हुआ है, शुद्धि करनी होगी। सुबह सबसे पहले गंगा जल में बोर कर नया जनेव पहनाया और चुपचाप पड़ोसी गाँव के लल्लू पंडी जी से मिलने निकल गये। लल्लू पंडी जी बहुत पहुँची चीज थे….सभी विद्याओं के ज्ञाता । ओझा सोखा सब मन्त्र ले दीक्षित होते थे। जगत के पिता डोलू भर दूध लिए दरवाजे पर पहुँचे… ..बाहर उनकी युवा बेटी गोबर से दुवार लीप रही थी। देखते अन्दर भागी… अन्दर से लल्ल पंडित उसी गति से बाहर आए। ये माजरा जगत के पिता को समझ नहीं आया…आते लपक कर दुवार पर खटिया बिछा कर हाथ पकड़ कर बिठाया ….अउर कैसे महाराज इधर को? पूछते उनकी गोल गहरी धसी आँखें खुशी से उछल कूद रही थी… | जगत के पिता ने पहले तो इधर-उधर की बात कर भूमिका बांधी, फिर दाएं-बाएं देख कर पूरी बात कह डाली। सुनते लल्लू पडित मुह बाए जगत के पिता का मुह ताकने लगे….राम! राम! राम! चारपाई से उठ खड़े हुए “इ तो भयंकर अनर्थ हो गया।” हाड़ बुद्धि सब गयी। जगत के पिता हाड़ मांस के ढ़ाचे में खड़ा मात्र जीवित प्राणी थे। भहरा कर खटिया पर बेहोश हो गये….लल्लू पंडित ने घर में से पानी मंगा चेहरे पर छिड़का ..होश आया,आँख खोलते लल्लू का पैर धर रोने लगे ….बचाईए, आप ही का आसरा है। लल्लू मन ही मन मगन थे पर चेहरे पर आक्रोश का भाव पूरी तरह बनाए थे। जगत पर पहले से निगाह थी और बनिया सौदा लिए खुद ही दुवार पर चढ़ा था।

चाय-पानी करा घर के पिछवारे साधना स्थल पर ले गये। छोटा सा पोखरा …..पोखरे के किनारे शिवाला, दो मड़ई सामने की तरफ ….जिसमें चौकी पर कुछ पोथी-पतरा रखा था। धूप चढ़ आया था….कुछ आदमी औरत झाड़ फूंक कराने के लिए आकर बाट जोह रहे थे। देखते हाथ जोड़ कर खड़े हो गये…लल्ल पंडित आशीर्वाद की मद्रा में हाथ उठा .शिव! शिव! शिव! रटते आसन पर जम गये। भक्तों को झट निबटा पोथी पतरा उलाटने-पलाटने लगे ….कुछ देर बाद गहरी साँस छोड़ते हुए मुस्कुराकर कहा… “बुद्धि सुद्धि महायज्ञ” करना होगा। जगत के पिता ने बुझे मन से कहा….करिए….का का चाहिए? लल्लू गजब जाल फैलाउ बाभन थे ….मछली कांटे में फंस चुकी थी ….पहले तो भाई जी लड़के का हाड़ जनेव वाले शुद्ध ब्राह्मण की लड़की से ब्याह करा गंगा नहलाइए फिर संकल्प होगा…. उ त आपो जानते हैं कि बिना पत्नी के जग्य नहीं होता। ….कुछ सोच कर एक रुद्राक्ष की माला गले से निकाल हाथ पर रखते हुए कहा…पहना दीजिएगा बाबू को..मलेच्छ नहीं छुएगा। जगत के पिता माला थैली में डाल घर पहुँचे। पत्नी आँगन में बैठ चश्में में आँख गड़ाए कुछ सिल रही थीं….पास जाकर बैठ गये ….जो सुना सब कह सुनाया,…जगत भी पिता को देख आकर पास खड़े हो गये… | तनी संकोचते हुए कहा…छोटकी भाभी के घर वाले बढ़ियाँ बाभन हैं, कितनी बार आ चुके, हाँ कर दीजिए। अनीता भाभी के चाचा की लड़की थी। जगत पिछले चार साल से प्रेम में पड़े थे। आज मौका देख मन की बात कह दी। माँ छोटी बहू को तनिक पसन्द नहीं करती थीं। कारण आते पति के साथ शहर निकल गयी..जबकि बेटा गाँव में ही पोस्टिंग चाहता था। चुप्पी तोड़ी…उसके बाप की फुआ मनिहारे संग भागी थी… सच्चा नहीं है। जगत को सनते साँप संघ गया। पिता भी नापसन्द ही करते थे….ना में गर्दन हिलाया। थैली से माला निकाल पहनने को दे खेतों की ओर निकल गये।

अनीता से शादी की अस्वीकृति की पीड़ा थी कि जगत के सपनों से सुअर का भय लुप्त हो गया। पिता सोचते लल्लू के माले का प्रभाव है। छरू महीने बीत गये..परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर गये…दो महीने बाद सरकार ने बी.एड. पास अभ्यर्थियों के लिए प्राईमरी स्कूलों में बंपर भर्ती निकाली। जगत चार माह बाद प्रशिक्षु शिक्षक बन ट्रेनिंग लेने लगे। तिलकहरुओं की भीड़ लगने लगी….पर मामला हाड़ जनेउ के सुच्चे बाभन पर आ कर अटक जाता। जांच पड़ताल के बाद कोई न कोई खानदान का उजागर हो ही जाता । इधर लल्लू पंडित मचर माटा से बेचैन रात दिन जगत का बियाह काटने में जटे रहते। अपने भक्तों को चारों गाँवों, सोलह पट्टी में फैला रखा था। पल-पल की खबर रखते कि कौन-कौन आज जगत के दरवाजे पहुँचा। लल्लू जानते थे कि ऐसे सीधे हाथ उनकी बेटी जगत के साथ ब्याहने से रही। बाप बिना मोटी रकम गांठे ब्याह के लिए हामी नहीं भरेंगे और वह ठहरे कथावाचक साधारण बाभन, इस लिए सारे हथकंण्डे आजमा रहे थे….पर दाव थे कि खाली जा रहे थे। एक शाम मन मजबूत कर माधोपुर बाभन टोला लाव लश्कर संग पहुँच गये। …जगत के बड़े भाई सपरिवार आए हुए थे। घर में बच्चों के चहल-पहल से रौनक थी, जगत को पहली तनख्वाह मिली थी। सबको देशी घी के मोती चूर के लड्डू खिलाए जा रहे थे।

दरवाजे पर पहुँचते धधाकर जगत के बड़े भाई के गले लगे….कुशल क्षेम के बाद कुर्सी पर बैठ गये…मिठाई पानी होने लगा। जगत के पिता को छोड़ सभी लल्लू को देख सामान्य थे…दर दयाद, टोला मुहल्ला जुटा था। बेचारे पिता भयभीत थे लल्लू से कि कहीं राज उगल न दे। लल्लू ने मौका देख कर नज़र चुराते जगत के पिता से पूछा….कहीं बाबू का बियाह तय हुआ कि नहीं…साल भर बाद हम भी कुछ नहीं कर पाएंगे भाई जी। कह मुस्कुराने लगें। इतना सुनते जगत के बड़े भाई पिनक गये…का कहें चाचा….एक से एक पार्टी आ रही है, मस्टराईन लड़कियाँ मिल रही हैं और बाउजी हैं कि हाड़ जनेव लिए बैठे हैं…क्रोध में आवाज और ऊंची हो गयी… पिता की तरफ देखते हुए….कौनों पाप किए हैं बबुआ कि कउवा का मास भक्षे हैं? .इतना सुनते जगत और पिता की साँस गले में अटक गयी….लल्लू की बाछे खिल गयीं बाप बेटे के चेहरे का भय देख कर | भय है तो भक्ति…यज्ञ के न होने का कोप बाप बेटे को सामने दिखने लगा। लल्लू का इशारा पा साथ आए महेश यादव ने कहा …हे हे हे…महराज! का हाड़ जनेव में उलझे हैं, इलाके में लल्लू महाराज से सुच्चा बाभन कौन है। आ लड़की भी इसी भरती में मास्टरी पाई है।

जोड़ जुगत इससे निम्मन क्या होगा। जगत के बड़े भाई की तरफ देख कर….ठीक कहते हैं न महराज?…दरवाजे पर सन्नाटा छा गया…जगत को न रोना बन रहा था न हँसना..अनीता से ब्याह के उम्मीद की अन्तिम इति श्री सामने थी। पिता भी पस्त थे लल्लू के दाव के सामने… जानते थे ना करने पर पूरे इलाके में इज्जत लूट लेगा …न माया मिलेगी न राम, जिस प्राईमरी के मास्टर का खुला ब्याह भाव इन दिनों पाँच लाख नगद और चार चक्का गाड़ी चल रहा था, कौड़ी के मोल निकल रहा था। अब कोई चारा नहीं था…मन मार कर हामी भरी…लल्लू की ओझैती उन्हें तनिक नहीं सुहाती थी…और आज उसी ओझा सोखा की लड़की घर लानी पड़ रही थी। शाम तक दिन बारी तय हो गया…माँ को छोड़ सभी का मुँह गिरा था… माँ खुश थी कि लड़की गाँव में ही मस्टराईन थी, हमेशा साथ रहेगी। दस दिन के अन्दर बरछा, तिलक, ब्याह सब निबट गया।

जगत उस दिन को मन भर कोसते जिस दिन टर गये. रोए धोए और अन्त में सब किस्मत की मार मान सन्तोष कर लिया। माह भर बाद ससुर के साथ बनारस सपत्नीक जा गंगा नहा आए….लल्लू पंड़ित ने अपनी आराधनास्थली पर गुप्त यज्ञ किया। प्रसाद दामाद को अन्तिम दिन खिला मगन घर लौट रहे थे…..अचानक मोटरसाईकिल के आगे हांफती सुअर आ कर खड़ी हो गयी….लल्लू ने सुअर को देख कर मुस्कुराते हाथ जोड़ते हुए कहा….देवी आभार जो उपकार किया, बिना दहेज के बेटी योग्य वर संग गयी…इस जीव जगत का हर प्राणी महान। और बिना सुअर के रास्ता काटने का मन्त्र पढ़े गाते गुनगुनाते आगे बढ़ गये……. ।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’