भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
पत्रकारिता में गहरी डुबकी लगाने के बाद भैरोनाथ की तीसरी आंख खुल गई। उन्हें लगा कि पत्रकारिता अब देश की सेवा नहीं रह गई है, एक नौकरी भर है। आम आदमी की मूलभूत समस्याओं पर नजर रखने के बजाय अब कई अखबार कुछ बड़े लोगों के हितों की रक्षा कर रहे हैं। अखबार धन और प्रभाव अर्जित करने के लिए निकाले जाते हैं। पत्रकारिता की दुनिया के कई नामी लोगों से भैरोनाथ का परिचय था। तभी अचानक भैरोनाथ के मन में आया कि उन्हें खुद एक स्तरीय और इलेक्ट्रानिक अखबार निकालना चाहिए। यह बहुत बड़ा रिस्क था। वे एक बड़े अखबार में नौकरी कर रहे थे। भले ही उपसंपादक की नौकरी। लेकिन वेतन से परिवार का खर्च चल जाता था, बच्चों की फीस जमा हो जाती थी और छोटे-मोटे शौक पूरे हो जाते थे। सार्वजनिक कार्यकलापों में सक्रिय रहने के कारण भैरोनाथ को कई महत्त्वपूर्ण नेता और बड़े अधिकारी जानते थे। उनका मन अपना इलेक्ट्रानिक अखबार निकालने के लिए बेचैन हो गया। लेकिन उनके पास बड़ी पूंजी नहीं थी। इलेक्ट्रानिक अखबार तो छोटी पूंजी से वे शुरू कर सकते थे। लेकिन जोरदार अखबार तभी निकल सकता है, जब बाकायदा वेतनभोगी स्टाफ रखा जाए, संवादददाता रखे जाएं, विशलेषक रखे जाएं। स्तंभकार हों। इतनी पूंजी उनके पास नहीं थी। उन्हें लगता था उनके भीतर एक ईमानदार आदमी बैठा है, जो कह रहा है कि देश की व्यवस्था में जो खामियां हैं, उनको उजागर करके उसे ठीक किया जा सकता है। गरीबों की बेहतर चिकित्सा में मदद की जा सकती है, उनके बच्चों को उच्च शिक्षा दी जा सकती है। कई बार ऐसा भी होता है कि जब आदमी के पास कमाई का कोई जरिया नहीं होता तो उसकी केंद्रीय चिंता नौकरी या कोई धंधा शुरू करना होती है। पहले रोजी-रोटी, घर, रुपया। बाकी कोई चीज उसे अच्छी नहीं लगती। पहले जीवन तो स्थिर हो। उसके बाद बातें कर लेंगे राजनीति, दर्शन और संस्कृति की। लेकिन ज्योंही जीवन स्थिरता की तरफ बढ़ने लगता उनकी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। मूल्य बदल जाते हैं। सिद्धांत बदल जाते हैं | भैरोनाथ इसके प्रति भी चेतना जगाना चाहते थे। इसीलिए लगता था, उन्हें एक अखबार जरूर निकालना चाहिए। कोई अति धनवान व्यक्ति मदद कर दे तो अखबार का प्रकाशन संभव हो जाएगा।
भैरोनाथ ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक जिले से महानगर में आकर अपनी थोडी बहत पहचान बनाई। उनके एक मित्र का एक रोचक किस्सा है। भैरोनाथ और श्याम सुंदर बचपन के दोस्त थे। भैरोनाथ ने शादी कर ली पर श्याम सुंदर शादी के सख्त खिलाफ। वे समाज सेवा करना चाहते थे। श्याम सुंदर कहते थे कि शादी नहीं करेंगे तो जिम्मेदारियां कम होंगी और आजादी के साथ जो चाहेंगे, कर पाएंगे। लोग उनसे पूछते कि शादी नहीं करेंगे तो बुढ़ापे में आपकी देखभाल कौन करेगा? बाल-बच्चे और पत्नी के बिना आपको बुढ़ापे में पूछेगा कौन? आप अशक्त होंगे, शरीर काम नहीं करेगा तो एक गिलास पानी कौन देगा? श्याम सुंदर कहते कि आखिर इस देश में आजीवन शादी न करने वाले लोग हैं ही। उनका बुढ़ापा जैसे कटता है, वैसे ही मेरा बुढ़ापा भी कट जाएगा। कुछ लोग श्याम सुंदर को पलायनवादी कहते थे। लेकिन पचास साल की उम्र में श्याम सुंदर ने शादी कर ली। पत्नी की उम्र चालीस साल। लोगों ने पूछा यह चमत्कार कैसे हुआ? श्याम सुंदर बोले- जीवन में फैसले बदलते रहते हैं। परिस्थितियां बदलती हैं, समाज बदलता है तो क्या आदमी नहीं बदलेगा? उसकी सोच नहीं बदलेगी? भैरोनाथ ने श्याम सुंदर का यहां भी समर्थन किया।
भैरोनाथ तीन भाई थे। दोनों भाइयों की ऊपरी कमाई थी, नतीजा यह था कि उनके लिए धन-दौलत, सुंदर मकान और कार सामान्य बात थी। भैरोनाथ न ऊपरी कमाई चाहते थे और न जरूरत से ज्यादा धन-दौलत । उनके ऊपर पत्रकार के रूप में जनसेवा का भूत सवार था। लोगों ने कहा कि आपकी अच्छी- खासी नौकरी है, आर्थिक सुरक्षा बहुत बड़ी चीज होती है। नौकरी छोड़ कर अखबार निकालने का खतरा मत लीजिए। अखबार नहीं चला तो आप कहीं के नहीं रहेंगे। लेकिन भैरोनाथ अलग ही मिट्टी के बने थे। जो धुन सवार हो गई, उसे पूरा करने के बाद ही उन्हें चैन मिलता था। उन्होंने तर्क दिया कि आम आदमी को सूचना पाने का अधिकार है लेकिन ज्यादातर अखबार अधूरी सूचनाएं दे रहे हैं, वह चीजें छाप रहे हैं जो न भी छपतीं तो कोई फर्क नहीं पड़ता। कुछ ही अखबार हैं जो आम आदमी के हित से जुड़ी सूचनाएं और जानकारियां, समाचार या रिपोर्ट के रूप में छाप रहे हैं और अनाचार, भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे हैं। आम आदमी तक सूचनाएं ईमानदारी के साथ पहुंचाना जरूरी है। भैरोनाथ भ्रष्टाचार, अत्याचार, बेईमानी की पोल खोलेंगे और एक वैचारिक क्रांति का रास्ता तैयार कर देंगे। उनको लगता था कि देश के कई क्षेत्रों में भ्रष्टाचार चरम पर है, चिकित्सा व्यवस्था नाकाम है और गरीब और मध्यवर्ग उचित इलाज के लिए दर-दर ठोकरें खा रहा है। दूर गांव-गिरांव के लोग, छोटे जिलों के रोगी जब रेफर कर अपेक्षाकृत बड़े शहर के अस्पताल में भेजे जाते हैं तो खराब सड़क के कारण रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं। हर जिले में एक बहुत बड़ा और उच्च कोटि का अस्पताल होना चाहिए। हर जिले में एक उच्च कोटि का डायग्नोस्टिक सेंटर होना चाहिए, जो किसी मरीज की जांच की फीस में किसी दलाल का कमीशन न जोड़े। भैरोनाथ को लगता था इस नौकरी में मजा नहीं है। अखबारों पर बाजार का दबाव है, एक गरीब देश बेमतलब अति बाजारवाद का शिकार हो गया है। इसका प्रतिकार जरूरी है। लेकिन क्या सारा दोष अखबारों का ही है? रोज तो अनाचार, भ्रष्टाचार की खबरें छपती हैं। आम आदमी कहां आंदोलित होता है? नई पीढ़ी का बहुसंख्यक हिस्सा अनावश्यक रूप से व्हाट्सएप्प और इंस्टाग्राम में लिप्त है। व्हाट्सएप्प पर सबकी अपनी-अपनी दुनिया है। कुछ ही लोग सोशल मीडिया का सही इस्तेमाल कर रहे हैं।
नौकरी छोड़ने के पहले, किसी बड़े धनवान व्यक्ति से इलेक्ट्रानिक अखबार निकालने की बात पक्की करने के लिए उन्होंने एक महीने की छुट्टी ली और दिल्ली चले गए। कई मित्रों से उन्होंने अखबार निकालने को लेकर बातें की। सबने यही सलाह दी कि चुपचाप नौकरी करते रहो। सुरक्षित नौकरी छोड़ कर पागलपन मत करो। लेकिन भैरोनाथ को पता नहीं क्या हो गया था कि उनका मन बार-बार कह रहा था कि अखबार निकाले बिना वे मनुष्य जीवन का अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर पाएंगे। भैरोनाथ जिस सक्षम व्यक्ति से नए अखबार में पूंजी लगाने को कहते, वह उन्हें शिक्षा देने लगता- “पागल हो गए हो क्या? तुम्हारे अखबार निकालने से क्या क्रांति होगी? मान लो तुमने पाठकों की चेतना झकझोर ही दी। तो पाठक सड़क पर उतर जाएंगे? नहीं भाई नहीं। और तुम जिसके खिलाफ छापोगे, वह क्या चुप बैठ जाएगा? भ्रष्टाचार करने वालों के हाथ बड़े लंबे और मजबूत होते हैं। बड़े अखबारों और टीवी चैनलों की बात दूसरी है। उनका अपना परिचय है, जुगाड़ है। पर तुम? तुम तो डूबोगे ही भाई हमको भी ले डूबोगे। बड़े-बड़े पत्रकार आए और क्रांति करके चले गए। कुछ नहीं हुआ। जिस सिस्टम के खिलाफ तुम लड़ने जा रहे हो, वह इतना मजबूत है कि तुम सोच भी नहीं सकते।”
भैरोनाथ सोच में पड़ गए। हर जगह एक ही बात। आम आदमी की मदद से क्या एक क्रांतिकारी अखबार निकाला जा सकता है? आखिरकार बूंद-बूंद से तालाब भरता है। पर आम आदमी उस एक बूंद का इस्तेमाल कहां-कहां करे। भैरोनाथ के रातों की नींद उड़ गई। तभी उन्होंने एक व्यंग्य लेख पढ़ा। उसमें एक नेता जी ने कहा था कि जैसे लोग हमें वोट देकर आराम से सो जाते हैं, उसी तरह हम भी चुनाव जीतने के बाद जनता की तरफ पीठ फेर कर सो जाते हैं। भैरोनाथ को लगा कि ऐसा ही कुछ वो अपने अखबार में भी छापेंगे। नहीं, लोग भोगवाद में गहरे नही फंसे हैं। उनमें अब भी चेतना है। अब और जातिवाद, संप्रदायवाद नहीं चलेगा। सबके दुःख एक तरह के हैं। जाति, धर्म, ऊंच-नीच सबके परे जाकर लोगों को असली समस्या समझनी होगी। देश को मजबूत करना होगा।
तभी एक चमत्कार हुआ। एक बड़े पद पर बैठे मित्र की मदद से भैरोनाथ की मुलाकात गौरांग कुमार नाम वाले एक धनी व्यक्ति से हुई। गौरांग कुमार ने भैरोनाथ से पूछा कि वे कैसा अखबार निकालना चाहते हैं। भैरोनाथ तो अखबार का ब्लूप्रिंट अपने बैग में लेकर घूमते थे। वे उसे बहुत से लोगों को दिखा चुके थे। वही प्रोजेक्ट/ ब्लूप्रिंट उन्होंने तुरंत निकाला। विस्तार से बताया कि कैसे वे भ्रष्टाचार, सिस्टम के षड्यंत्रों और आम आदमी के खिलाफ हो रही हर गतिविधि के खिलाफ लिखना चाहते हैं। गौरांग कुमार मुस्कुराए और बोले- “वाह, मैं भी ऐसा ही अखबार निकालना चाहता हूं… लेकिन एक दिक्कत है।” भैरोनाथ चिहुंक गए। उनको लगा कि एक सुनहरा मौका उनके हाथ से निकलने वाला है। भैरोनाथ के हाथ प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गए। वे बोले– “तो सर, उससे क्या। मैं पागल हूं क्या कि आपके खिलाफ लिखूगा । अपने ही पैर पर कौन कुल्हाड़ी मारता है?”
गौरांग कुमार बोले- “लेकिन जिस बड़े सरकारी अफसर के खिलाफ आप लिखेंगे, भले ही वह चरम भ्रष्ट हो, वह मेरे ऊपर छापा भी डलवा सकता है। कई तरह से तंग कर सकता है। तब क्या होगा? आप नहीं जानते इस दुनिया में कितने घाघ लोग बैठे हुए हैं। आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
भैरोनाथ ने कहा- “ठीक है, जब आपके ऊपर कोई दबाव आए तो आप हमें हटा दीजिएगा। और रही बात मुकद्दमों की तो मुकद्दमे तो अखबार पर होते रहते हैं। उसके लिए अखबारों में एक लीगल टीम होती है। वह ऐसे मामले आराम से टेकिल करती है। आपको बचा कर ही मैं कुछ भी करूंगा। मेरी ओर से आप निश्चिंत रहिए।”
रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स के ऑफिस से अखबार का नाम एप्रूव हुआरोशनी की किरण । तय हुआ “रोशनी” बड़े टाइप में छपेगा और “कीकिरण T” छोटे टाइप में। स्टाफ के लिए विज्ञापन निकालने की नौबत नहीं आई क्योंकि भैरोनाथ के बहुत से परिचित पत्रकार थे जो अपना अखबार छोड़ कर दूसरा अखबार ज्वाइन करना चाहते थे। किसी को अपने अखबार की गंदी राजनीति से नफरत थी तो कोई अपने बॉस से नाराज था। कई लोग अपने वेतन से असंतुष्ट थे। अखबार का प्रकाशन शुरू करने से पहले गौरांग कुमार ने भैरोनाथ को शिक्षा दी- “हठ बुरी चीज है। अखबार निकालने जा रहे हैं तो तनिक लचीला बनिए। रिजिड आदमी टूट जाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ खूब लड़िए। पर कहीं-कहीं रणनीति से काम लीजिए। हर जगह लाठी या जिद से काम नहीं होता। एक सफल आदमी होने के लिए तालमेल बिठाने की कला भी आनी चाहिए। कभी-कभी कंप्रोमाइज करना भी बुरा नहीं है। खासतौर पर तब, जब आपकी विचारधारा के लोग कम संख्या में हों। आपको संपादक बनने के पहले सफल कूटनीतिक बनना पड़ेगा।” भैरोनाथ एक अनुभवी धनाढ्य व्यक्ति की बातें एक आज्ञाकारी विद्यार्थी की तरह सुन रहे थे। उस क्षण भैरोनाथ को गौरांग कुमार की बातें सही लगीं। गौरांग कुमार को दो क्लर्क या पीए मिले। दोनों ही लड़कियां थीं।
भैरोनाथ अखबार निकालने की उत्तेजना में जीने लगे थे। पहले अंक में यह छापूंगा। फिर यह । भ्रष्टाचारियों की जड़ें हिला कर रख दूंगा। रोज कोई न कोई घोटाला छापूंगा। शरीफों के वेश में जो भी मक्कार और रक्तखोर मनुष्य विरोधी काम कर रहे हैं, उनका भंडाफोड़ करूंगा। भैरोनाथ को लगा कि यह उनके जीवन का सबसे सुखद क्षण है। “रोशनी का पहला अंक सचमुच धमाकेदार निकला। भैरोनाथ ने पहले पेज पर छपे अपने लंबे संपादकीय में बताया कि आजादी के बाद से लेकर अब तक देश की प्रगति कितनी धीमी हुई। क्योंकि मूल स्रोत से चला एक रुपया आम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते सिर्फ 15 पैसा हो जाता है। बिचौलिए और दलाल कहां-कहां बैठे हैं, कैसे लूटते हैं? इसे कैसे सुधारा जा सकता है? कहां-कहां निगरानी की जरूरत है? भ्रष्टाचार का पौधा किसने लगाया और कैसे वह वटवृक्ष बन गया? कैसे कुछ लोग उसे अमर बनाना चाहते हैं? लोकतंत्र की परिभाषा क्या है? वगैरह, वगैरह। एक पन्ने पर यह भी था कि हर साल लोगों की चिकित्सा व्यवस्था पर बजट का कितना प्रतिशत हिस्सा दिया जाता है और किस तरह से यह बहुत कम है? कैसे कई लोग जरूरी चिकित्सा और दवाओं के अभाव में मर रहे हैं? कैसे एक गरीब देश में प्राइवेट अस्पताल कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं? क्योंकि सरकारी अस्पताल बेहाल हैं। कहां लूट मची है और कैसे गिने-चुने अस्पताल चिकित्सा खर्च न देने पर लाश को भी बंधक बना लेते हैं? ऐसी खबरें अखबार में विस्तार से छापतीं, लेकिन इन गतिविधियों में लिप्त अस्पतालों पर कोई असर नहीं पड़ा। उस समय एक वैश्विक महामारी कोरोना के कारण देश में हाहाकार मचा हुआ था। देश क्या पूरे विश्व में यह हाहाकार था। लेकिन भैरोनाथ अपने देश पर केंद्रित खबरें ज्यादा छापते थे। कोरोना जब चरम पर था तो अस्पतालों में भर्ती होना एक चमत्कार से कम नहीं होता था। अस्पतालों में जगह नहीं थी तो लोग अस्पताल के फर्श पर सो कर इलाज कराने को राजी थे। घटिया और नीच लोग कालाबाजार में आक्सीजन सिलिंडर और आक्सीजन कंसंट्रेटर को, उसकी असली कीमत से दस गुना धन लेकर उसे बेच रहे थे। क्यों? क्योंकि कोरोना सबसे पहले फेफड़े पर हमला करके उसे नुकसान पहुंचाता था। फिर हृदय, किडनी, लीवर और शरीर की सारी एनाटमी रोग की चपेट में आ जाती थी। रोगी का आक्सीजन लेवल 96 से घटते-घटते 55 और उसके भी नीचे चला जाता। आक्सीजन लेवल का इस स्तर पर गिरना यानी मृत्यु। जिसे आक्सीजन मिला वह बचा, वरना आक्सीजन के बिना मरने वालों की संख्या किसी को पता नहीं चलती। त्राहि-त्राहि मची थी। आखिर दुनिया के कई देशों ने आक्सीजन कंसंट्रेटर भेजे, दवाइयां भेजीं। सरकार भी कुछ तत्पर हुई। पर आक्सीजन की कमी बनी रही। सांस के लिए तड़प रहे मरीजों के परिजन गहना बेच कर, कर्ज लेकर, किसी तरह महंगा आक्सीजन कंसंट्रेटर या सिलिंडर खरीद रहे थे। कई कालाबाजारिए कोरोना की अनुमानित दवा रेमडेसिविर दो हजार की बजाय 25 हजार रुपए में बेच रहे थे। भैरोनाथ चकित थे कि ये कालाबाजारिए तड़पते रोगियों और महामारी में फंसे मनुष्य का दोहन कैसे कर रहे हैं? क्या ये अजर-अमर होकर आए हैं? क्या ये नहीं मरेंगे? जीवन और मृत्यु का फासला क्षण भर का है। महामारी में मनुष्य का जीवन पानी का बुलबुला दिख रहा था। लेकिन काला बाजारिए समझते थे कि तड़पते, बेहाल रोगियों का जो धन वे लूटे जा रहे हैं, उसे मृत्यु बाद भी अपने साथ ले जाएंगे। ऐसे धन को वे पवित्र मान रहे थे और खुश हो रहे थे कि उनके बेटे, पोते और आने वाली पीढी सखी रहेगी। भैरोनाथ इन कालाबाजारियों के खिलाफ खुब छाप रहे थे और उनको रंगे हाथ गिरफ्तार भी किया जा रहा था। लेकिन फिर कोई नया कालाबाजारी पैदा हो जाता था। क्या ये मनुष्य के रूप में राक्षस हैं? भैरोनाथ अपने अखबार में सवाल उठाते। श्मशान घाटों पर शवों की लंबी लाइन। लाशें जलाते-जलाते बिजली के चूल्हे बार-बार खराब हो जाते। अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में जब श्मशान घाटों का फोटों छपता तो लोग दृश्य देख कर सिहर जाते। समूचे देश में भय और आशंका पसरी हुई थी। ऐसी भी खबरें आ रही थीं कि मां की कोरोना से मृत्यु हुई तो बच्चों ने कह दिया कि वे लाश लेने नहीं आएंगे, आपको जो करना है कर दीजिए। नगरपालिका या सरकारी लोग अंतिम संस्कार करते। कोरोना ने रिश्तों पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। जिस मां ने उन्हें कोख में रखा, उन्हें पाला-पोसा, ममता दी, वह सम्मान सहित अंतिम संस्कार की हकदार भी नहीं रही। उसके अपने बेटों ने उसके पास इसलिए जाने से इंकार कर दिया कि कहीं उन्हें भी कोरोना न हो जाए । भैरोनाथ अपने अखबार में ये सारे किस्से छाप रहे थे और कह रहे थे कि मनुष्यता तार-तार हो चुकी है।
पहले से ही चौंकाऊ विज्ञापन के कारण “रोशनी” के बारे में सबको पता था। इसलिए प्रकाशन शुरू होते ही अखबार हिट हो गया। भैरोनाथ समाचारों और विशेष रिपोर्टों के जरिए एक पर एक धमाके किए जा रहे थे। कछ ही हफ्तों में इस ई अखबार की पाठक संख्या 50 हजार पहुंच गई। एक साल बीत गया। अखबार का नाम अधिकतर इलेक्ट्रानिक पाठकों के लिए अब सुपरिचित हो चुका था । भैरोनाथ को लगा कि अब यही जीवन परमानेंट है। इसी तरह जीवन चले और देश में असली लोकतंत्र का बिगुल बजता रहे। दो साल बीत गए। तभी अचानक एक दिन गौरांग कुमार ने भैरोनाथ को बुलाया और उनसे पूछा कि अखबार कैसा निकल रहा है? भैरोनाथ ने कहा- अखबार तो हिट है। सभी लोग तारीफ कर रहे हैं।
गौरांग कुमार- कौन तारीफ कर रहा है?
भैरोनाथ- सभी. पाठक, बद्धिजीवी, लेखक.. आम आदमी।
गौरांग कुमार- कौन आम आदमी?
भैरोनाथ अवाक | बोले- आम आदमी। पाठक।
गौरांग कुमार- पाठक लेकर क्या हम चाटेंगे? विज्ञापन तो एक पैसे का नहीं आ रहा है।
भैरोनाथ- आपने कहा था कि आपके विज्ञापन विभाग वाले बहुत पहुंच और रसूख वाले हैं।
गौरांग कुमार- उनकी प्रतिभा काम नहीं आ रही है। अखबार का स्तर और सुधारिए। विज्ञापन नहीं मिलेगा तो हम घर से कितने दिन तक वेतन देते रहेंगे? या तो अखबार बंद करना पड़ेगा या संपादक बदलना पड़ेगा। सोचिए । थोड़ी देर गौरांग कुमार के चैंबर में सन्नाटा छाया रहा। फिर गौरांग कुमार बोले- “जाइए”।
भैरोनाथ पर वज्रपात हो गया। उनका स्टाफ भी अब उनसे बहुत अजीब तरह का व्यवहार करने लगा था। उन्हें शक होने लगा कि कुछ रिपोर्टर यहां से वेतन लेने के बावजूद कुछ-कुछ नेताओं के पे रोल पर हैं। उन्हीं नेताओं की खबरें और फोटो छप रहे हैं। यहां तक कि उनके लेख भी छप रहे हैं। वे एक ऐसे व्यक्ति को जानते थे, जो एक लाइन नहीं लिख सकता। लेकिन उसके नाम से एक जबर्दस्त लेख छपा था। बिना उनकी जानकारी के। सहायक संपादक को बुला कर पूछा तो पता चला अखबार के मालिक गौरांग कुमार का आदेश था। भैरोनाथ इस बदले कामकाज के तरीके से हैरान थे। उनके मन के खिलाफ कुछ छप जाता तो सहायक संपादक को वे कड़ी फटकार लगाते। उसके तुरंत बाद ही गौरांग कुमार का फोन आ जाता था कि वे स्टाफ के लोगों को अनावश्यक रूप से न डांटें। भैरोनाथ ने पाया कि जिस दिन वे खबरें छपतीं जो भैरोनाथ को पसंद नहीं थीं, ठीक उसके अगले ही दिन फुल पेज का एक रंगीन विज्ञापन छपता था । भैरोनाथ इसके सख्त खिलाफ थे कि किसी फिल्मी हीरो के किसी छोटे बच्चे का फोटो छपे और अनावश्यक रूप से कहा जाए कि बच्चा बड़ा प्यारा है। बच्चे तो प्यारे होते ही हैं। लेकिन भैरोनाथ की एक न सुनी जाती। जो खबर नहीं थी, उसे भी खबर बना कर छापा जाता क्योंकि उससे धन मिलता था । भैरोनाथ को लगा कि उनके कंट्रोल में अब उनकी पीए भी नहीं है। जो दो लड़कियां उन्हें पीए के रूप में मिली थीं, वे भी अब उनसे नहीं डरती थीं। भैरोनाथ अखबारी दुनिया के पुराने आदमी थे। वे समझ गए कि उनके जाने का समय आ गया है। आखिरकार एक दिन उनके एक जूनियर व्यक्ति को उनकी जगह बैठा दिया गया। गौरांग कुमार के कहने पर भैरोनाथ ने संपादक की कुर्सी छोड़ दी और सोशल मीडिया पर सक्रिय हो गए। उन्होंने अभिव्यक्ति का माध्यम फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप्प और यू ट्यूब चुना। देशहित के लिए काम करना उनका जुनून था। अच्छा काम करने पर वे प्रधानमंत्री की प्रशंसा करते। सोशल मीडिया पर उनके बहुत फालोवर नहीं थे। फिर भी उनका उत्साह कम नहीं हुआ। उन्होंने तय किया कि भ्रष्टाचार का दैत्य चाहे जितना बड़ा हो, उसके खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखनी है। हम मर जाएंगे तो कोई और यह लड़ाई लड़ेगा। उनकी विचारधारा के सच्चे लोग हमेशा इस दुनिया में रहे हैं और रहेंगे। लड़ाई बंद होगी तो आम आदमी हाशिए पर चला जाएगा। उसकी आवाज कोई नहीं उठाएगा और न कोई सुनेगा। इसलिए लड़ाई जारी रहेगी।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
