Phule Movie Review: आनंद महादेवन की ‘फुले’ ऐसी कहानी को परदे पर लाने की कोशिश करती है, जिसे बॉलीवुड ने वर्षों तक अनदेखा किया और शर्तिया अब तो आगे भी करती रहेगी क्योंकि ऊबाऊ तरीके से अगर आप कोई बात रखेंगे तो कोई भी इसमें दोबारा रुचि नहीं लेगा। यह दलित जागरूकता और सामाजिक सुधार की असली लड़ाई थी लेकिन जाया हो गई। ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले का संघर्ष भारतीय समाज में शिक्षा और समानता का ज्ञान देने वाला ऐतिहासिक अध्याय है लेकिन अफसोस, इतनी महत्वपूर्ण गाथा को पेश करने में अनंत महादेवन फेल हो गए। यह फिल्म केवल इतिहास-निबंध बनकर रह जाती है, ऐसा निबंध जिसे आप देख सकते हैं। इसमें संवेदनशीलता और सिनेमाई गहराई की भारी कमी है।

फिल्म की शुरुआत सुंदर नजारों और ऐतिहासिक संदर्भों के साथ होती है। आप देखते हैं कि किस तरह फुले परिवार को मंदिरों में आने से रोका जाता है और फूल उगाने वालों को भी अछूत मान लिया जाता था। सामाजिक अन्याय की ये झलकियां दुखी कर देने वाली होती हैं, पर फिल्म इन्हें जताने में विफल रहती है। ‘फुले’ के साथ दिक्कत यह है कि फिल्म बहुत जल्दी-जल्दी घटनाओं को समेटने में लग जाती है। प्लेग, अकाल, 1857 की क्रांति, फ्रांसीसी क्रांति, लिंकन का दास प्रथा खत्म करना… सब कुछ इतनी जल्दबाज़ी में दिखाया गया है कि कुछ भी पूरी तरह से मन में नहीं उतरता।

प्रतीक गांधी इतनी कमियों के बावजूद चमकते हैं। ज्योतिराव फुले के रोल में गंभीरता और धीरज देखने लायक है। उनकी चाल, आवाज और एक्सप्रेशन में क्रांतिकारी की झलक है। पत्रलेखा ने भी सावित्रीबाई को जिंदा किया है, लेकिन वे कहीं-कहीं आज के जमाने में पहुंच जाती हैं जिससे 19वीं सदी का माहौल बिगड़ जाता है।

फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसका लेखन और परदे पर उतारना है। ‘फुले’ घटनाओं की एक सतही फेहरिस्त बनकर रह जाती है। एक के बाद एक संघर्ष दिखाए जाते हैं लेकिन न तो पात्रों के आंतरिक द्वंद्व सामने आते हैं और न ही उनके जज्बात। सावित्रीबाई पर गोबर फेंका जाना, अलग कुएं की लड़ाई, विधवा ब्राह्मण महिला को शरण देना… सब कुछ जैसे टिक-मार्क करने के अंदाज में केवल दिखा दिया गया है, यह दिल को छूता नहीं है। संघर्ष दिखता है, पर दर्द महसूस नहीं होता।

ब्राह्मण विरोधी पात्रों को भी सतही तौर पर पेश किया गया। जैसे वे केवल फुले के विरोध के लिए ही बने हों और कोई व्यक्तिगत जटिलता या मानवीयता उनमें है ही नहीं। इससे संघर्ष की गंभीरता और द्वंद्व की गहराई कमज़ोर पड़ जाती है। हीरो के रास्ते में कोई ऐसा विरोध नहीं आता जो उसे हिला सके या दर्शक को बेचैन कर सके। कुछ सीन मजेदार हैं। एक तो वो है जब फुले अपने खिलाफ हत्या की साजिश पर चुटकी लेते हैं। विवाह संस्कारों के ब्राह्मण शुल्क का तर्क-वितर्क भी मजेदार है। बस इतने में खुश हो लीजिए… बाकी फिल्म एक सपाट है।

महादेवन और मुअज्जम बेग की ईमानदारी की तारीफ हो सकती है। वे फुले के विचारों को विकृत नहीं करते, न ही उन्हें ज़रूरत से ज्यादा ‘मसीहा’ बनाते हैं। फिल्म अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति, भेदभाव और धार्मिक पाखंड को कमाल के रूप में उजागर करती है। फिल्म शिक्षा तो देती है, पर प्रेरित नहीं करती। कुल मिलाकर यह जरूरी लेकिन औसत दर्जे की फिल्म है। इतिहास के इस महत्वपूर्ण अध्याय को कहने का तरीका इतना नीरस रहेगा तो कोई टिकट नहीं खरीदने वाला। सिनेमाघर तो मत ही जाइए, टीवी पर आए तो जरूर देखिएगा।

ढाई दशक से पत्रकारिता में हैं। दैनिक भास्कर, नई दुनिया और जागरण में कई वर्षों तक काम किया। हर हफ्ते 'पहले दिन पहले शो' का अगर कोई रिकॉर्ड होता तो शायद इनके नाम होता। 2001 से अभी तक यह क्रम जारी है और विभिन्न प्लेटफॉर्म के लिए फिल्म समीक्षा...