Summary: महाराष्ट्र के कोरकू गांवों में कैसे शुरू हुई घर-घर किताबों की पहल
महाराष्ट्र के अकोला जिले के कोरकू गांवों में पढ़ाई और किताबों की दुनिया ने एक नया रूप ले लिया है। यहां किताबें अब केवल लाइब्रेरी तक सीमित नहीं हैं, बल्कि घर-घर तक पहुंच रही हैं।
Maharashtra Koraku Village: महाराष्ट्र के अकोला जिले के छोटे-से गांव खिरकुंड खुर्द और इसके आसपास के गांवो में इन दिनों एक अनोखी हलचल है। यहां कोरकू समुदाय के लोग अधिक रहते हैं जहां शाम ढलते ही दरवाजों पर दस्तक होती है, लेकिन यह किसी मेहमान की नहीं, किताबों की दस्तक होती है। बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग सब किताबें लेने निकल पड़ते हैं। यह नज़ारा बताता है कि अगर पढ़ने का जुनून हो, तो किताबें अलमारियों में नहीं, लोगों के दिलों में जगह बना लेती हैं। तो आइए जानते हैं कि इस गांव में यह प्रथा कैसे शुरू हुई और लोगों को इसमें किस तरह की सुविधाएं मिल रही हैं।
गांव में घर घर दी जाती है किताब
आपको बता दे कई वजह से इस गांव के लोग किताबें नहीं खरीदते थे, जिसके बाद गांव वालों में किताब के प्रति रुचि बढ़ाने के लिए इस अनोखी पहल की शुरुआत उन्नति संस्था ने की। संस्था का मकसद था कि गांवों में पढ़ने की आदत को बढ़ावा दिया जाए। इसलिए किसी स्थायी लाइब्रेरी की जगह संस्था ने किताबों को सीधे लोगों तक पहुंचाने का तरीका अपनाया। संस्था के लोग झोलों में किताबें भरकर हर घर के दरवाजे तक पहुंचते हैं।
गांव वालों में बढ़ी पढ़ने की रुचि
एक रिपोर्ट के अनुसार, शुरुआत में लोग किताबें लेने से कतराते थे। कई घरों में दरवाजे बंद कर दिए जाते थे या लोग मना कर देते थे। लेकिन लगातार प्रयासों का असर हुआ। धीरे-धीरे वही लोग अब पूछते हैं, “नई किताबें कब आएंगी?” अब गांव में पढ़ना एक सामान्य और पसंदीदा काम बन गया है।
मातृभाषा में मिलती है किताबें

गांव में अब कई किताबें कोरकू भाषा में उपलब्ध हैं। पहले जिन लोगों ने अपनी भाषा में किताब नहीं देखी थी, वे अब इन्हें उत्साह से पढ़ते हैं। महिलाएं बताती हैं कि मातृभाषा में पढ़ने से वे बच्चों की पढ़ाई बेहतर समझ पाती हैं। बच्चे ड्राइंग वाली किताबों में खो जाते हैं, और महिलाएं रात में फुर्सत से पढ़ती हैं।
स्पीकर पर सुनाई जाती है कहानियां
जो लोग पढ़ नहीं सकते, उनके लिए महीने में तीन बार ‘भोंगा वाचनालय’ लगाया जाता है। इसमें बड़े स्पीकर पर कहानियां सुनाई जाती हैं। कभी-कभी गांववाले ‘चावडी वाचन’ करते हैं, जहां सब मिलकर जोर से किताबें पढ़ते हैं। वहीं, हर किताब कोरकू में नहीं होती, इसलिए कई किताबें पहले मराठी में ट्रांसलेट की जाती हैं और फिर मराठी से कोरकू भाषा में।
लोग खुद बने पढ़ने के साथी

अब गांव के लोग सिर्फ किताबें लेने वाले नहीं हैं, बल्कि इस पहल का हिस्सा बन गए हैं। कई लोग किताबें बांटने, वाचनालय चलाने और सत्र आयोजित करने में मदद करते हैं।बच्चे अपने दोस्तों को साथ लाते हैं, महिलाएं पड़ोसी को किताब थमा देती हैं। इससे गांव में पढ़ने की एक नई संस्कृति तैयार हो रही है।
गांव बना बदलाव की मिसाल
सिर्फ दो साल में इस छोटे से प्रयोग ने बड़ा असर डाला है।पहले किताबों से दूरी बनाने वाले लोग अब अपने बच्चों के लिए किताबें खरीदने लगे हैं। बच्चे, जो पहले केवल खेलते थे, अब किताबों के पन्ने पलटते दिखाई देते हैं। यह पहल साबित करती है कि अगर किताबें मातृभाषा में और घर-घर पहुंचें,तो पढ़ना एक अच्छा आदत बन सकता है।
