HAQ MOVIE STILL
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Summary: एक दिन शाजिया को भी बदला जाता है...

शादी के सालों बाद और तीन बच्चों की मां बनने के बाद, शाजिया को पता चलता है कि सिर्फ कुकर ही नहीं बदले जाते औरतें भी बदल दी जाती हैं। उसके पति ने ये काम चुपचाप, बिना उसे बताए किया है। वो दूसरी शादी कर चुका है।

समाज का एक्स-रे जानना चाहते हैं तो ‘हक़’ आपकी फिल्म है। ये आपको उन कमरों में लेकर जाती है, जहां आवाजें धीमी होती हैं पर जिंदगी पूरी तरह टूट रही होती है। निर्देशक सुपर्ण एस वर्मा ने इस कहानी को इतने सिंपल तरीके से पेश किया है कि मजा आ जाता है। किसी तरह की नकली चीजें यहां नजर नहीं आती हैं। यह फिल्म शांत है, ईमानदार है और अंदर तक चोट करती है।

कहानी शाजिया बानो (यामी गौतम) की है। एक साधारण लड़की, जो सोचती है कि शादी से उसका संसार खुशियों से भर जाएगा। जब वह अब्बास खान (इमरान हाशमी) के घर आती है, तो उसे पहला झटका किचन में मिलता है… तीन-तीन प्रेशर कुकर। नौकरानी से पता चलता है कि अब्बास पुरानी चीजों को नहीं संभालता, जो पुरानी हो गई, उसे हटाकर नया ले आता है। यही बात धीरे-धीरे उसकी शादी पर भी लागू होती है।

शादी के सालों बाद और तीन बच्चों की मां बनने के बाद, शाजिया को पता चलता है कि सिर्फ कुकर ही नहीं बदले जाते औरतें भी बदल दी जाती हैं। उसके पति ने ये काम चुपचाप, बिना उसे बताए किया है। वो दूसरी शादी कर चुका है। वो जोर से नहीं बोलता, वो गाली नहीं देता, वो हाथ नहीं उठाता… लेकिन वो अंदर से ऐसी चोटें देता है, जो निशान तो नहीं दिखातीं, पर याद हमेशा रहती हैं। ‘हक़’ इसी मानसिक हिंसा की फिल्म है। मर्दों की दादागिरी यहां राक्षस के रूप में नहीं दिखाई गई, बल्कि एक ‘सज्जन’, पढ़े-लिखे, ‘सुसंस्कृत’ मर्द के रूप में है। यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है। फिल्म हमें यह समझाती है कि हर क्रूर इंसान गंदे शब्दों में नहीं बोलता। कुछ लोग चुप रहकर भी दिमाग और आत्मा पर वार करते हैं।

यामी गौतम इस रोल में शानदार हैं। वो बहुत ऊंची आवाज में नहीं बोलती, पर आंखों और छोटे-छोटे इमोशंस से इतना कुछ कह देती है कि आप उनका दर्द महसूस करते हैं। ये उनका शायद सबसे मैच्योर परफॉर्मेंस है। दूसरी तरफ इमरान हाशमी का काम इस फिल्म में इतना नियंत्रित है कि यही नियंत्रण उनका खतरनाक हथियार बन जाता है। उनकी स्माइल भी किसी प्लानिंग का हिस्सा लगती है। उनकी शांति भी एक स्ट्रेटेजी है।

Emraan And Yami in HAQ MOVIE STILL
Emraan And Yami in HAQ MOVIE STILL

फिल्म का कोर्टरूम हिस्सा इसकी रीढ़ है। यहां लड़ाई सिर्फ पति-पत्नी की नहीं है, यहां बहस धर्म, कानून, मर्दानगी और महिला की पहचान की है। शाजिया सिर्फ अपना खर्च (मेंटेनेंस) नहीं मांग रही, वो अपनी इज्जत वापस मांग रही है। वो साबित कर रही है कि “हक़” सिर्फ शब्द नहीं, जीवन का अधिकार है। अब्बास खान अपनी चालें, अपने तर्क और अपनी छवि से सिस्टम को अपने पक्ष में झुकाने की कोशिश करता है। और यही वो जगह है, जहां ये फिल्म दर्शकों से जुड़ती है क्योंकि यह बहस सिर्फ 1980s में नहीं हो रही… आज भी चल रही है।

निर्देशक ने इस संवेदनशील विषय को बेहद बैलेंस ढंग से दिखाया है। कोई जानबूझकर डाली गई उत्तेजक लाइन नहीं, कोई चीख-चिल्लाहट नहीं। बस सच्चाई। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी और बैकग्राउंड स्कोर दोनों इस दर्द को और गहरा कर देते हैं। अंत में ‘हक़’ एक बहुत ईमानदार फिल्म बनकर सामने आती है। जो न सिर्फ मनोरंजन देती है, बल्कि जिंदगी और रिश्तों पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर देती है। इसे मिस नहीं करना चाहिए। 

ढाई दशक से पत्रकारिता में हैं। दैनिक भास्कर, नई दुनिया और जागरण में कई वर्षों तक काम किया। हर हफ्ते 'पहले दिन पहले शो' का अगर कोई रिकॉर्ड होता तो शायद इनके नाम होता। 2001 से अभी तक यह क्रम जारी है और विभिन्न प्लेटफॉर्म के लिए फिल्म समीक्षा...