tum bhi gao mooli rani
tum bhi gao mooli rani

हर साल सब्जियों का एक महासम्मेलन होता था वर्षा ऋतु में। इस सम्मेलन में सब गाते थे। कोई-कोई ढोल बजाता। कोई सितार छेड़ता, तो कोई पखावज बजाने लगता। किसी-किसी को बाँसुरी के सुर छेड़ना भला लगता। संगीत की अच्छी सी गोष्ठी जम जाती। सब चाहते कि उनका बढ़िया से बढ़िया गायन लोगों के सामने आए। सब झूम-झूम के सुनते और दाद देते। पर मूली रानी का मन यह सब देखकर बड़ा तरसता। उनकी आवाज थोड़ी कर्कश और फटी हुई थी। इसलिए गाते बनता ही न था। सोचतीं, हर कोई अपने सुर की बहार छेड़ रहा है। यहाँ तक कि बैंगनमल और टमाटरलाल बेसुरा ही सही, मगर गाते तो हैं। और धनिया चाची और पुदीना दीदी का तो कहना ही क्या! उनका गला ऐसा लचकदार है और सुर में ढला है कि सब ओर संगीत का जादू सा बिखर जाता है। और एक मैं हूँ कि…!’

सोचते-सोचते मूली रानी को इतना दुख हुआ कि वे अंदर ही अंदर रोने लगीं। उनके आँसू गालों पर बह-बहकर जमीन पर गिरने लगे। सोच नहीं पा रही थीं कि किससे कहें अपना दुख?

एक दिन लौकी दादी ने देख लिया कि मूली रानी बड़ी उदास हैं। उन्होंने मूली रानी के सिर पर बार-बार हाथ फेरते हुए कहा, “तू मुझे बता न! बता न पगली, तुझे क्या दिक्कत है?”

इस पर मूली रानी ने रो-रोकर बताया, “दादी-दादी, मुझे गाना नहीं आता, इसलिए हर कोई मेरा मजाक उड़ाता है।” कहते-कहते मूली रानी फिर हिचकियाँ भर-भरकर रो पड़ीं। और लौकी दादी के मनाने पर भी मूली रानी रोती गईं, रोती गईं। इस कदर रोती रहीं कि रोते-रोते आँखें सूज गईं।

“मैं मूली हूँ, तो क्या इतनी मामूली हूँ कि हर कोई मेरा मजाक उड़ाए?” मूली रानी ने सिसकते हुए कहा। फिर कुछ रुककर बोलीं, “पिछले दिनों जब मैं मंच पर गाने के लिए गई, तो महामंत्री आलूराम झल्लाकर बोले कि अरे जरा गाजर देवी को बुलाओ, वे आकर गाएँगी! यह मूली भला क्या गाएगी?…तो अब देख लो दादी, गाना न आने से लोग किस कदर मेरा मजाक उड़ाते हैं।”

इस पर लौकी दादी को बड़ा दुख हुआ। एक बार तो उनका मन हुआ कि सीधे जाकर वे महामंत्री आलूराम को आड़े हाथ लें और खूब खरी-खोटी सुनाएँ।

दादी जानती थीं कि आलूराम महामंत्री भले बन गए हैं, पर उनके आगे मुँह नहीं खोल सकते। आखिर उन्होंने तो उसे बचपन से देखा और पाला है। उनके सामने तो अभी यह कल का छोकरा ही है।

‘तो अब क्या करूँ, क्या नहीं? मूली रानी का दुख तो देखा नहीं जाता।’ लौकीदेवी बेचैन होकर अपने आप से कह रही थीं।

तभी हलके कदमों से आती हुईं धनिया चाची दिखाई पड़ीं। हरी साड़ी में दुबली-पतली, छरहरी, लंबे कद की धनिया चाची दूर से ही पहचान में आ जाती थीं।

लौकी दादी आवाज देकर बुलातीं, इससे पहले ही धनिया चाची पास आ गईं। बोलीं, “दादी-दादी, कैसी हो? तबीयत तो आजकल ठीक रहती है न!”

इस पर लौकी दादी बोलीं, “मेरी तबीयत को क्या हुआ। अभी तो कोई पच्चीस-तीस साल और जिऊँगी या शायद ज्यादा ही जी जाऊँ। मगर हाँ, मूली रानी का दुख नहीं देखा जाता। तुम कुछ कर सकती हो तो जरूर करो धनिया! तुम तो बहुत अच्छा गा भी लेती हो। कैसा बढ़िया लचकदार गला है तुम्हारा, खूब सुरीला।”

धनिया चाची के पूछने पर लौकी दादी ने सारी बात बताई। बोलीं, “अरे बेटी, अपने लिए तो मैंने कुछ माँगा नहीं, लेकिन मूली रानी के लिए तुझसे माँगती हूँ कि इसे गाना सिखा। हर हाल में सिखा।…तुझे इसे नायाब गायक बनाना है, समझ गई न! इसे बड़ा दुख है कि सब्जीपुर के महासम्मेलन में कोई इससे नहीं गवाता। और कभी खुद ही मंच पर चढ़कर गाती है तो सब मजाक उड़ाते हैं।”

इस पर धनिया चाची बोलीं, “वाह-वाह, यह तो मेरे मन का काम है दादी!” बस, उन्होंने मूली रानी की बाँह पकड़ी और उसे ले चलीं अपने घर पर। वहाँ उन्होंने फर्श पर दरी बिछाई उस पर पुराना हारमोनियम निकालकर रखा और शुरू कर दिया, ‘सा-रे-गा-मा-पा…पा…पा…!’ बोलीं, “गाओ मूली रानी, तुम भी गाओ।”

मूली रानी की आवाज ज्यादा भारी थी। कुछ फटी हुई भी। उसमें बढ़िया सुर भला कैसे निकलता! मगर धनिया चाची भी तो आखिर धनिया चाची थीं। जो ठान लें, उसे पूरा न कर पाएँ तो फिर धनिया चाची को धनिया चाची कौन कहे? बल्कि सब्जीपुर में तो इन दिनों लोग कहने लगे कि धनिया चाची जो ठान लें, उसे ईश्वर भी नहीं बदल सकता।

और यहाँ भी हुआ यही। धनिया चाची ने मूली रानी से गवाते-गवाते उसकी आवाज को इतना सुरीला और लोचदार बना दिया था कि अब मूली रानी गातीं ‘सा-रे-गा-मा’ तो आसपास के लोग दूर-दूर से झाँकने के लिए चले आते कि भला सब्जीपुर में यह कौन गिरिजादेवी चली आर्इ हैं गाने के लिए? गला ऐसा सधा हुआ है कि क्या कहने! और वहाँ मूली रानी को जब गाते हुए देखते तो चकरा जाते, ‘यह ऐसा मीठा स्वर मूली रानी के गले से ही निकल रहा है क्या?…गजब है भाई, गजब!’ और ‘वाह उस्ताद’ की तर्ज पर लोग कहते, “वाह धनिया चाची, वाह!”

अगली बार जब सब्जीपुर का महासम्मेलन हुआ तो शुरू में ही सुप्रसिद्ध गायिका गाजर देवी को बुलाया गया, जिन्होंने विदेशों में भी अपनी गायकी का परचम लहराया था। लंदन से लेकर कनाडा तक ‘गाजर देवी, गाजर देवी…’ बस यही लोग पुकार रहे थे। इस सम्मेलन में भी उन्होंने अपनी गायकी की बड़ी ही खूबसूरत बानगियाँ पेश की थीं।

मंच पर से जब गाजर देवी बोलकर उतरीं तो श्रोता सोच रहे थे, ‘देखें भला, अब कौन गायक संगीतकार यहाँ आता है? गाजर देवी के बाद किसी का भी टिक पाना मुश्किल है!’ लोग सोचते थे कि शायद किसी बहुत पुराने उस्ताद गायक को बुलाया जाए।

मगर सबको हैरानी हुई, जब संचालिका मिर्चीदेवी ने मूली रानी का नाम पुकारा। धनिया चाची ने ही उनके कानों में यह नाम फूँक दिया था।

मूली रानी अपना सितार लिए हुए मंच पर जब आईं, तो लोगों ने बड़ी अजीब नजरों से उनकी ओर देखा कि ‘अरे, ये क्या गाएँगीं?’

मगर थोड़ी ही देर में सफेद साड़ी में सजी मूली रानी ने जब अपनी गायकी के सुर छेड़े तो लोग मान गए कि अब ये वो मूली रानी नहीं रहीं। अब की मूली रानी तो किसी भी राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय गायिका से टक्कर ले सकती हैं। उनके स्वर में वह मिठास, वह नरमी, वह लोच, वह गहराई और वह विस्तार था कि जब मूली रानी के गीत-संगीत की लहरें सब ओर बिखरने लगीं, तो पूरे सभा-कक्ष में तालियाँ ही तालियाँ सुनाईं देने लगीं। सबने खड़े होकर सब्जीपुर की इस नई और अनोखी गायिका का स्वागत किया। और फिर जब तक मूली रानी गाती रहीं, लोग इस कदर सुनते रहे, जैसे उन्होंने सब पर जादू कर दिया हो।

कार्यक्रम के बाद मूली रानी को रंग-रंग के सुगंधित फूलों और ‘बधाइयों’ का इतना बड़ा टोकरा मिला कि सँभलते नहीं बन रहा था। लौकीदेवी खासकर उसका गायन सुनने आई थीं और जब कार्यक्रम पूरा हो जाने के बाद उन्होंने काँपते हाथों से मूली रानी के सिर पर हाथ फेरा तो मारे खुशी के मूली रानी का रोना छूट गया। बोलीं, “यह सब तुम्हारे ही कारण हो पाया दादी, मैं तो निराश हो गई थी।” और लौकी दादी मुस्कराते हुए कह रही थीं, “पगली, समय किसी की मुट्ठी में कैद नहीं है। पता नहीं, कल को क्या हो जाए! इसलिए किसी बात के लिए दुखी होने की बजाय कोशिश करो कि उसे बदलो और कुछ बनकर दिखाओ।”

अब तो हालत यह हुई कि सब्जीपुर के किसी भी सम्मेलन में जब गायकों का नाम पुकारा जाता तो मूली रानी का नाम सबसे अव्वल होता था। और जब वे अपना सितार या तानपूरा लेकर सुर छेड़तीं तो लोग ऐसे मुग्ध होकर सुनते, जैसे धरती नहीं, स्वर्ग से ये स्वर-लहरियाँ उतरकर आ रही हैं।

धीरे-धीरे यह हुआ कि देश ही नहीं, विदेश से भी मूली रानी को गायकी के निमंत्रण मिलने लगे। वे जहाँ भी जातीं, उनका नाम और कद्रदानों की संख्या बढ़ती ही जाती।

लेकिन मूली रानी से जब भी पूछो कि तुम्हारी इस अद्भुत और नायाब गायकी का राज क्या है तो वे एक ही बात कहतीं, “लौकी दादी के आशीर्वाद ने मुझे बचाया और मेरे पैरों के नीचे जमीन आ गई। और धनिया चाची! उन्होंने मुझे गाना नहीं, सुरों के साथ उड़ना सिखाया। सुरों के ताल में बहना सिखाया…! मैं आज जो कुछ भी हूँ, उन्हीं के कारण हूँ और उन्हें जिंदगी भर भूल नहीं पाऊँगी।

ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंBachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)