भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
परिधि चहकते हुए बोली, वाह! चतुरी की शादी हो रही है। दीदी ने हंसते हुए चुटकी ली, इतना क्यों उछल रही हो, तुम्हारी भी हो जायेगी। मेरी.. अभी कहाँ, परिधि ने लम्बी सांस ले दीन-हीन मुद्रा बनाई। जनाब, पहले आप, फिर आप और तीनों बहनें ठठाकर हँस पड़ी। बारहवीं तक परिधि और चतुरी ने साथ पढ़ाई की थी, वे अच्छे दोस्त थे। चतुरी शर्मीली तो नहीं थी किन्त..झिझक उसका साथ नहीं छोडती। चतरी की शादी से परिधि खश थी पर चतुरी का बिछड़ जाना, परिधि के लिए पीड़ा दायक था। समय कब रुकता है? चतुरी ससुराल चली गई और कोई परिवर्तन नहीं हुआ, सब कुछ वैसे ही चलता रहा, जैसे चलता है। बहनों की शादी के बाद माँ परिधि के साथ रह गई। पढ़ाई पूरी होते ही परिधि का चयन शिक्षिका के पद पर हो गया और उसने बिना देर, कार्यभार ले लिया।
हडबडाते हुए, रमा मेडम ने दरवाजे से आवाज लगाई, परिधि मेडम जल्दी चलें, आज तो सच में देर हो गयी। बस आई मेडम! परिधि चप्पल में पैर डालते हुए निकली। दोनों तेजी से चल पड़ी, स्कूल घर से कुछ फासले पर ही था। पास की छोटी दुकानों में रबर, पेन्सिल खरीदते कुछ बच्चों ने दोनों मेडम से गुडमार्निंग कहा, वे सिर हिलाते हुए अहाता पार कर स्कूल के अन्दर पहुँच गईं। यह महत्वपूर्ण और आस-पास के इलाके में मशहूर रियासत कालीन स्कूल है। समय तेजी से बदल गया, अब तो गाँव-गाँव में स्कूल हो गए, फिर भी लम्बे-चौड़े क्षेत्र में फैली चहार-दीवारी से घिरा ऊंचा-भवन, बड़े-बड़े हवादार कमरे और महराबदार चिकनी परछी अब भी इसकी महत्ता बयान कर रहे हैं।
बड़े सींगवाली कबरी गाय, सिर हिलाते अहाते में घुसी और नीम के नीचे ठहर गई, बच्चे शोर मचाने लगे चौकीदार देखो.. गाय घुस गई। स्कूल के प्रवेश द्वार के दोनों ओर नीम के सघन वृक्ष हैं, जिनके कारण शीतलता बनी रहती है। सुबह शाम चिड़ियों का संगीत भी सुनाई देता है। चौकीदार सुबह से अपने काम में लगा हुआ है। सफाई, पीने के पानी की व्यवस्था, बरामदे के बोर्ड से पिछले दिन का नीति वाक्य मिटाना और भी न जाने कितने छोटे-छोटे काम जिनके चलते वह लगातार व्यस्त रहता है। अहाते के भीतर कतारबद्ध पेड़ों से गिरी पत्तियों की सफाई एक दूसरा ही आदमी करता है। शाम बाद स्कूल की सारी चहल-पहल रुक जाती, लगता जैसे किसी तपस्वी की भांति स्कूल भी समाधि लगा लेता है।
लंचब्रेक खत्म होते ही परिधि स्टॉफ रूम से निकलकर क्लास में जाने लगी। सामने देख कर वह रुक गई। कुछ सहेलियां बेर का बंटवारा कर रही थीं, बेर की तेज गंध फैल रही थी। लंच की छुट्टी में.. यह तो पुराने समय से चला आ रहा है। स्कूल के पीछे कुछ दूरी पर एक पहाड़ी नदी थी, जिसके किनारे-किनारे जंगल उग आया था, बेर, कैथ, बेल, गंगा-इमली और सीताफल जिनके फलने के समय बच्चे दौड़ते वहां पहुँच जाते।
परिधि को याद आया, लंच की घंटी सुनते ही चतुरी, परिधि और कुछ दोस्त नदी की ओर दौड़ पड़ते। उनके वहां पहुंचते ही, रघुवा काका बाड़ी की सफाई छोड़, चिल्लाते- “गुडिया, थोरिकन बोइर सकेल के तुरते स्कूल लहुटो, नि तो मास्टरजी ला बता देहों”। चतुरी जवाब देती, हव कका, बस लहुटते हन। वे अपने स्कर्ट के घेर को, आधे बैग की आकृति में मोड़ लेती और तेजी से बड़े-बड़े, मीठे-मीठे बेर इकठे करने लग जातीं । राजू जब भी डाल पर पत्थर फेंकता, रघुवा काका चिल्लाते “ए गुडिया ! पथरा झन फेंको, मुड़ फूट के लहूलुहान हो जाही”। हव कका- कह कर, हंसते हुए, वे स्कूल की ओर वापस भागते और वहां पहुंचते ही सब मिलकर बेर बाँट लेते । एक दिन, मुखर्जी सर ने देख लिया और डांटकर सारा बेर स्कूल के बाहर फिंकवा दिया, तब चतुरी, परिधि और उसके दोस्त बहुत दु:खी हुए थे। परिधि ने इशारे से बच्चों को पास बुलाया, सख्ती दिखाते हुए कहा, दौड़कर जाओ और बरुलिया जी के पास बेर जमा करके क्लास में आओ, जल्दी। लड़कियां चौकीदार की ओर तेजी से दौड़ पड़ी। चौकीदार ने बेर जमा करते हुए, धीमी आवाज में कहा- छुट्टी के बाद ले लेना। बच्चियों का उदास चेहरा खिल गया उन्होंने हंसकर एक-दूसरे को देखा। वे क्लास की ओर दौड़ पड़ीं अब वे निश्चिन्त थीं।
ठण्ड अपने जोरों पर थी। खेल प्रतियोगिता हेतु बच्चों को तैयार करना था। दौड़, खो-खो, कबड्डी, घड़ा-दौड़, चम्मच-गोली दौड़, लम्बी-दौड़, रीले-रेस, भाला फेंक, गोला फेंक, ऊंची-कूद, लम्बी-कूद और भी कई खेल, सूची में शामिल थे। बच्चे अपना नाम दर्ज करवा रहे थे। खेल-सूचना देखते ही कुछ दृश्य परिधि के सामने आ गए। हवा की तरह दौड़ती चतुरी, सभी खेलों और दौड़ में प्रमुखता से होती थी, घड़ा-दौड़ के अंतिम पड़ाव तक पहुँचते-पहुंचते भी घड़े से एक बूंद पानी नहीं छलकता था। चतुरी ने अपने साथ परिधि का नाम भी दर्ज करवा दिया और घड़ा सिर पर रखने के बाद सिर को स्थिर रखने के गुर सिखाती रही। पता नहीं क्यों..आज चतुरी बार-बार याद आ रही थी। जीवन के अनजाने मोड़ इंसान को कहाँ ले जाते हैं? वह तो अपने घर में, बच्चों के साथ मजे से होगी, कभी मुझे याद भी नहीं करती होगी परिधि ने संतोष की एक लम्बी साँस ली।
स्कूल से निकलते ही याद आया, अम्मा ने अदरक और बड़ी मिर्च लाने को कहा है, वह बाजार जाने वाली सड़क में मुड़ गई। परिधि पैसे निकाल रही थी उसी समय बगल से एक साया निकला, लगा कोई पहचान का व्यक्ति है। दिमाग पर जोर डालने से याद आया यह तो सिद्धि है. हमारे ही ग्रुप की। पैसे देकर उसकी ओर तेजी से लपकी पर देर हो गयी, वह किसी गली में मुड़ गई। बरस बीत गये, दोस्तों से मिले। बचपन की वो चहकती यादें, कभी उछलती-कूदती, कभी चिढ़ाती और कभी मुंह फुलाती आज भी सामने आ कर खड़ी हो जाती हैं।
आगे की पढ़ाई के लिए परिधि शहर चली गयी। वहाँ जाने के बाद बहुत कम दोस्तों से मुलाकात हुई, वापस आने से पहले वह सोचती रही, जाते ही सबसे मिलूंगी, सबका हालचाल पूछूगी, मिल-बैठ कर पुराने दिनों को याद करेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सब कुछ बदल गया। प्रायः दोस्त बाहर चले गए, कुछ विवाह करके, कुछ पढ़ाई और नौकरी के कारण।
घर पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई, दरवाजा खुला था। माँ, उर्मिला मौसी के साथ चबूतरे पर बैठी बातें कर रहीं थीं। एक घड़ी ठहर कर उसने पूछा, कैसी हो मौसी? अच्छी हूँ बिटिया, उर्मिला मौसी मुस्कुराई, तुम्हारा स्कूल अच्छा चल रहा है? हाँ मौसी सब बढ़िया है, कहते हुए वह अन्दर चली गई। उसे अच्छी तरह पता है जब भी समय मिलता है मौसी, माँ के पास बैठ कर परिधि की शादी की बात निकाल लेती हैं और उसके आते ही उठकर चली जाती हैं। उर्मिला मौसी पड़ोस में रहती हैं, दोपहर का काम निपटा कर दोनों चबूतरे पर बैठती हैं और अपने-अपने दुःख-सुख बांटती हैं।
करीब दो महीने बाद बाजार में सिद्धि फिर दिखाई दी। इस बार वह चूकना नहीं चाहती थी, उसने जोर से पुकार कर कहा- सिद्धि…! आस-पास के लोगों ने घूम कर उसे घूरा। वह सबसे नजरें बचाते हुए आगे बढ़कर सिद्धि के पास पहुँच गयी। परिधि ने उसका हाथ पकड़ने में अपना सारा जोर लगा दिया, कैसी है सिद्धि? अचंभित सिद्धि ने एक पल उसका चेहरा देखा, मुस्कुराते हुए बोली, तू यहाँ है? हाँ! वापस आ गई हूँ। तू कैसी है? बाकि लोग कैसे हैं? मुझे सबके बारे में जानना है और मिलना भी है। अरे-अरे! पहले अपने बारे में तो बता? सिद्धि ने उसका हाथ खींचते हुए उसे सड़क से किनारे किया। दोनों देर तक खड़ी-खड़ी बातें करती रहीं। सिद्धि ने कहा-सारी बातें सडक में कर लेगी क्या? अब मझे देर हो रही है, तुझे भी घर जाना होगा। एक दिन की आड़ से बाजार आती हूँ, परसों मिलेंगे। परिधि ने न चाहते हुए भी सर हिलाया। उसके दरवाजे पर चतुरी दस्तक देती रह गई।
सिद्धि ने कहा-चतुरी के बारे में तुझे पता नहीं चला? शादी के बाद चतुरी अपने ससुराल में बहुत खुश थी। पूरे एक बरस बाद पुन्नी के मेले में मेरी उससे मुलाकात हुई। सबका मन मोहती, सजी-संवरी, हंसती, जीवन के हर पल को जीती हुई चतुरी। मुझसे मिलते ही उसने झपट कर मेरे बेटे को गोद में ले लिया। उसके लिए मिठाई ली, खिलौने खरीदे और लगातार उससे बातें करती रही मैं बेटे को वापस लेने जब भी हाथ बढ़ाती किसी न किसी बहाने से वह बच्चे को बहला लेती। वैसे कुछ भी असामान्य नहीं था, मैंने कई बार उससे पूछने की कोशिश की, लेकिन उसने टाल दिया।
बाद में कुछ अफवाहें फैलने लगीं। क्या कह रही है सिद्धि, परिधि परेशान हो गई। हाँ, उसका पति तो…ऊँ…,सिद्धि ने ना की मुद्रा में सिर हिलाया। सच में…! और नहीं तो क्या? दबी आवाज में सिद्धि ने कहा। ऐसा नहीं हो सकता, परिधि कसमसा कर रह गई। सिद्धि ने कहा- पता नहीं क्या हुआ, कोई बात थी या ऐसे ही, किसी गलतफहमी का शिकार हो गई चतुरी…। प्लीज…! चतुरी के बारे में पूरी बात बता, मैं बहुत परेशान हूँ, परिधि ने सिद्धि से कहा। सिद्धि ने परिधि का हाथ थपथपाते हुए कहातुझे तो याद होगा, चतुरी को बच्चों से कितना लगाव था, वह बच्चों पर जान छिड़कती थी।
शादी के बाद एक हरी-भरी गृहस्थी का सपना हर लड़की देखती है, पर चतुरी का सपना पूरा नहीं हुआ। उसकी कल्पनायें मर गई और दोष भी उसी पर लगाया गया। सिद्धि ने कहा- मुझे लगा, सारी गलती चतुरी की माँ की है, उसे देख-जान कर उसका विवाह करना था, लेकिन यह भी तो पूरा सच नहीं है। चतुरी की माँ ने अपनी असहायता और गरीबी के सामने घुटने टेक दिए और जो रिश्ता सामने मिला उसमें हामी भरकर वो अपने कर्तव्यों से मुक्त हो गई। मध्य वर्गीय परिवारों में, बेटी-ब्याह की जिम्मेदारी सात पहाड़ों से ज्यादा भारी होती है। सिद्धि ने एक लम्बी साँस ली।
ससुराल पहुँच कर चतुरी ने घर की सारी जिम्मेदारियां सम्हाल ली। घर के काम के बाद भी समय निकाल कर, आँगन में क्यारियां बनाना, फूलों के पौधे लगाना, सब्जियों की बेलें चढ़ाना करती रहती। जो देखता बहू की बड़ाई करता। धीरे-धीरे चतुरी ने सारा घर सम्हाल लिया, पर उसका पति रतन किसी पहेली की तरह था। उसे इतना तो समझा कि रतन किसी बहाने उससे दूर रहता है। शादी को पूरा बरस हो गया, लेकिन रतन चतुरी से दूर ही रहा। साथ की सभी सहेलियों की गोद भराई होने लगी पर चतुरी नन्हे-कोमल स्पर्श की आस लगाये रही। बरस बीतने लगे और बात उसकी समझ में आ गई। वह अपनी घुटन की साथी आप थी। किसी से अपना दुःख नहीं कह सकती थी, वह जहाँ बांधी गई, वही नियति है और कोई विकल्प नहीं। पारबती काकी अपने पोते को रोज स्कूल ले जाती थी, चतुरी की बड़ी मिन्नत पर काकी ने अपना काम उसे सौंप दिया, उसकी खुशी का ठिकाना न था। वह बड़े प्यार से बच्चे को ले जाने लगी। यह सिलसिला अधिक दिनों तक नहीं चल पाया। पारबती काकी ने उसे मना कर दिया, कहा- बहुरिया को यह पसंद नहीं। ठीक है काकी! कह कर वह बच्चे से बात करते हए साथ चलने लगी, पर काकी ने बच्चे को दूसरी ओर कर लिया। चतुरी यह समझना नहीं चाहती थी, वह फिर बच्चे की ओर हो कर बातें करने लगी, पर काकी ने फिर बच्चे को दूसरे किनारे किया तो उसे समझना ही पड़ा कि काकी भी वही चाहती है जो उसकी बहुरिया चाहती है। आंसुओं का वेग रोकती, वह मंदिर की ओर बढ़ गई। वह रोना चाहती थी, ईश्वर से पूछना चाहती थी, मेरे लिए सारे रास्ते बंद क्यों? ऐसा क्या मांग लिया मैंने? बमुश्किल अपने को रोक मंदिर के कोने के पेड़ के नीचे बैठ गई।
सारे दु:ख, सारी बातें भूलकर, अगले दिन वह फिर स्कूल के पास चली आई। स्कूल आते-जाते बच्चों को देख कर वह उनसे बात करने और साथ-साथ चलने लगती। किसी के सर पर हाथ फेरती, किसी के जूते की लेस बांध देती, उसकी रंग-बिरंगी कहानियों, और तरह-तरह की बातों में बच्चों को बड़ा मजा आता। बच्चे उसकी प्रतीक्षा करते, हंसते, बातें करते, लेकिन बड़ों को उससे भय लगने लगा, उन्होंने उसे पागल कह दिया।
चतुरी ने जीवन में इस महत्वपर्ण बात का साक्षात किया कि शब्द किस तरह अपना दायरा बढ़ाकर जीवन बर्बाद कर देते हैं। बात फैलने में देर न लगी। अब ससुराल में भी उसका ठिकाना न रहा, धीरे-धीरे सभी दरवाजे बंद होने लगे। वह भूख-प्यास से बदहाल हो गई। कोई ठौर-ठिकाना नहीं, कोई काम-कमाई नहीं, कपडे गंदे हो गए। उसके चेहरे से हंसी उड़ गई और अप्रत्याशित भय के साये ने उसे जकड लिया। सरत बदलने लगी. बच्चे डरने लगे। बच्चों को डरता देख लोगों को प्रोत्साहन मिल गया, उन्होंने नया नामकरण कर उसे टोनही बना दिया। बच्चों को उसकी नजर से बचाने लगे। लोगों ने डायन कहा और बेहिचक बहादुर लोग उस पर पत्थर भी फेंकने लगे। हर दिन मिलने वाले अनगिनत चोटों के दर्द से कराहती, वह गाँव के अन्दर जाने से भी डरने लगी। इतने जख्म आँचल में लेकर वह अकेली ही भटकती रही। अचानक एक दिन वह गायब हो गई। गाँव में, ना गाँव के बाहर, कहीं दिखाई नहीं दी। कुछ दिनों तक उसकी चर्चा हुई, कुछ ने सोचा आसपास के गाँव में चली गई होगी, लेकिन कहीं से कोई खबर नहीं मिली। कुछ दिनों बाद, पास के गाँव में नदी किनारे क्षत-विक्षत पड़ी एक लाश देख कर, लोगों ने समझा पगली मर गई। परिधि गले तक आई हुई चीख रोकने की कोशिश करने लगी, वह दु:ख और क्षोभ से कांप रही थी। भरे गले से बमुश्किल उसने कहा, चल बाद में मिलती हूँ और सिद्धि की ओर देखे बिना ही, सड़क में आगे बढ़ गई। बेचारी! सिद्धि ने कहा।
खेल प्रतियोगिता प्रारंभ हो गई। तहसील स्तरीय प्रतियोगिता में जीतने वाले बच्चों को, जिला स्तरीय प्रतियोगिता में ले जाने की जिम्मेदारी परिधि मेडम, रमा मेडम और दीपक सर को दी गई थी । ठंड में बच्चों को दूसरे शहर ले जाने के कारण व्यस्तता बढ़ गई थी। जरुरी सामान, कपड़ों के बारे में बच्चों को बताया गया। उन्हें सुबह से निकलना था। बस से उतरते ही आयोजक आ गए और उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। कुछ विश्राम के बाद मेडिकल चेकअप के लिए जाना था। डॉ मेडम और सहायकों ने काम शुरू कर दिया था। परिधि और बच्चे अपने क्रम का इंतजार करने लग । ब्लड टेस्ट में एक बच्ची बार-बार हाथ छुडा रही थी, जिसके कारण डॉ. मेडम और सहायक सभी परेशान हो रहे थे। बच्ची किसी प्रकार टेस्ट के लिए तैयार नहीं थी। महिला सहायक ने बच्ची को धीरे-धीरे कुछ समझाया और बच्ची ने. बडी शांति से टेस्ट का सारा काम निपटा लिया। ये बच्चे भी न, रमा मेडम बुदबुदाई।
प्रतियोगिता समाप्त हो गई। रमा मेडम, परिधि और दीपक सर खुश थे, कई खेलों में उनके बच्चों ने जीत हासिल की थी, उन्हें पुरस्कार मिलना था। पुरस्कार वितरण के लिए प्रसिद्ध समाज-सेविका चक्रवर्ती मेडम और उनकी बिटिया स्वप्निल मुख्य अतिथि थे। समारोह की तैयारी जोर-शोर से की गई। स्कूल गेट से पंडाल तक रंग-बिरंगे छोटी-छोटी झंडियों की कतारें लगी थीं, गेट से, सजे हुए पंडाल तक लाल कारपेट बिछा था। मंच पर सजी हुई कुर्सियां रखी गई। विशिष्ट अतिथियों के आते ही आयोजक एवं अन्य अतिथियों ने बड़े सम्मान से उन्हें मंच पर बिठाया, पुष्प माला से स्वागत किया, सभा व प्रतिभागियों के लिए उनके उद्बोधन के पश्चात् पुरस्कार वितरण का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। विशिष्ट अतिथियों ने घोषित पुरस्कार के साथ-साथ बच्चों को, उत्साह-वर्धन के लिए, अपनी ओर से पृथक पुरस्कार भी दिया। अपने स्कूल की एक छोटी बच्ची को लेकर परिधि मंच के समीप पहुंची। परिधि ने मंचस्थ विशिष्ट अतिथियों को समीप से देखा, वह आवाक थी, कैसा अजीब संयोग था, सामने मंच पर बदली वेशभूषा में चतुरी का वही हँसता हुआ चेहरा था। स्वप्निल चक्रवर्ती भी परिधि को ध्यान से देख रही थी, अचानक वह मुस्कुराई, उसके चेहरे का भाव बदला लेकिन अगले ही पल, वह संयमित होकर बैठ गई। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद विशिष्ट अतिथियों को सम्मान के साथ विदा किया गया। शिक्षकों, बच्चों के साथ परिधि को भी लौटना था, सबके साथ वह वापसी के लिए बस में बैठ गई और एक बेचैन खालीपन के साथ उसने खिड़की के बाहर दृष्टि टिका दी।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
