जि़न्दगी के इस सफर में
चलते-चलते कई बार
कुछ न कुछ जेबों से
छिटक के या हथेलियों से फिसल के,
कहीं खो जाता है।
हम अक्सर इस ‘कुछ को
बेचैन नींदों में,
अकेले मोड़ों पर या ज़हन के
पीछे वाली खिड़की में
रखे स्टोर बॉक्स में ढूंढते रहते हैं।
अगर कभी वो चमल भी जाए…
तो उसे हम पा नहीं पाते!
कुछ होता है, कोई भार सा,
जो नज़रों को वहां से मोड़ देता है, नहीं?
मेरी एक कहानी
जाने कहां, खो गयी
सुबह-सुबह उठ के ज़हन से
टहलने को चली थी
मैंने कहा ज़रा रुक जा दो वक्त
सुस्ता ले थोड़ा मेरी
कलम का सिरहाना ले कर
लगा कह रहा था, ‘बेटा, masters तो
इस शहर से भी होता है…
पर वो उड़ चली और मैं…
मैं बूढ़े हंस सा,
उसकी राह टटोलता रहा
जिसके बच्चे खोंसला
ककसी दूसरी ही galaxy में बनाते हैं
हां, मेहमानों की तरह
मिलने ज़रूर आते हैं!
खैर, तो मैं कह रहा था
अपनी कहानी को मैंने, खूब ढूंढा,
तकिये के लिहाफ में,
टंगी हुई ज़ुराब में,
बिस्तर की सलवटों में
जीवन की अटकलों में
बनिये के झोल में
वो शाम वाले roll में
मां की फटकार में
बाबा के प्यार में
गाडिय़ों के शोर में
उस bully के ज़ोर में
नौका की राह में
बहती सी परवाह में
किताबों की टोह में
पीपल की खोह में
मुड़े हुए सफों में
पहले छोड़े गस्सों में
लोगों के चेहरों में
दिन में, दोपहरों में
चांद के गड्ढों में
सूरज के अड्डों में
कसम से… मैंने खूब ढूँढा!
ढूंढते-ढूंढते एक शाम
निगाह ठहर गयी signal पे
और चहली नहीं तब से
लोग, गाडिय़ों की खिड़कियों से
अपनी नज़रों का हिस्सा
छोड़-छोड़ कर जाते रहे
वहीं… road पर…
जहां मेरी कहानी
उधड़ी पड़ी थी!
कोई कह रहा था
जि़न्दगी हो के चली गयी है
इस पर से!
मेरा मन किया कि जाऊं,
गोद में भर लूं इसे, रोऊं
फू ट-फू ट के और कोसूं इस
जि़न्दगी को
पर चहला नहीं मैं भी
क्या करता, कुर्ता सफेद था…
खराब हो जाता!
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