ये हैं नये दौर की नई नारी
ye hain naye daur kee nayi naaree

Women Era: अगर आप मेहनत करते हैं तो आपको सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। इस बार के कॉलम में हम ऐसी तीन महिलाओं की कहानियां आपके लिए लेकर आए हैं जो अपने आप में एक मिसाल हैं। इन्होंने अपने काम को पूरी शिद्दत के साथ करके सफलता हासिल की। बस अपने हालात के सामने इन्होंने घुटने नहीं टेके, मुश्किलों का सामना कर आगे बढ़ती चली गईं।

Also read: नारी के सवाल अनाड़ी के जवाब

सरला आहूजा
(आन्त्रप्रेन्योर)

भारतीय महिलाओं के परिपेक्ष्य में देखा जाए तो सिलाई मशीन हर तबके की महिला के आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने का एक हथियार है। उस दौर में भी इसने महिलाओं का साथ निभाया जब महिलाओं को घर की देहरी लांघने की इजाजत नहीं होती थी और आज जब महिलाएं फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर इस मशीन के साथ अपने सपनों के आसमान को छू रही हैं। ऐसे ही सपनों को छूने की कहानी दिल्ली की सरला आहूजा की भी है। ऐसा नहीं था कि उन्होंने बचपन से सपना देख रखा था कि वह बड़ी होकर कोई एक्सपोर्ट हाउस खोलेंगी लेकिन हां, 1970 के दशक में वो यह जान चुकी थीं कि आने वाले दौर में एक सिलाई मशीन के साथ वह अपने व्यवसाय को कैसे बढ़ा सकती हैं। इन्होंने शाही एक्सपोर्ट हाउस के साथ न केवल अपने लिए बल्कि बहुत सी महिलाओं के लिए सपनों के द्वार खोल दिए। आज इस एक्सपोर्ट हाउस के क्लाइंट्स में जारा, वॉलमार्ट, एचएंडएम जैसे ग्लोबल ब्रांड शामिल हैं।
1970 के दौर में शुरू हुआ उनका एक्सपोर्ट हाउस कभी उनके अपने घर से शुरू हुआ था। आज यह इंडिया का सबसे बड़ा एक्सपोर्ट हैं जिसमें अगर कर्मचारियों की बात करें तो वह 1,15,000 हैं। इनके कर्मचारियों में 77,000 महिलाएं हैं। सरला आहूजा ने एक आम महिला की तरह ही अपने जीवन की शुरुआत की। महज 16 साल की उम्र में शादी हुई और 22 साल की उम्र में अपने परिवार के लिए फैक्ट्री में काम करना शुरू किया। उन्हें सिर्फ घर का काम करना पसंद नहीं था। जब वह कुछ करने का सोच रही थीं तो उन्हें याद आया कि उनकी मां ने उन्हें सिलाई सिखाई थी। बस इस हुनर को ही अपने आगे बढ़ने का औजार बनाया। एक फैक्ट्री में सिलाई मशीन ऑपरेटर के तौर पर काम करना शुरू किया। लेकिन एक साल काम करने के बाद उन्हें फैक्ट्री छोड़नी पड़ी और घर से ही अपने काम को शुरू किया। शुरुआत में बहुत संघर्ष हुए, धीरे-धीरे अमेरिका के ऑडर्र मिलने लगे। आज पचास साल की मेहनत का नतीजा सभी के सामने है। इन्होंने 1974 में पांच हजार रुपये के साथ शुरुआत की थी। आज इनकी पूरे भारत में 51 फैक्ट्रीज हैं।
सरला अपने नाम की तरह मिजाज से बहुत सरल स्वभाव की हैं। जब वो अपना बिजनेस बढ़ा रही थी तो ज्यादा से ज्यादा वर्कर के तौर पर महिला को लेती थीं। वे झुग्गी-झोपड़ियों में जाकर लोगों को प्रोत्साहित करती थीं कि ‘आप लोग मेरे साथ मैं आपके बच्चों की शिक्षा और उनके भविष्य का ख्याल रखूंगी।Ó उनका मानना है कि हर सफल महिला अगर दूसरी महिलाओं के बारे में सोचेगी तो बहुत जल्द हर भारतीय महिलाओं की स्थिति में बदलाव आएगा।

रेखा मिश्रा
(रेलवे सब इंस्पेक्टर)

कुछ लोग नौकरी करना तयशुदा काम कर अपने घर वापस आना है वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कि काम को ही अपने पूजा बना लेते हैं। रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स सब इंस्पेक्टर रेखा मिश्रा भी एक ऐसी ही महिला है जिन्होंने अपने काम के जरिए न जाने कितने बेघर और लापता बच्चों को वापस अपने घरों में पहुंचाने में मदद की है। वे लगभग 1 हजार से बच्चों को उनके घर लौटने में मदद कर चुकी हैं। वे मानती हैं कि वह बहुत खुशनसीब हैं कि ऊपर वाले ने उनको एक मकसद के लिए चुना और इसे पूरा करना ही आज उनकी जिंदगी का मकसद बन चुका है। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में जन्मी रेखा एक आर्मी ऑफिसर की बेटी हैं। अपने काम के लिए यह समर्पण उन्हें अपने पिता से मिला है। उनके पिता ने उनकी जॉइनिंग के वक्त कहा था कि तुम काम के लिए काम करना तालियों के लिए नहीं। इस बात को रेखा ने अपने जीवन का ध्येय बना लिया। वह कहती हैं कि ‘एक अलग-सा सुकून मिलता है जब कभी मैं अपने कामों के बारे में सोचती हूं। मैं समझ पाती हूं क्या बीतती होगी उस मां के दिल पर जिसका बच्चा घर से गायब हो जाता है। लेकिन वही बच्चा जब घर लौटता है तब उस मां की खुशी का क्या ठिकाना होता होगा। वह कहती हैं कि आज मैं बच्चों की आंखों में देखकर ही जान लेती हूं रेलवे स्टेशन पर कौन बच्चा घर से दूर किसी के झांसे में आकर किसी के साथ आया है या जबरदस्ती आया है।Ó
2014 में रेखा रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स में शामिल हुई थीं। मुंबई में उनकी पहली पोस्टिंग छत्रपति शिवाजी टर्मिनल पर थी जहां वो ऐसी कई बच्चों को घर भेजने में कामयाब रहीं जो किसी सेलिब्रेटी से मिलने या किसी के झांसे में आकर मुंबई आए थे। वे कहती हैं इतने बड़े शहर में इन बच्चों को समझ नहीं आता कि अब वापसी कैसे हो। ऐसे में यह हमारी जिम्मेदारी है कि इन परिंदों को उनके घोंसलों तक सलमाती के साथ वापस पहुंचाया जाए।
रेखा को विभिन्न रेलवे स्टेशनों से सैकड़ों बेसहारा, लापता, अपहरण या भागे हुए बच्चों को बचाने का श्रेय दिया जाता है। इस काम के लिए उन्हें नारी शक्ति पुरस्कार 2017 से भी नवाजा जा चुका है। एक और अच्छी बात है कि अपने काम की वजह से ही उन्हें महाराष्ट्र में एसएससी बुक्स में भी जगह मिल चुकी है। इसके अलावा 2018 में इंटरनेशनल वुमंस डे के मौके पर उन्हें राष्ट्रपति के हाथों नारी शक्ति पुरुस्कार भी मिल चुका है। वह कहती हैं कि जब एक भी बच्चा अपने घर लौटता है उस रात बहुत सुकून की नींद आती है। तो क्या हुआ कि मेरे बच्चे अभी तक नहीं हैं कि लेकिन नारी होने की पूर्णता मुझे अपने काम के जरिए मिल जाती है।

रेशमा बाई
(जल संरक्षक)
मध्य प्रदेश की डोंचा ग्राम पंचायत की रेशमा बाई हैं। वह अपने गांव में एक जलसंरक्षक तो हैं ही इसके अलावा अगर गांव में पानी को लेकर कोई भी समस्या है तो उनके पास समाधान मौजूद है। यहां तक कि गांव में कुंए को लेकर मतभेद हुआ था तो उसे भी इन्होंने बहुत ही आसानी से सुलझाया था। एक जल संरक्षक के तौर पर इनका सफर तब शुरू हुआ जब वॉटर एड इंडिया के उनके गांव डोंचा को एक मॉडल गांव के तौर पर सलेक्ट किया गया। इस प्रोजेक्ट में रेशमा बाई ने एक वॉलेंटियर की भूमिका निभाई थी।
हालांकि इस प्रोजेक्ट से पहले स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। साफ पानी मौजूद नहीं होने की वजह से बहुत सी पानी जनित बीमारियां गांव वालों को थी। एक आशा वर्कर होने के नाते उन्हें समस्या के बारे में भी पता था और वे कम्यूनिटी को भी बेहतर तरीके से जानती थीं। वे अपनी कम्यूनिटी के लिए भी कुछ करना चाहती थीं जब उन्हें फील्ड टेस्टिंग किट का उपयोग करना सिखाया गया तो वे बहुत उत्सुक थीं। इतना ही नहीं उन्होंने घर-घर जाकर टैप कनेक्शन के लिए सर्वे भी किया।
वे एक सेल्फ मोटिवेशन से काम करने वाली इंसान हैं। चाहे मीटिंग की बात हो, सर्वे की बात हो या गांव वालों को या महिलाओं को पानी से संबंधित किसी नई अपडेट के बारे में बताना हो रेशमा इन सभी चीजों में सबसे आगे रहती हैं। वे मानती हैं कि साफ जल पीना हमारा अधिकार है और इस अधिकार को हम तभी पा सकते हैं जब हम स्वयं उसके लिए जागरूक हों, क्योंकि पानी जीव-जंतू सभी के जीवन के लिए बेहद जरूरी है। पानी की महत्त्वता और पानी जनित बीमारियों का गंभीरता को लेकर रेशमा बाई ने ग्रामीणों को जागरूक करने का सराहनीय काम किया। वे अपने कर्तव्य के साथ-साथ मानवता के धर्म को भी बखूबी निभा रही हैं। साथ ही समय-समय पर लोगों को पानी के महत्व को भी समझा रही हैं।
रेशमा बाई की तत्परता और समझ के चलते आज ग्रामीण लोगों को स्वच्छ पानी उनके स्वास्थ्य के लिए जरूरी ही नहीं बल्कि उनका मौलिक अधिकार भी है, जिसे वे सरकार से हक से मांग सकते हैं।