भागमभाग- व्यक्ति की जि़ंदगी का बस यही पर्याय बनता जा रहा है। स्वयं की ही इच्छाओं-आकांक्षाओं के ताने-माने में, उनको पूरा करने में इस कदर फंसता जा रहा है कि सुबह से शाम तक व्यस्त दिनचर्या होने के नाते उसकी सोच का दायरा अपने तक ही सिमटता जा रहा है। अपनों के लिए कुछ सोचने, कर गुजरने का तो वक्त ही नहीं मिल पाता परंतु फिर भी इंसानियत के नाते बचपन में सीखे अच्छे संस्कार-शिक्षा की वजह से व्यक्ति के दिलो-दिमाग में परिवार व अपने के लिए जो कर्त्तव्य-जिम्मेदारियां हैं, वे याद जरूर आते रहते हैं, किंतु तमाम व्यस्तताओं के बीच ना चाहते हुए भी या तो उन्हें जबरदस्ती भुलाने की कोशिश करता है या फिर अपने मन के विचारों को परे धकेलते हुए उनसे अलग होने की ठान लेता है।

क्या ऐसा वास्तव में हो पाता है? अपनों से अपने व्यक्तित्व को अलग कर पाता है कोई? शायद नहीं। अच्छा स्वयं से ही सवाल-जवाब कर जानिए क्या आप वास्तव में अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो पाते हैं।

आपका दिल व दिमाग एक साथ सहमत हो पाते हैं। जवाब इनका भी शायद नहीं ही होगा, क्योंकि बचपन से जो कर्त्तव्यों का बोध कराया जाता है, उनसे इंसानी तौर पर ना तो बचा जाता है, ना ही मुंह फेर कर किनारा किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य है कि हमें अपने थोड़े-बहुत फर्ज तो निभाने ही पड़ते हैं, चाहे खुश होकर अथवा नाखुश रहकर। माना कि आज का समय पहले जैसा नहीं रह गया। आगे बढ़ने, तरक्की के रास्ते पर चलने के लिए बैठे-बिठाए कुछ भी हासिल नहीं होता, इधर-उधर आना-जाना लगा ही रहता है, परंतु मंजिल पाने के बावजूद भी सही मायने में सफल आप तब ही कहलाओगे, जब घर-बाहर दोनों में ही संतुलन बनाकर दोहरी जिम्मेदारी व भूमिका निभाएंगे। तभी अपने कर्त्तव्य अदा कर सकेंगे।

जीवन में सबसे अहम व्यक्ति के लिए अपना परिवार ही होता है। अब यहां बात अपनों के लिए अपनेपन में कुछ करने की है तो कतई जरूरी नहीं कि बड़े-बड़े वायदे या कार्य ही किए जाएं, वरन अपनी सोच का दायरा विस्तृत कर पारिवारिक सदस्यों के हित से संबंधित छोटीछोटी बातों का ध्यान रख उन्हें अपने साथ होने का एहसास कराकर भी सच्ची खुशी दी जा सकती है और स्वयं भी आंतरिक शांति व सुकून के भागीदार हो सकते हैं।

जब हम अपने परिवार की बात करते हैं तो सबसे पहले हमारा ध्यान हमारे बड़े-बुजुर्गों, माता-पिता की ओर ही जाता है, जो कि हमारे लिए माननीय-आदरणीय तो हैं ही, साथ ही उनकी भावनाओं-संवेदनाओं की कद्र करते हुए उनकी छोटी से छोटी जरूरत इच्छा-अनिच्छा का भी हमें ख्याल रखना होता है। अपने अंतर्मन से खुद ही मालूम कर सकते हैं कि क्या हम वास्तव में ऐसा कर रहे हैं उनके प्रति, जो हमारी मूलभूत नैतिक जिम्मेदारियां हैं, उनको निभा पा रहे हैं। आज के भौतिकवादी युग में इस व्यस्त जिंदगी की दौड़-धूप में उनका साथ दे रहे हैं, इसका उत्तर भी यकीनन नहीं ही मिलेगा।

शारीरिक व मानसिक तौर पर यदि कोई एकाकीपन-अकेलेपन से जूझ रहे हैं, उपेक्षित हो रहे हैं तो वे हमारे बुजुर्ग ही हैं। हम अपने कुछ पल यदि साथ मिल-बांटकर बिता लेंगे तो यही इंसानियत तथा समझदारी-बुद्धिमत्ता के लिए बहुत है। संतान होने के नाते उनके करीब होने का एहसास करा देंगे, अपनी सोच का दायरा बड़ा रखते हुए उनके जज्बों, भावनाओं की कद्र कर दें तो हमारे थोड़े से प्रयास से ही इस संध्या बेला में जीवन के आखिरी पड़ाव में वे दो घड़ी चैन की सांस ले हाॢदक खुशी महसूस कर लेंगे।

अच्छा! जरा याद करके देखिए, कितना अरसा हो गया माता-पिता की गोद में बच्चे की तरह सिर रखकर लेटे हुए या मां से कहते हुए कि मां आज तुम्हारे हाथ की वही सब्जी बना दो जिसकास्वाद आज तक मेरे मन में है। अपने दिलोदिमाग की बात कह उनके मन की बात टटोले हुए या फिर आपकी किसी बात से माता-पिता आहत हुए हों तो बचपन की तरह उनको मनाएं बगैर उनके पास से ना हटें। छुटपन की तरह उनको प्यार व सम्मान भरी नजरों से देखते हुए और उनके बिना ना जीने की कल्पना किए हुए।

कहने का सार यह है कि माता-पिता अथवा घर के बुजुर्ग भी वही हैं और आप भी वही हो। बस दो पीढ़ियों के बीच उम्र के बढ़ते रहने पर थोड़ा सा फेरबदल नजरिये तथा सोचने-समझने का होने लगता है। कई बार चाहते हुए भी घर के तमाम सदस्य व्यस्तताओं की वजह से आपस में खुलकर स्पष्ट शब्दों में बातचीत तक नहीं कर पाते, एक-दूसरे के प्रति अपनी भावनाएं संवेदनाएं व्यक्त नहीं कर पाते हैं। बस यही स्थिति आपसी दूरियां बढ़ाकर रिश्तों में तनाव व अशांति का माहौल दर्शाने लगती है।

रिश्तों की घनिष्ठताप्रगाढ़ता पर भी इसका असर साफ झलकने लगता है। परिवार का दायरा सीमित होने लगता है। जरा सोचकर, तसल्ली से विचार कर जानिए कि ये जिंदगी जिनकी वजह से आपको मिली है, जिनकी वजह से आपका वजूद है। तो आपके लिए सदैव माननीय आदरणीय रहने ही चाहिए। उनके प्रति प्रेम व इज्जत में कभी कोई कमी नहीं आनी चाहिए। आप उम्र में सदैव माता-पिता या घर के बुजुर्गों से छोटे ही रहें तो पहला दायित्व आपका यही है कि छोटी-छोटी बातों का रोजमर्रा के जीवन में इस कदर ख्याल रखा जाए, जिससे बड़ों का मन कभी भी आहत ना होने पाए। वे शारीरिक व मानसिक पीड़ा का एहसास भी ना कर सकें।

अतएव कुछ बातों पर गौर कर हम दो पीढ़ियों के बीच के अंतर को काफी हद तक कम करने में कामयाब हो सकते हैं, घर का माहौल खुशनुमा बना सकते हैं। 1.- यह मानवीय स्वभाव ही है कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, व्यक्ति स्वयं को शारीरिक व मानसिक तौर पर कमजोर व निरीह मानने लगता है। आत्मविश्वास में कमी तथा अत्यधिक भावुकता की वजह से वे अपनों का साथ हर पल चाहने लगते हैं। उनके आस-पास ही वक्त बिताना चाहते हैं। अत: माता-पिता कहीं आपसे अलग भी हों तो प्रयास कर उनके पास ही रहें। उनके मनमाफिक खानपान व रहन-सहन में थोड़ा-बहुत तो सामंजस्य किया ही जा सकता है, ताकि उनके दिल को ठेस न पहुंचे।

बचपन की तरह आज भी उनका आप पर पूरा-पूरा हक बना रहे। 2. याद करिए! बचपन में माता-पिता आपको कभी किसी बात पर कुछ डांटते-फटकारते नहीं थे क्या? कभी कुछ कहा-सुनी हो भी जाती थी तो फिर अब थोड़ी सी उम्र ज्यादा हो जाने पर आप क्या इतने बड़े हो गए कि माता-पिता के कहे शब्दों पर ध्यान देकर उनकी बातों का बुरा मान जाते हैं। प्रेम-स्नेह ना रखकर दिल को ठेस पहुंचाने वाली बातें अथवा कार्य करने लगते हैं, यदि ऐसा करते हैं तो कदापि ना करें।

आप कितनी भी बड़ी उम्र या पढ़-लिखकर कामयाब हो जाएं, परंतु आपके बुजुर्ग तो वही रहते हैं। आपके प्रति उनकी भावनाएं, विचार नहीं बदलते हैं। आप तो हमेशा उनके लिए बच्चे ही बने रहते हैं, इसलिए उन्हें आदरणीय-पूजनीय मानकर ही व्यवहार करें। 3. घर-परिवार में बुजुर्ग हों अथवा माता-पिता उन्हें अपने बच्चों से कभी भी कुछ नहीं चाहिए, सिवाय प्यार-मोहब्बत व अपनेपन, स्नेह के। बचपन में भी वे आपकी भलाई ही चाहते थे। अब आपके बड़े होने पर भी दिल व दिमाग दोनों से सिर्फ दुआ व आशीर्वाद ही मिलता है। हमेशा आपके लिए उन्होंने कुछ किया ही है। अब यदि वृद्धावस्था में आपको उनकी सेवा करनी भी पड़ रही है तो यह तो आपके लिए सौभाग्य होना चाहिए कि उनके साथ रह, उनके लिए कुछ करने का मौका मिला है। जितना भी संभव हो, उनकी सेवा-सहायता अवश्य करें। यही मानव धर्म है।

आपकी मानवता व इंसानियत है और माता-पिता के प्रति सच्ची श्रद्धा भी। 4. कहते हैं ना, बचपन और पचपन की उम्र करीब-करीब एक जैसी ही होती है। मन अपनों का साथ चाहता है, उनके पास उनके सानिध्य की जरूरत महसूस करता है। अपनी बात मनवाने की कोशिश करता है, अपनी तरफ औरों का ध्यान आकॢषत करना चाहता है। अत: सब कुछ जानते-मानते हुए थोड़ा परिपक्व बनते हुए हम बुजुर्गों केमन, उनकी भावनाओं-इच्छाओं को भली-भांति जान सकते हैं। वे जैसा खाना-पीना या कहीं आना-जाना चाहते हैं तो उनके मन की करने दें। ऐसा करने में उनका साथ भी दें, ताकि वे अधिक खुश और संतुष्ट रह सकें।

इसके अलावा महत्वपूर्ण यह भी है कि घर में भी उनके मान-सम्मान व गरिमा का ध्यान रखते हुए उन्हें अहमियत दी जाए। घर के छोटे से छोटे फैसले या कार्य में उनसे सलाह-मशविरा लिया जाए। उनको जानकरी हर मुद्दे की रहे, ताकि घर में रहते हुए वे अपने को अलग-बेचारा ना महसूस करें और जिस शानो-शौकत, अपनेपन से पहले रहते आए हैं, वैसे ही रिटायरमेंट अथवा अधिक उम्र हो जाने पर भी रहते रहें। 5. यह तो कटु सत्य है कि जो आज है, वह कल नहीं होगा।

जो इस दुनिया में आया है, उसको एक ना एक दिन वापिस अपनी उम्र पूरी करके जाना ही है। फिर हम क्यों भूल जाते हैं, क्यूं जानबूझकर भी अनजान बने रहते हैं कि बड़े-बुजुर्गों की सेवा का मौका, उनका साथ यदि हमें मिल रहा है तो हमारे लिए बड़े ही गर्व की बात है। हमें यह पुण्य कार्य अवश्य ही निभाना चाहिए। सदैव इस बात का ध्यान रखें कि हमारे रहते हुए बड़ेबुजुर्ग ना तो मन से, ना ही तन और धन से परेशानी महसूस करें। उन्हें जरा सा भी कष्ट छूने ना पाए।

जितना उन्होंने हमारे लिए बचपन से लेकर आज तक किया है, उसकी तो हम बराबरी कर ही नहीं सकते, पर हां इतना तो कर ही सकते हैं कि उन्हें हमारे मन, वाणी व कर्मों से जरा सी भी परेशानी ना होने पाए। यदि ऐसा हम करेंगे तभी सही मायने में हमारा मनुष्य जन्म लेना सार्थक होगा। 

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