मस्ती और तरंग भरा फागुन का त्योहार होली अपने साथ जुड़ी अनेकों खट्टी-मीठी यादों और आपसी मेल-मिलाप लेकर आता है, बच्चे व बड़े सभी उत्साह से भर जाते हैं। बच्चे कई दिन पहले से ही तरह-तरह के रंग और गुलाल खरीदने लगते हैं। बच्चों के साथ बड़े भी पूरा उत्साह दिखाते हैं, पर इस उत्साह में ये रासायनिक रंग होली को बेरंगा कर जाते हैं। रासायनिक रूप से मिश्रित तेजाबी रंग हमारी त्वचा और वस्त्रों के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। यह भी जान लेना आवश्यक है।

होली का पक्का रंग-अबीर यादों को भी न रंग दे तो उसका फायदा ही क्या? अबीर और गुलाल चमकदार और आकर्षक हों तो तुरंत बिक जाते हैं। होली के अवसर पर अनेक तरह के अच्छे तथा पक्के, सूखे और पानी में घुलने वाले रंग बेचे जाते हैं, लेकिन क्या कभी आपने इस बात पर विचार किया है कि ये रंग कैसे बनते हैं? और कुछ रंग कच्चे कुछ पक्के क्यों होते हैं? चलिए हम आपको बताते हैं इन रंगों का रंगीन सफर।

होली के अवसर पर सबसे ज्यादा बिकता है गुलाल। बड़े-बड़े बर्तनों में पहाड़ों जैसे इसके ढेर बनाकर हर दुकानदार इसी रंग को सबसे आगे रखता है। होली का गुलाल वैसे तो परंपरागत रूप से पौधों से बनाया जाता था, लेकिन आजकल रासायनिक रूप से संश्लेषित या मिला-जुला गुलाल ही ज्यादा बिकता है। मूलत: सभी रंग पौधों और प्रकृति से ही प्राप्त होते हैं पर आज के जमाने में जब हर कोई रंगों की मांग कर रहा है, भारी मांग को पूरा करने के लिए इसे रासायनिक विधियों से मिश्रित कर बड़ी मात्रा में तैयार किया जाता है। प्राकृतिक स्रोत से तैयार रंगों की तुलना में ऐसा संश्लेषित रंग सस्ता भी होता है।

दुकानदार के बर्तन में जो गुलाल का ढेर रखा होता है, वह रंग नहीं होता। रंग की मात्रा थोड़ी सी ही होती है। इसमें फ्रेंच खड़ियां, स्टार्च, खाने का नमक, बोरिक एसिड वगैरह रहते हैं। रंग की मात्रा को बढ़ाने व इसे हल्का करने के लिए ऐसा किया जाता है।

ऐसे बनते हैं रंग

होली के अवसर पर मुख्यत: तीन तरह के रंगों का उपयोग होता है। तेजाबी रंग, मूल रंग और मिश्रित अथवा हल्का रंग। कभी-कभी सीसा से बने या पोटैशियम डाइक्रोमेट से बने रंगों का उपयोग भी कर लिया जाता है। तेजाबी रंगों में आमतौर पर सिंदूरी, भड़कीला केसरिया, संतरा और पीली रंगत के रंग होली पर बिकते हैं। सिंदूरी, केसरिया और संतरी रंगों से गुलाल बनाया जाता है। यह तेजाबी रंग रेशमी, ऊनी और नायलान के वस्त्रों को लाल रंग या पीलापन लिए लाल रंग में रंग डालते हैं। प्रोटीन से मिलने पर ये रंग रासायनिक रूप से एकदम क्रियाशील हो जाते हैं। इसलिए तेजाबी रंग अगर कई घंटे तक हमारी चमड़ी और बालों पर पड़े रहें तो उनकी रंगत बदल देते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बालों और चमड़ी की कोशिकाओं में प्रोटीन होता है। वास्तव में तेजाबी संतरा रंग तो अनेक देशों में बालों को रंगने के लिए ही इस्तेमाल होता है। यदि तेजाबी रंगों से बालों और चमड़ी की रंगत हल्की सी बदलती है तो उसे साबुन या शैम्पू से नहाकर पहले जैसा किया जा सकता है। पर यदि ऐसा रंग काफी देर तक लगा रहे तो पहले जैसा रंग दोबारा आने में कई महीने लग सकते हैं।

तेजाबी एवं रासायनिक रंगों के बाद ज्यादा गहरी रंगत मूल रंगों की होती है। रंगों में अधिकतर तांबाई हरा, बैंगनी, चमकीला हरा आदि रंगों का उपयोग होता है। इनका व्यापारिक उपयोग कागज व चमड़ा रंगने तथा कई रंगतों की लेखन स्याही और पेंसिल से लिखने के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले कार्बन बनाने में होता है, जिंक क्लोराइड युक्त मूल रंग सामग्री कुछ हद तक जहरीला प्रभाव उत्पन्न करती है।

रंगों में रसायन की करें पहचान

हमारे लिए तेजाबी रंग विशेषकर हानिकारक होते हैं, और वह तब जब वो रासायनिक रूप से मिश्रित रंग हों। इसीलिए ऐसे रंगों की पहचान होनी चाहिए। ऐसा करने के लिए किसी भी उपलब्ध रंग को बिना किसी पूर्वाग्रह के उठा लें। उसे साधारण तरीके से पानी में घुलने दें। इसमें ऊनी व सूती कपड़े का टुकड़ा डालें। फिर थोड़ा सिरका डालकर उबलने दें। अब ठंडा होने पर टुकड़ों को साबुन व पानी से धोएं। अगर रंग सूती कपड़े पर से उतर जाए और ऊनी पर चिपका रहे तो समझ लेना चाहिए कि यह रंग तेजाबी है। यदि सूती व ऊनी दोनों कपड़ों से रंग न उतरे तो समझना चाहिए कि यह प्राकृतिक रंग है। मूल रंग वैसे तो तेजाबी रंग की तरह कपड़ों पर प्रभाव छोड़ते हैं, लेकिन उनकी रंगत जल्दी उड़ जाती है और सूर्य के प्रकाश में तो ये फौरन फीके पड़ जाते हैं, जैसे हल्दी में रंगा कपड़ा।

आमतौर पर रंगों के प्रभाव की कोई भी चिंता नहीं करता। इतने हुडदंग में खुशी के लिए अगर एक जोड़ा कुर्ता या पाजामा या फिर पुरानी-पैंट-कमीज रंग भी डाली गयी तो क्या आफत आ गयी, लेकिन कभी-कभी अचानक पकड़ में आने पर बढ़िया कपड़े रंग से तर कर दिए जाते हैं।

गुलाल से रंगे कपड़ों को ही ले लें, पहली बार धोने पर भी कपड़े पर लगे रंग के धब्बे नहीं छूटते, चूंकि पानी लगने के बाद गुलाल कपड़े से चिपक जाता है, इसलिए बेहतर है कि कपड़ों को पानी में डालने से पहले झाड़ लिया जाए, ताकि अधिकांश सूखा रंग उतर जाए। बाद में धब्बों को धोना एक जहमत ही है।

सूती कपड़ों पर चढ़ा होली का रंग जल्दी उतरता है, क्योंकि इन पर तेजाबी और मूल रंगों का असर इतना नहीं होता जितना कि प्राकृतिक रंग का। तेजाबी और मूल रंगों में रंगे कपड़े को साबुन से साधारण ढंग से धोने पर इसके धब्बे छूट जाते हैं पर अगर कुछ धब्बे न उतरें तो पहले कपड़ों को नमक मिले पानी में डुबो कर रखना चाहिए और हल्का गरम कर लेना चाहिए, तभी धब्बे छूटेंगें।

रंग खेलें, जरा ध्यान से 

हमारी त्वचा एक ऐसा रक्षा कवच है जो थोड़ी मात्रा में हानिकारक रासायनिक तत्त्वों को रक्त के जरिए शरीर में नहीं पहुंचने देती, लेकिन होली खेलने वालों को जिनके शरीर पर कोई घाव हो या घाव अभी पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ हो, ऐसी स्थित में रंगों में घुला रासायनिक तत्त्व घाव के जरिए रक्त में मिल जाएगा और इससे हानिकारक प्रभाव हो सकते हैं। शरीर में इस तरह पहुंचे कुछ रसायन जो पानी में घुल जाते हैं, वे मल त्याग के जरिए बाहर आ जाते हैं, पर सीसा और जस्ता के रसायन शरीर में ही बैठ जाते हैं। सीसा रक्त में रह जाए तो रक्त कैंसर जैसी भयानक बीमारी हो जाती है। होली के जिन रासायनिक रंगों को जिंक क्लोराइड से तैयार किया जाता है। उनके त्वचा के संपर्क में आने पर फोड़े हो जाते हैं, यदि होली का रंग फेंकते समय संयोग से जिंक क्लोराइड की कुछ मात्रा मुंह से शरीर में प्रवेश कर जाए तो न केवल शरीर के अंदर नाजुक अंगों की महीन झिल्लियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, बल्कि चमड़ी का रंग भी नीला सा पड़ जाता है। कभी-कभी गुलाल बनाने में पोटैशियम डायक्रोमेट डाल दिया जाता है। यह पदार्थ खतरनाक है और इसके प्रभाव से कई तरह के त्वचा रोग होने का भय रहता है।

चूंकि बाजार में बिकने वाले अधिकतर अबीर-गुलाल रासायनिक होते हैं, इसलिए उत्साहित होकर रंग शरीर पर चिपकाए रखने में फायदा तो कुछ नहीं नुकसान ज्यादा हो जायेगा। बच्चों की तो विशेष सावधानी रखने की जरूरत होती है क्योंकि उन्हें रंग तुरंत झाड़नें या धोने का बोध नहीं रहता, इसलिए होली के दौरान रंगों की महफिल में जाइए जरूर पर थोड़ी देर ही उन्हें अपना साथी बनाइए।