करवा चौथ की शाम को एक पार्टी में फंस गई। उसमें मर्द तो हमेशा जैसी अपनी पोशाक में थे पर औरतें, (हर उम्र की सुहागिनें) दुल्हन-सी सजी हुई थीं। खूब सजी-धजी, खूब मेकअप किया हुआ। जरूरत से ज्यादा जेवर शरीर पर। इस सब सज-धज के बावजूद भी चेहरे जरूर उतरे हुए थे, सब के, सुबह से कुछ खाया पिया जो नहीं था। पार्टी की गई थी ताश खेलने को, ताकि शाम को चांद निकलने से पहले का वक्त जो काटे नहीं कटता, जल्दी कट जाए। पति जिनके लिए वो व्रत था, जिनकी वजह से वो सजधज थी, वो उन भूखी पत्नियों के सामने बैठे खूब माल उड़ा रहे थे, चाय पी रहे थे। एक पत्नी ने, जिसे शायद ज्यादा भूख लग रही थी, कुछ झल्ला कर कहा भी था, ”हम तो जनाब के लिए भूखे मर रहे हैं – और ये हैं, जो सामने बैठे खाए जा रहे हैं”। जवाब पति के पास हाजिर था” हमने कहा है तुम्हें भूखे मरने को?”

मुझे सब कुछ बहुत अटपटा लग रहा था। शादीशुदा हूं – पर करवा चौथ का व्रत नहीं रखती। शुरू में कुछ विश्वास नहीं रहा व्रत आदि में। भगवान से कुछ मांगने को व्रत रखना, पास होने, बेटा पाने या कुछ और करवाने के लिए प्रसाद चढ़ाने का रिवाज भगवान को घूस देना लगता है। ”ये कर दो भगवान तो पांच रुपए”। वो बेचारा भी रिश्वत से नहीं बच पाया। समाज का कुछ असर उसके भगवान पर भी पड़ना शायद लाजमी है।

उस चलते हुए फ्लैश, रोजगारी की झनकार, पत्नियों की सजधज, पतियों के खाने-पीने में मशगूल होना, इस सबमें बहुत से अन्तर्विरोध नजर आ रहे थे। उस पूरे वातावरण में कोई पवित्रता नहीं दिख रही थी, तो एक तरफा ‘सुहाग’ बने रहने की ख्वाहिश भी सोचने को मजबूर कर रही थी।

करवा चौथ का व्रत हमारे और बहुत से रिवाजों की तरह पत्नी के अपने पति पर पूर्ण रूप से निर्भर होने का एक और सबूत है। पुरुष के अहम् को बनाए रखने का भी शायद यह एक तरीका है। हमारे देश में ही नहीं अन्य देशों में भी मां अपनी बेटी को यही शिक्षा देती है, कि उसे पति के अहम् को चोट नहीं पहुंचानी है। उसके पौरुष को और सबल बनाने में ही उसका भला है। दूसरी ओर लड़की को यह कहा जाता है कि वो स्वाभिमानी न हो, अहम् वाली न हो। उसे सब सहना ही शोभा देता है और फिर सहनशक्ति तो आत्मबल की निशानी है।

ईमान से सोचिए, क्या वह पत्नी जो दिन भर व्रत रखती है, भूखी-प्यासी रहती है, शाम को पूजा करके भगवान से अपने पति की दीर्घायु, अपने पति की भलाई की कामना करती है- क्या सच में निस्वार्थ होती है? उसकी पूजा तो पति के लिए कम, अपने लिए ज्यादा होती है। पति की दीर्घायु, पति के धन, पति की सुरक्षा में उसकी अपनी सुरक्षा जो निहित है। सामाजिक व आर्थिक विशेषताएं ऐसे व्रतों को बल देती हैं।

ऐसा कोई व्रत क्यों नहीं होता, जिसे एक पति करता हो अपनी पत्नी की दीर्घायु के लिए? ऐसा कोई त्योहार क्यों नहीं है, जब पति अपने सुहाग को बरकरार रखने की प्रार्थना करता हो? ऐसा क्यों है क्या पत्नी पति के लिए, बच्चों के लिए, घर के लिए वो महत्त्व नहीं रखती जो एक पति रखता है? क्या पत्नी पति के लिए इतनी जरूरी नहीं है, जितना पति पत्नी के लिए? क्या रुपया कमा लेने से ही महत्त्व बढ़ता है? घर का काम जो कभी समाप्त नहीं होता है, जिससे कभी छुटकारा नहीं मिलता, जिसमें कभी छुट्टियां नहीं मिलतीं, जरूरी नहीं है?

अगर पैसा कमाना ही पति के महत्त्व को इतना बढ़ाता है तो वे पति-पत्नी, जो दोनों कमाते हैं, मिलकर व्रत क्यों नहीं करते? दोनों मिल कर अपने सुहाग की मंगल कामना क्यों नहीं करते? आखिर कई पति-पत्नी हैं, जो ऐसा करना चाहेंगे।

पर पतियों के लिए हमारे समाज ने करवा चौथ की स्थापना नहीं की, क्योंकि उसकी नजर में वैवाहिक जीवन पति के लिए उतना महत्त्व नहीं रखता जितना पत्नी के लिए। इसी बात को एक लेखिका ने बहुत दर्दनाक खूबसूरती से कहा है –

”हर औरत को पति के माध्यम से जीना होता है, या बच्चे के माध्यम से। इसीलिए उसके निजी अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं होता। उसके सिर्फ दो ही नाम होते हैं- एक पत्नी और दूसरा मां और दोनों नाम किसी दूसरे के अस्तित्व की वजह से होते हैं। पति हो तो उसके अस्तित्व के कारण वो पत्नी हो सकता है, बच्चा हो तो उसके अस्तित्व के कारण वह मां हो सकती है।”

करवा चौथ के व्रत पर शुरू हुई विचारों की श्रृंखला आगे बढ़ी चली गई यदि पत्नी अपने पति के लिए सब कुछ करती है, उसकी भलाई का पूरा ख्याल रखती है तो उसकी पतिव्रता कह कर सराहना की जाती है। पर जब पति पत्नी की इच्छानुसार कुछ करता है, उसकी बात रखता है तो ‘जोरू का गुलाम’ कह कर उसका मजाक उड़ाया जाता है, क्यों? क्या यह पत्नी के प्रति एक उदार तथा सही रुख को दबाना नहीं?

अपने यहां अगर पति बड़ा अऌफसर है तो समाज में पत्नी का भी ओहदा अपने आप बढ़ेगा। पति थानेदार है तो वह थानेदारनी, और पति कलैक्टर है तो वह कलैक्टरनी। पर अगर पत्नी की वजह से पति का नाम हो, तो सारा समाज उस पति पर या तो तरस खाता है या उसे धिक्कारता है। महारानी एलिजाबेथ के पति ड्यूक ऑफ एडिनबरा से सब मर्दों की बहुत सहानुभूति है। जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री नहीं थीं, पर नेहरू की बेटी होने के नाते ज्यादा मशहूर थी तो फिरोज गांधी के साथ सब को बहुत हमदर्दी थी। मर्द की मर्दानगी के खिलाफ कही जाती है ये बात, कि पत्नी का ओहदा उस से ऊंचा हो। एक हिन्दुस्तानी फिल्म में स्त्री गाना गाती है –

”होता तू पीपल, मैं होती रे अमर लता तेरी”

अजीब बात है कि सारे घर का भार यह लता ही सम्भालती है। सारा घर उस पर आश्रित होता है पर कहलाती फिर भी अमर लता ही है। आश्रित फिर भी केवल वही मानी जाती है पति पर। उसके दिन भर के काम को तो काम नहीं माना जाता। वो जो समाज के लिए इतना बड़ा काम करती है नई पीढ़ी को तैयार करने का, उसका पूरा श्रेय तक उसे नहीं मिलता।

देश में आज जब हर तरफ बात समानता की हो रही है, समाजवाद की हो रही है, यह देखना भी जरूरी है कि खुद हमारे परिवारों में स्त्री पुरुष के बीच कितनी समानता है? क्या एक ‘पेड़’ और एक ‘अमरलता’ में विवाह संभव है? क्या इस प्रकार के विवाह में वे सचमुच एक दूसरे के साथी और मार्गदर्शक हो सकते हैं? भला एक व्यक्ति और एक साए में विवाह कैसे हो सकता है?

यदि विवाह केवल दो शरीरों का मिलन ही नहीं है, यदि विवाह केवल एक सामाजिक जरूरत ही नहीं है- यदि विवाह दो आत्माओं का भी मिलन है, दो मस्तिष्क का मिलन है, तो यह तो तभी संभव होगा, जब ऐसे व्यक्तियों का गठबंधन हो जिनके अपने व्यक्तित्व हों, अपने अस्तित्व हों। जब दोनों ही के लिए इस बंधन को बराबर महत्त्व हो और दोनों ही इस बंधन में होते हुए भी निरंतर अपने व्यक्तित्व का विकास कर पाएं।

जब ऐसे विवाह होंगे, तो शायद करवा चौथ जैसे व्रत भी दोनों रखेंगे। कितना सुंदर होगा वह करवा चौथ का त्योहार, जब पति पत्नी दोनों इक व्रत रखेंगे, इक_चांद निकलने का इंतजार करेंगे, और दिन डूबने पर एक दूसरे को खिलाकर अपना व्रत तोड़ेंगे। दिन भर ऐसे ही वातावरण में होगी एक सुंदर भविष्य, एक दृढ़ संबंध, एक लंबे सुहाग भरे जीवन की कामना की सुगंध।

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