‘मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि
सुस्थिर श्री प्राप्त, करक चतुर्थी
व्रतमहं करिष्ट॥’
उपरोक्त मंत्र से संकल्प लेकर व्रत की शुरुआत कर के सर्वप्रथम गणेश जी भगवान शिव, माता पार्वती, कार्तिकेय व चंद्रमा की पूजा की जाती है। संकल्प लेने से पहले सूर्योदय से पूर्व सुहागिनों का स्नान करना, स्वच्छ कपड़े व शृंगार जरूरी होता है। पूजा के बाद नैवेद्य के रूप में ‘सरगी’ का सेवन किया जाता है। इसके बाद पूरा दिन निर्जला व्रत रखने के बाद रात को चांद के दर्शन कर व अर्घ्य देने के बाद ही यह व्रत सम्पूर्ण होता है।
पूजा-विधि
करवा लेकर उस पर स्वस्तिक का निशान बनाएं व उस पर मौली बांध दें। करवे में चावल या गेहूं भर दें एवं उसके ढक्कन पर मिठाई व शगुन रखें। कथा सुनते समय चावल के 13 दाने अपने हाथ में रखें। बाद में उन्हें पानी भरे लोटे में डाल कर एक ओर पूजास्थल पर रख दें। अपनी सास के पैरों को छूकर उनका आशीर्वाद लें व करवा उन्हें दे दें। रात को चांद निकलने के बाद पानी से भरे लोटे द्वारा चांद को अर्घ्य दें। तब अन्न ग्रहण करें।
करवा चौथ की कथा
बहुत समय पहले वीरांवती नामक एक राजकुमारी थी, जो अपने सात भाईयों की इकलौती लाडली बहन थी। युवा होने पर उसका विवाह योग्य वर से हो गया। शादी के बाद वह करवाचौथ का व्रत रखने मायके आई और ऌप्रात: होते ही उसने पूरे विधि-विधान से व्रत रखा। कोमल व नाजुक होने के कारण वीरांवती शाम होने तक बहुत कमजोरी महसूस करने लगी व बेसुध हो गई। ऐसे में भाइयों के पास उसका व्रत तुड़वाने के अतिरिक्त दूसरा कोई चारा नहीं था। उन्होंने दूर पहाड़ी के पीछे आग लगा दी और छलनी की ओट से, वीरांवती को चांद निकलने की बात कह कर उसे अर्घ्य दिलवा दिया। जैसे ही वीरांवती ने भोजन किया, उसे अपने पति की मृत्यु का समाचार मिला। वह रोते-रोते अपने पति के दर्शन के लिए ससुराल चल पड़ी। रास्ते में उसे माता पार्वती मिली तो उन्होंने रोने का कारण पूछा। तब पार्वती मां ने उसे उसके भाइयों के बारे में सब बता दिया। वीरांवती अपनी गलती के लिए माता से क्षमा मांगने लगी तो मां पार्वती ने कहा कि तुम पूरी श्रद्घा से करवाचौथ का व्रत रखो। वीरांवती जब अपने महल पहुंची तो उसने देखा कि राजा बेहोश था व उसके शरीर में कई सूइयां चुभी हुई थी सेवा करते हुए वह हर रोज एक सूई निकाल देती। अब करवाचौथ का व्रत आया तो राजा के शरीर में केवल एक ही सूई बची थी। वीरांवती कुछ काम से बाहर गई तो दासी ने आखिरी कील भी निकाल दी। उसी समय राजा को होश आ गया। दासी को देखते ही राजा को लगा सेवा दासी ने ही की है। राजा ने उसे अपनी रानी बना लिया। रानी वीरा जब वापिस आई तो उसे दासी बना दिया। तब भी वीरा ने करवाचौथ के व्रत को पूरे विश्वास से किया। ऐसे में एक दिन जब राजा किसी दूसरे राज्य में काम से जा रहे थे तो उन्होंने वीरांवती से पूछा कि तुम्हे कुछ मंगवाना तो नहीं? तब वीरा ने कहा कि मुझे एक जैसी दो गुड़िया ला देना। राजा ने ठीक वैसा ही किया। वीरां हमेशा यही गीत गाने लगी ‘रोली की गोली हो गई, गोली की रोली हो गई, यानि रानी बन गई दासी, दासी बन गई रानी।’ जब राजा ने इस बात के पीछे छिपी सारी सच्चाई जानी तो उसने वीरां को वापस अपनी रानी बना लिया।
करवा बंटाना- कथा के पश्चात शाम को मेहंदी से रचे हाथों और सोलह श्रंगार से सजी सुहागिनें एक गोल घेरे में बैठ कर अपनी थालियां एक दूसरे से बदलते हुए यह गीत गाती हैं-
वीरां कुड़िए करवड़ा, ले सर्व सुहागन करवड़ा, कट्टी ना अटेरी ना,
घूम चरखरा फेरी ना, गवान्ड पैर पाईं ना, सूई च धागा पाईं ना,
रूठड़ा मनाई ना, सुतड़ा जगाई ना,
सुन बहन प्यारी वीरां,
चन्न देढ़े ने पानी पीना, ले वीरां कुड़िए करवड़ा ले सर्व सुहागन करवड़ा।
इस दौरान महिलाओं का शृंगार और उत्साह देखते ही बनता है। सास द्वारा अपनी बहू को और माता-पिता द्वारा बेटी को करवाचौथ पर सरगी के रूप में गहने, कपड़े, फल, मिठाई व शगुन भेजने की भी परंपरा है।
रात को चांद निकलने पर सुहागिनें छलनी की ओट से चांद के दर्शन के बाद पति के दर्शन कर उनका आशीर्वाद लेती हैं। वे चांद को अर्घ्य देते समय गाती हैं-
‘सीर घड़ी पेर कड़ी,
अर्घ्य देंदी सुहागिन चौबारे खड़ी।’
इस प्रकार करवाचौथ का व्रत संपूर्ण होता है। यह व्रत सबंधों में भावनात्मक दृढ़ता लाता है। सुहागिनें ईश्वर के समक्ष व्रत रखते हुए यह प्रण करती हैं कि वे मन, वचन, कर्म से अपने पति के प्रति समर्पित रहेंगी।
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