पूजा, भक्ति, आराधना… नाम कुछ भी हो पर अर्थ एक ही हैं। प्रभु स्मरण का ये तरीका उतना ही पुराना है जितना कि सनातन धर्म। भगवान से जुड़े रहने का ये वो दूरसंचार माध्यम है, जिसके जरिए हम अपनी बातें, शिकायतें व अरदास उन तक पहुंचाते हैं। इस संचार के लिए हम पूजा घर में मिलने वाली व्रत कथाएं, मंत्र-जाप पुस्तिका या आरती संग्रह का सहारा लेते हैं। रोजाना या साप्ताहिक पढ़े जाने वाले एक-एक शब्द को हम मुंह-जुबानी याद कर लेते हैं और उसका अर्थ जाने बगैर ही उस जाप को मन ही मन दोहराते रहते हैं। क्या इन शब्दों में छुपे अर्थ को जानना हमारे लिए जरूरी नहीं…
जब छोटी कक्षा से लेकर कॉलेज तक में पढ़े जाने वाले पाठ का अर्थ जानना जरूरी होता है तो फिर क्यों जन्म से मृत्यु तक की जाने वाली भक्ति को दिल से समझना जरूरी नहीं। किसी भी विषय में सही लीनता व रुचि तभी आती है जब उसमें पढ़ी जाने वाली हर एक बात हमारे दिमाग में साफ-साफ लिख जाती है और तभी इम्तिहान में नंबर भी अच्छे आते हैं। घर में रोज सुबह दीया जलाकर हम सभी ऊपर वाले की पाठशाला में अपनी हाजिरी तो लगा देते हैं और मतलब समझे बगैर ही मंत्र पढ़ते चले जाते हैं… पर 365 दिन कक्षा में बैठने वाला छात्र भी यदि बिना मतलब समझे शिक्षा लेता रहे तो उसकी शिक्षा का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
मैं मानती हूं कि हमारे धर्म में पढ़ी जाने वाली पौराणिक कथाएं, आदि ब्राह्मïणों ने धर्म के विभिन्न पहलुओं को सरल भाषा में आम लोगों को समझाने के लिए रची थीं। इनमें से कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के रूपांतरण या लौकिक जीवन से जुड़ी कल्पनाओं पर आधारित थीं। पर क्या ये कहानियां अप्रासंगिक सी नहीं लगती… ईश्वर क्षमा करें मुझे लेकिन मुझे ना जाने क्यों कुछ कहानियों को पढ़ते वक्त कभी गुस्सा तो कभी हंसी आती है।

मिसाल के तौर पर करवाचौथ की व्रत कथा, जिसमें एक साहूकार के 7 बेटे और एक बेटी होती है… उसका करवाचौथ का व्रत भाइयों द्वारा चांद दिखाकर खुलवा दिया जाता है। इसके बाद एक वर्ष तक पति के शरीर पर सुईयां निकलना और भाभियों से प्रिय की सुई मांगना ताकि वो फिर से सुहागन हो जाए और फिर एक भाभी का ऊंगली काट कर अमृत मुंह में डालना और उसके पति का जीवित हो जाना। ये उस पूरी कहानी के कुछ घटनाक्रम हैं, जो मुझे सच में हज़म नहीं होते। सबसे पहले तो जब भाभी ने व्रत खोलने से ये कहकर मना कर दिया कि अभी उनका चांद नहीं निकला, तब भी उसने अपना व्रत खोल दिया। दूसरी चीज, पेड़ पर भाईयों का दीया लेकर खड़े हो जाना और बहन का उसे चांद समझ लेना… अब मुझे कोई ये बताए कि पेड़ कितना लंबा था, क्या भाईयों ने आकाश में दीया जलाकर उसे चंद्रमा बना दिया। इसके बाद वो अपनी भाभी से जिस प्रिय सुई की मांग कर रही थी ताकि उसके पति के प्राण वापस आ जाएं, वो प्राण किसी सुई से नहीं बल्कि भाभी की ऊंगली से अमृत निकलने के कारण वापस आए। इस पूरी कथा में सब कुछ इतना आधारहीन व अर्थहीन है कि पूजा करते वक्त मैं अपने मन को एकाग्र कर ही नहीं पाती हूं और क्योंकि निष्ठावान मन के लिए पूजा सिर्फ मुंह से बोलनी या सुननी ही नहीं बल्कि दिल से समझनी भी जरूरी होती है। इसके अलावा एक और बात इन कथाओं को पढ़कर मेरे दिल में बार-बार आती है, जैसे व्रत नहीं रखा तो पति मर गया, पूजा करना भूल गए तो राज-पाट छिन गया, ज्योत नहीं जलाई तो संतान चली गई… आखिर क्या है ये सब… क्या सचमुच भगवान इतना निर्दयी है? ऊपरवाले को हम परमपिता कहते हैं, आखिर कौन से मां-बाप ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों को गलती करने पर इतनी कड़ी सजा देते हैं? भगवान के चरित्र को इतना क्रूर दिखाने वाली ये कथाएं हमें उससे डरने पर विवश करती हैं, न कि हमें दिल से भगवान की ओर खींचती हैं। यह बातें कहकर मैं ये बिल्कुल नहीं जताना चाहती कि मैं प्रभु-भक्ति के खिलाफ हूं। मैं तो बस यही चाहती हूं कि इस पवित्र कार्य में हम उसके साथ कोई खिलवाड़ न करें। अगर पूजा घर में कंचन थाल नहीं सजाई है तो आरती के वक्त कंचन थाल विराजत अगरकपूर बाती न गाएं, अगर भगवान को अपना जीवन समर्पित कर चुके हैं तो मोह-माया में अपना ध्यान न लगाएं। मंदिर आने वाले श्रद्धालुओं से उनकी गाड़ी व रुतबा देखकर चढ़ावे की उम्मीद न करें। वैसे तो इस चर्चा का विषय अंतहीन है लेकिन ऊपर ज़ाहिर कुछ उदाहरणों से मैंने खरी बात आपसे कही है, जो आपको भी सोचने पर मजबूर कर दे।