sajjanata dand by munshi premchand
sajjanata dand by munshi premchand

साधारण मनुष्य की तरह शाहजहांपुर के डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर सरदार शिव सिंह में भी भलाइयां और बुराइयां, दोनों ही वर्तमान थीं। भलाई यह कि उनके यहां न्याय और दया में कोई अन्तर न था। बुराई यह थी कि वे सर्वथा निर्लोभ और निस्वार्थ थे। भलाई ने मातहतों को निडर और आलसी बना दिया था, बुराई के कारण उस विभाग के सभी अधिकारी उनकी जान के दुश्मन बन गये थे।

प्रातःकाल का समय था। वे किसी पुल की निगरानी के लिए तैयार खड़े थे। मगर सईस अभी तक मीठी नींद ले रहा था। रात को उसे अच्छी तरह से सहेज दिया था कि पौ फटने के पहले गाड़ी तैयार कर लेना। लेकिन सुबह हुई, सूर्य भगवान् ने दर्शन भी दिये, शीतल किरणों में गर्मी भी आयी, पर सईस की नींद अभी तक नहीं टूटी।

सरदार साहब खड़े-खड़े थककर एक कुर्सी पर बैठ गये। सईस तो किसी तरह जागा, परंतु अर्दली के चपरासियों का पता नहीं। जो महाशय डाक लेने गये थे वे एक ठाकुरद्वारा में खड़े चरणामृत की प्रतीक्षा कर रहे थे। जो ठेकेदार को बुलाने गये थे, वे बाबा रामदास की सेवा में बैठे गांजे का दम लगा रहे थे।

धूप तेज होती जाती थी। सरदार साहब झुंझलाकर मकान में चले गये और अपनी पत्नी से बोले, इतना दिन चढ़ आया, अभी तक एक चपरासी का भी पता नहीं। इसके मारे तो मेरे नाक में दम आ गया है।

पत्नी ने दीवार की ओर देखकर दीवार से कहा, यह सब उन्हें सिर चढ़ाने का फल है। सरदार साहब चिढ़ कर बोले, क्या उन्हें फांसी दे दूं?

सरदार साहब के पास मोटरकार का तो कहना ही क्या, कोई फिटन भी न थी। वे अपने इक्के से ही प्रसन्न थे, जिसे उनके नौकर-चाकर अपनी भाषा में उड़नखटोला कहते थे। शहर के लोग उसे इतना आदर-सूचक नाम न देकर छकड़ा कहना ही उचित समझते थे। इस तरह सरदार साहब अन्य व्यवहारों में भी बड़े मितव्ययी थे। उनके दो भाई इलाहाबाद में भी पढ़ते थे। विधवा माता बनारस में रहती थीं। एक विधवा बहिन भी उन्हीं पर अवलम्बित थी। इनके सिवा कई गरीब लड़कों को छात्रवृत्तियां भी देते थे। इन्हीं कारणों से वे सदा खाली हाथ रहते यहां तक कि उनके कपड़ों पर भी इस आर्थिक दशा के चिह्न दिखाई देते थे। लेकिन यह सब कष्ट सहकर भी वे लोभ को अपने पास फटकने न देते थे। जिन लोगों पर उनका स्नेह था वे उनकी सज्जनता को सराहते थे और उन्हें देवता समझते थे। उनकी सज्जनता से उन्हें कोई हानि न होती थी, लेकिन जिन लोगों से उनके व्यावसायिक संबंध थे वे उनके सद्भावों के ग्राहक न थे, क्योंकि उन्हें हानि होती थी। यहां तक कि उन्हें अपनी सहधर्मिणी से भी कभी-कभी अप्रिय बात सुननी पड़ती थी।

एक दिन वे दफ्तर से आये तो उनकी पत्ती ने स्नेहपूर्ण ढंग से कहा, तुम्हारी यह सज्जनता किस काम की, जब सारा संसार तुमको बुरा कह रहा है।

सरदार साहब ने दृढ़ता से जवाब दिया, संसार जो चाहे कहे परमात्मा तो देखता है।

रामा ने यह जवाब पहले ही सोच लिया। वह बोली, मैं तुमसे विवाद तो करती नहीं, मगर जरा अपने दिल में विचार करके देखो कि तुम्हारी इस सचाई का दूसरों पर क्या असर पड़ता है ? तुम तो अच्छा वेतन पाते हो। तुम अगर हाथ न बढ़ाओ तो तुम्हारा निर्वाह हो सकता है ? रूखी रोटियाँ मिल ही जायँगी, मगर ये दस-दस पाँच-पाँच रुपये के चपरासी, मुहर्रिर, दफ्तरी बेचारे कैसे गुजर करें। उनके भी बाल-बच्चे हैं। उनके भी कुटुम्ब-परिवार हैं। शादी-गमी, तिथि-त्योहार यह सब उनके पास लगे हुए हैं। भलमनसी का भेष बनाये काम नहीं चलता। बताओ उनका गुजर कैसे हो ? अभी रामदीन चपरासी की घरवाली आयी थी। रोते-रोते आँचल भीगता था। लड़की सयानी हो गयी है। अब उसका ब्याह करना पड़ेगा। ब्राह्मण की जाति हजारों का खर्च। बताओ उसके आँसू किसके सिर पड़ेंगे ?

सरदार ने तीव्र होकर उत्तर दिया, यह उन लोगों पर पड़ेगी जो अपनी हैसियत और आमदनी से अधिक खर्च करना चाहते हैं। अरदली बनकर क्यों वकील के लड़के से लड़की ब्याहने की ठानते हैं। दफ्तरी को यदि टहलुवे की जरूरत हो तो यह किसी पाप कार्य से कम नहीं। मेरे साईस की स्त्री अगर चांदी की सिल गले में डालना चाहे तो यह उसकी मूर्खता है। इस झूठी बढ़ाई का उत्तरदाता मैं नहीं हो सकता।

इंजीनियरों का ठेकेदारों से कुछ ऐसा ही संबंध है जैसे मधु-मक्खियों का फूलों से। अगर वे अपने नियत भाग से अधिक पाने की चेष्टा न करें तो उनसे किसी को शिकायत नहीं हो सकती। यह मधु-रूस कमीशन कहलाता है। रिश्वत लोक और परलोक, दोनों का ही सर्वनाश कर देती है। उसमें भय है, चोरी है, बदमाशी है, मगर कमीशन एक मनोहर वाटिका है, जहां न मनुष्य का डर है, न परमात्मा का भय, यहां तक कि वहां आत्मा की छिपी हुई चुटकियों का भी गुजर नहीं है। और कहां तक कहें, उसकी ओर बदनामी आंख भी नहीं उठा सकती। यह वह बलिदान है जो हत्या होते हुए भी धर्म का एक अंश है। ऐसी अवस्था में यदि सरदार शिवसिंह अपने उज्ज्वल चरित्र को इस धब्बे से साफ रखते थे और उस पर अभिमान करते थे तो क्षमा के पात्र थे।

मार्च का महीना बीत रहा था। चीफ इंजीनियर साहब जिले में मुआइना करने आ रहे थे। मगर अभी तक इमारतों का काम अपूर्ण था। सड़कें खराब हो रही थी, ठेकेदारों ने मिट्टी और कंकड़ भी नहीं जमा किये थे।

सरदार साहब रोज ठेकेदारों को ताकीद रखे थे, मगर इसका कुछ फल न होता था। एक दिन उन्होंने सबको बुलाया। वे कहने लगे, तुम लोग क्या यही चाहते हो कि मैं इस जिले से बदनाम होकर जाऊं। मैंने तुम्हारे साथ कोई बुरा सलूक नहीं किया। मैं चाहता तो आपसे काम छीनकर खुद करा लेता, मगर मैंने आपको हानि पहुंचाना उचित न समझा, उसकी मुझे यह सजा मिल रही है। खैर!

ठेकेदार लोग यहां से चले तो बातें होने लगीं। मिस्टर गोपाल दास बोले, सब आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा।

शाहबाज खां ने कहा, किसी तरह इसका जनाजा निकले तो यहां से…

सेठ चुन्नीलाल ने फरमाया, इंजीनियर से मेरी जान-पहचान है। मैं उनके साथ काम कर चुका हूं। वह इन्हें खूब लथेड़ेगा।

इस पर बूढ़े हरिदास ने उपदेश दिया, यारों स्वार्थ की बात है। यही तो सच यह है कि यह मनुष्य नहीं, देवता है। भला और नहीं तो साल भर में कमीशन के 10 हजार तो होते होंगे, इतने रुपयों को ठीकरे की तरह तुच्छ समझना क्या कोई सहज बात है? एक हम हैं कि कौड़ियों के पीछे ईमान बेचते फिरते हैं। जो सज्जन पुरुष हमसे एक पाई का रवादार न हो, सब प्रकार के कष्ट उठकर भी जिसकी नीयत डावांडोल न हो, उसके साथ ऐसा नीच और कुटिल बर्ताव करना पड़ता है। इसे अपने अभाग्य के सिवा और क्या समझें।

शाहबाज खां ने फरमाया – हां, इसमें तो कोई शक नहीं कि यह शख्स नेकी का फरिश्ता है।