बेलापुर गाँव में रहती थीं रामा दादी। वे बड़ी पैसे वाली थीं। पूरी सेठानी समझो! सेठ भूलाचंद को गुजरे सात-आठ साल होने को आए। संतान कोई थी नहीं। लिहाजा घर में कोई दूसरा नहीं था। खूब बड़ी सी आलीशान हवेली में अकेली रहती थीं दादा-दादी। अपार दौलत थी, फिर भी उनमें लालच बहुत था।
रामा दादी के पड़ोस में बिरजू रहता था। बड़ा ही चालाक और घाघ था वह। उसने सोचा, ‘किसी तरह रामा दादी को बुद्धू बनाया जाए।’
पर रामा दादी भी कोई सीधी-सादी नहीं थीं। बड़ी होशियार थीं। इसलिए उन्हें ठग पाना मुश्किल था।
उधर बिरजू पक्का घाघ था। वह सोचता रहा, सोचता रहा, सोचता रहा। आखिर एक तरकीब उसे सूझ ही गई।
अगले दिन बिरजू रामा दादी के पास गया। बोला, ”दादी…दादी, जरा चार गिलास, चार कटोरियाँ तो दो। मेहमान आए हैं। उनके जाते ही वापस कर दूँगा।”
रामा दादी को यह अच्छा तो नहीं लगा, पर मना करते भी नहीं बना। सोचा, ‘पड़ोसी है तो थोड़ी मदद तो करनी ही चाहिए।’ उन्होंने भुनभुनाते हुए बरतन दे दिए। कहा, ”बिरजू, भूलना नहीं। बरतन जल्दी वापस कर देना।”
उसी शाम को बिरजू बरतन वापस कर गया। पर उसने चार की बजाय, आठ गिलास, आठ कटोरियाँ वापस कीं। रामा दादी को बड़ी हैरानी हुई। बोलीं, ”बिरजू यह क्या!”
बिरजू बोला, ”दादी, आपके बरतनों ने बच्चे दिए हैं।”
रामा दादी खूब खुश हुईं। अब तो बिरजू जो-जो बरतन माँगता, रामा दादी बगैर कुछ सोचे दे देती थीं।
एक दिन बिरजू ने कहा, ”दादी-दादी, घर में बहुत सारे मेहमान आ गए हैं। बड़ी मुश्किल में हूँ।”
दादी बोली, ”चिंता न करो बिरजू, मेरे पास बहुत बरतन हैं।” और रामा दादी ने घर भर के सारे बरतन समेटकर दे दिए। साथ ही कुछ चाँदी के कटोरे, चाँदी की चम्मचें भी दे दीं। सोच रही थीं, ‘बरतन दूने होकर आ गए, तो कितना मजा आएगा।’
शाम होते ही दादी इंतजार करने लगीं कि बिरजू अभी बरतन लेकर आता ही होगा। पर रात हो गई, बिरजू आया ही नहीं। दादी को बड़ी चिंता हुई। अगले दिन सुबह-सुबह वे बिरजू के घर गईं। बोलीं, ”बिरजू, मेरे बरतन कहाँ हैं? तुमने अभी तक नहीं लौटाए।”
बिरजू ने रोनी सूरत बनाकर कहा, ”क्या बताऊँ दादी, आपके बरतन तो मर गए!”
”क्या कहा, कहीं बरतन मरते हैं?” दादी ने तमककर कहा।
”हाँ दादी, जो पैदा होता है, वह मरता भी है। गीता में यही लिखा है। इसीलिए तो जैसे आपके बरतन पहले पैदा हुए थे, अब मर भी गए।”
रामा दादी भला क्या कहतीं! वे समझ गईं कि बिरजू उन्हें ठग रहा है। पर वे गाँव वालों से कहतीं, तो उलटे उनका ही मजाक उड़ता। हारकर वे उलटे पैरों वापस आ गईं। उन्होंने कान पकड़े, ‘अब कभी लोभ-लालच में न पड़ँूगी!’
