Hindi Long Story: शीला देवी ने बहू के घूमने-फिरने पर कभी भी पाबंदी नहीं लगाई थी। जब जैसा प्रोग्राम बनता वे खुशी मन से बहू को इजाजत देती। सास का हिटलरीपन कैसा होता है ये नीता ने अब तक नहीं जाना।
बेटे के कमरे से एक तीखी आवाज आई, ‘तुम्हारा किसी काम में जी नहीं लगता। कमीज पर प्रेस नहीं,
पैंट का बटन हफ्ते भर से टूटा पड़ा है। रुमाल ढूंढ़ों तो मिलता नहीं, घर की हालत अस्त-व्यस्त है। आखिर तुम सारा दिन करती क्या हो? घर का काम करने में मन नहीं लगता तो दहेज में दो-चार नौकर ही लाई
होती।
शीला देवी बेटे की ऊंची आवाज से स्तंभित थी। ये राजीव को क्या हो गया है? तेज बोलने की तो उसकी आदत नहीं, आज किस बात पर वह बहू से नाराज है? गुस्स आया भी तो उसे धीमी आवाज में समझाया जा सकता था। शादी के मात्र सात महीने ही गुजरे हैं और बेटे-बहू में तनाव पैदा हो गया? आज वर्षों गुजर गए राजीव के पिता
ने कभी इतनी ऊंची आवाज नहीं निकाली थी। बेटा हुबहू अपने बाप पर गया है पर बहू के ऊपर झल्लाने का मतलब! कुछ दिन पहले राजीव के पिता ने भी बेटे को गरजते सुना था, उस दिन शीला देवी बाजार गई थी।
पति की बात सुनकर शीला देवी को विश्वास नहीं हुआ था। उल्टे उन्होंने पति से मजाक किया, ‘मैं तो कहती हूं आपको किसी तरह की गलतफहमी हुई है। हमारा बेटा इतना गुस्सैल हो ही नहीं सकता। क्या पता टीवी,
रेडियो तेज चल रहा हो या कहीं आपके कान तो नहीं बज रहे थे!
शीला देवी के पति मनोहर बाबू खिसियाये स्वर में कह उठे, ‘अच्छा, बेटे की शादी करते ही मैं बूढ़ा हो गया? मैंने स्पष्ट आवाज सुनी थी और तुम कहती हो कान बज रहे होंगे।
अरी भाग्यवान, मैं तो कहता हूं जाकर बहू से ही पूछ लो आखिर लाडले साहब किस बात पर खफा हो रहे थे।
शीला देवी ने इस बात को ज्यादा तूल नदिया। कोई ऐसी बात होती तो बहू अवश्य कहती। अब नाहक उन बातों को छेड़कर क्या फायदा जिससे मन को ठेस पहुंचे? किस पति-पत्नी में लड़ाई नहीं होती! ऐसी छोटी- मोटी झड़पें तो वैवाहिक जीवन का स्वाद बढ़ाने में अचार-चटनी का काम करती हैं। धड़धड़ाती हुई वह बेटे के कमरे में चली गई। बहू नीता पलंग पर बैठी सुबक रही थी। बेटा जूते का फीता बांध रहा था। वे बेटे के पास गई, सिर सहलाते हुए बड़े प्यार से पूछा क्या बात है, ‘बेटा! ऑफिस में किसी से झड़प तो नहीं हो गई जो तू यहां गुस्स
निकाल रहा है? बहू किस बात पर आखिर रो रही है? कौन सी ऐसी गलती हो गई है? उतनी देर में राजीव कमरे से बाहर निकलने के लिए दरवाजे तक पहुंच गया था, ‘मां,शादी आखिर किस लिए होती है? पत्नी पति
की देखभाल करे। रोजाना मेरे कितने काम करना भूल जाती है और मुझे ऑफिस जाने में लेट हो जाती है। कामधाम में अगर जी नहीं लगता तो इससे कहो जाकर अपने मायके बैठ जाए। मेरा काम शादी के पहले ठीक-ठाक नहीं चलता था जो अब किसी की खुशामद करनी पड़े।
‘अरे बेटा, नाश्ता तो करता जा। ऑफिस भूखे पेट जाएगा? ये बच्चों जैसी तुनकमिजाजी कहां से सीखी! अनाज की तौहीन ठीक नहीं बेटा।
राजीव तब तक बाहर निकल गया था। वे मुड़ी, बहू से पूछताछ की। नीता सुबकते हुए कह उठी, ‘मां जी, न जाने क्यों वे मुझसे उखड़े-उखड़े रहते हैं। उनका काम समय से ही करती हूं, फिर भी मीन-मेख निकालते रहते हैं। मुझे मैके भेज दें। जब कभी उन्हें मेरी कमी महसूस होगी, मुझे लिवा लाएंगे। पिछले एक महीने से मैं घुट रही हूं। किससे अपने मन की बात कहूं समझ नहीं पाती। जब अपना पति ही बेगाना हो जाए तो सारी दुनिया परायी लगती है।
कृपया आप मुझे यहां से जाने की इजाजत दे दें। मैके में भले आपके बेटे का संग-साथ न मिले, बाकी सारी खुशियां मुझे नसीब होंगी। मैं चाहती हूं एक स्वस्थ माहौल में स्वस्थ बच्चे को जन्म दूं। वहां किसी बात की तकलीफ नहीं होगी। इतना कहते-कहते बहू फिर रोने लगी।
शीला देवी का मन बुरी तरह आहत हो उठा। उन्होंने बहू को सांत्वना देते हुए कहा, ‘तुम चिता न करो। हो सकता है ऑफिस में कोई गंभीर समस्या हुई होगी, जिससे राजीव परेशान है। थोड़ा धैर्य और संयम रखो बहू।
सास की ममतामयी बात सुनकर नीता को अपार तसल्ली मिली। आंखों में पुन: आंसू झिलमिला उठे। शीला देवी ने स्नेह विगलित स्वर में बहू को अपने साथ आने के लिए कहा। दोनों किचन की तरफ बढ़ गईं। शाम को जब राजीव ऑफिस से घर आया, शीला देवी ने कुछ कहना चाहा पर चुप्पी साध गई। थका-हारा लौटा है तुरंत पूछताछ ठीक नहीं। चाय-नाश्ता कर जरा आराम कर ले फिर मन टटोल लूंगी। क्या पता ऑफिस
का झंझट खत्म होने से बेटे का मूड अपने आप ही ठीक हो जाए!
परन्तु उनका सोचना गलत निकला। राजीव किसी गहरे तनाव में घिरा है ये स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था। शीला देवी ने मनोहर बाबू की तरफ देखा। पति ने इशारे में चुप रहने को कहा। बहू के सामने वो किसी तरह
का कोई अनचाहा प्रश्न नहीं करना चाहते थे। बहू देखने-सुनने में सुन्दर, स्मार्ट, पढ़ी-लिखी, आधुनिक, अच्छे खानदान से ताल्लुक रखती है। छोटी-छोटी बातों पर उन्हें राजीव का नाराज होना कतई पसंद नहीं आ रहा था। बहू का दोष उन्हें नहीं दिखाई दे रहा था। वे बारबार राजीव को ही कसूरवार ठहरा रहे थे।
रात खाने के टेबल पर माहौल को हल्का-फुल्का बनाने के लिए मनोहर बाबू ने कुछ चुटकुले सुनाए। पुरानी बातों का पिटार खुला। हंसी-मजाक भी हुआ। पर बेटा-बहू जबरदस्ती मुस्कुरा रहे हैं, छिपा न था। हफ्ता दस दिन निकल गया। राजीव भले मां-बाप का लिहाज कर शांत हो गया था पर उसके चेहरे से बाल सुलभ हंसी छिन गई थी। यंत्रवत कार्य करता। पहले खाने की टेबल पर जहां-तहां की बातें सुनाता था। अब
चेहरे पर मुर्दनी छाई मिलती।
शीला देवी समझ गई, दाल में कुछ काला है वरना जो बेटा, बहू के साथ इतना घूमता-फिरता, चहकता रहता था अब इतनी मायूसी कैसी! जबकि उसे अच्छी तरह पता है बहू गर्भवती है। प्रथम बार मां-बाप बनने का
चाव किस दंपती को नहीं होता। ऐसे वक्त तो इच्छा होती है बस हाथों में हाथ डाले भविष्य का ताना-बाना बुना जाए। आने वाले मेहमान के बारे में बातें करते रहें। बच्चों के नाम सुझाए जाएं।
इन सब मधुर कल्पनाओं से परे राजीव किस चिन्ता-फिक्र में डूबा बैठा है, मन ही मन शीला देवी कांप उठी। जिस बात को उन्होंने अब तक हल्के मन से सोचा था अब उसी बात की गंभीरता समझते हुए, तह में
जाने के लिए छटपटा उठी। आज रात खुल कर पूछना ही होगा। बहू को राजीव ने भी देखा-सुना था। बेहद पसंद आई थी नीता। दान-दहेज की मांग न होने के बावजूद भी काफी सामान मिला था। तीज-त्यौहार में
फल-मिठाइयों का टोकरा पहुंच जाता। शीला देवी तो समधी साहब के सामने हाथ जोड़ लेती, ‘हम सिर्फ चार प्राणी घर में हैं, इतनी चीजें कैसे खा पाएंगे, बरबाद होंगे। परंतु वे हंसते हुए जवाब देते, ‘आप को जितना खाना है रखिए बाकि मुहल्ले में बंटव दीजिए। ईश्वर ने जब मुझे इतना दिया है फिर बेटी-दामाद को देने में भला क्यों कंजूसी करूं। पास-पड़ोस वाले आशीर्वाद ही तो देंगे बच्चों को।
शीला देवी उनकी बातों के आगे निरूत्तर रह जातीं। सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी राजीव के दिल में कौन-सी फांस चुभी है जिसका निराकरण संभव नहीं! शीला देवी उचित मौके की तलाश में थी जब स्थिरता के साथ बेटे से बात कर सके। मौका जल्द ही मिल गया।
शाम में मिसेज सन्याल की बहू लीला आई। वो नीता को अपने साथ ले जान चाहती थी। मुहल्ले की लड़कियों ने पिक्चर देखने का प्रोग्राम बनाया था।
शीला देवी ने बहू के घूमने-फिरने पर कभी भी पाबंदी नहीं लगाई थी। जब जैसा प्रोग्राम बनता वे खुशी मन से बहू को इजाजत देती। सास का हिटलरीपन कैसा होता है ये नीता ने अब तक नहीं जाना था। वो तो सबसे
कहती-फिरती मां और सास में भी कोई फर्क होता है क्या! मेरे लिए तो मैका और ससुराल एक बराबर है
दूसरे दिन दोपहर के भोजन के उपरांत नीता अपनी सहेलियों के साथ पिक्चर देखने चली गई। अब शीला देवी उन्मुक्त थी। बेटे को अपने कमरे में बुलाया। मनोहर बाबू वहीं बिस्तर पर लेटे हुए थे। राजीव तनाव से भरा था। मां के पूछते ही वह फट पड़ा। संचि आक्रोश लावा की तरह बह निकला, ‘आप को क्या मालूम मैं किस उधेड़बुन में पड़ा हूं। आपकी बहू को सफेद दाग- ल्यूकोडर्मा क बीमारी है। ये दाग उसके पैरों पर है जिसे वो अपने मोटे-मोटे पाजेब के नीचे छिपा कर रखती है। मैंने उसे कितनी बार मना किया ये रूनझुन की आवाज हर वक्त अच्छी नहीं लगती। इसे बीच-बीच में खोल दिया करो या फिर बिन घुंघरुओं वाली हल्की-सी पाजेब
लो पर वो मेरी बात अनसुनी कर देती थी। मैं सोचता नीता मेरी इस छोटी-सी बात को क्यों नहीं मान लेती। ये क्या पता हल्की पाजेब उसके पास न हो। मैंने नई खरीद लेने की सलाह दी पर उसने जवाब दिया 2-4 जोड़ी
पाजेब नई रखी है कभी पहन लेगी। यही कह-कह कर वो मुझे टरकाती रही। करीब पन्द्रह दिन पहले अचानक मेरे दिल में ख्याल आया जब नीता सो जायेगी तब उसके पाजेब खोलकर छिपा दूंगा। दूसरे दिन खुद-ब-खुद नया पाजेब डाल लेगी। आहिस्ता-आहिस्ता मैंने दोनों पाजेब खोल डाले।
ये क्या…? मेरे मुंह से चीख निकल गई। दोनों पैरों में सफेद दाग! बस मम्मी, उसी दिन से मेरा दिल फट गया। अब और नहीं सहा जाता। किस कदर उसके घरवालों ने हमें धोखा दिया। आज हम उनकी बेटी को उनके
घर पटक आए तो कैसा लगे! बेटी के इसी ऐब को छिपाने के लिए उन्होंने मना करने के बावजूद ढेरों दहेज दिए। तीज-त्यौहारों पर टोकरे भिजवाते रहे। ये तो एक तरह की चापलूसी ही थी।

मैं क्या इतना गया-गुजरा था कि एक अच्छी, स्वस्थ लड़की मुझे न मिलती। फिर बीमारी भी ऐसी कि मरते दम तक न छूटे। समय के अंतराल में यही दाग धीरे-धीरे पूरे शरीर को अपने चपेट में ले लेगा। भला आप लोग ही बताइये ऐसी लड़की के साथ मेरे दिन कैसे कटेंगे? अफसोस तो इस बात का है कि दाग पर मेरी नजर बहुत पहले क्यों न पड़ी। ये बच्चे वाली नौबत मैं आने ही नहीं देता। उसके पहले तलाक ले लेता। अब क्या
गारंटी है कि आने वाले बच्चे में इस रोग के कीटाणु न पनपे? इस दोहरी बीमारी को मैं कैसे सहन कर सकता हूं। मेरी तो आप दोनों से बस यही गुजारिश है कि नीता का एबार्शन करा दीजिए। इधर मैं तलाक के पेपर्स तैयार करवा लेता हूं। बेटे की बात सुनकर शीला देवी पर मानो गाज गिर पड़ी। नियति ने इकलौते बेटे के
भविष्य के साथ ऐसा खिलवाड़ किया? कुछ कहने के लिए उनकी जुबान उगलती उससे पहले मनोहर बाबू की तिलमिलाती आवाज हवा में तैरती हुई उनके कानों तक पहुंची, ‘राजीव तुमसे मुझे ऐसी उम्मीद कतई
न थी। अब तक दी गई सारी शिक्षा-दीक्षा तुमने खाक में मिला दी। इतने दिनों का स्नेह-बंधन झटके में तोड़
डाला। सफेद दाग कोई छूत की बीमारी तो है नहीं कि तुम्हें-हमें लग जाएगी। ऐसे दानवी विचार तुम्हारे मन में आए कैसे? अगर ये बीमारी तुम्हें, हमें या शीला को हो जाए तो क्या हमें एक-दूसरे का त्याग करना होगा?
एक से एक खतरनाक बीमारी लेकर बच्चे पैदा होते हैं तो क्या मां-बाप उसका गला घोंट देते हैं या सड़क पर भीख मांगने के लिए छोड़ देते हैं?
मनोहर बाबू लगातार अपनी रौ में कहते जा रहे थे, ‘बेटे, क्या अपनी बुआ को भूल गए? हम चार भाइयों के बीच बड़े नाजों से पली, घर भर की दुलारी लीलावती को भी यही बीमारी थी। शादी के वक्त इस बात को छिपाया गया था। सफेदी पैरों से ही आरम्भ हुई थी। शादी के वक्त मोजे पहना कर उसकी विदाई की गई थी।जाड़े का
मौसम था सो निब गया। फिर भी बारह महीने तो ठंड नहीं पड़ती। भाग्य भरोसे लीलावती दीदी को हमने मंझधार में छोड़ दिया। इस ऐब को छिपाने के लिये उस जमाने में भी पिता जी ने
हजारों रुपये खर्च किए थे। ससुराल का घर भर दिया था। आज से पचास-साठ साल पहले की ये घटना है। जमाना तरह-तरह के अंधविश्वासों और रूढ़िवादियों में फंसा था।
मनोहर बाबू थोड़ी देर के लिए रुके और फिर कहना शुरू किया, ‘धड़कते दिल से चार दिन बाद मैं कलेवा की भरपूर सामग्री लिए दीदी के ससुराल पहुंचा था। रास्ते भर बेचैनी लगी रही। न जाने कितनी लानत- मलानत मुझे भी देखने-सुनने को मिले।
रोती दीदी को मैं कैसे संभाल पाऊंगा। सच कहूं तो मेरा कलेवा लेकर जाने की जरा भी इच्छा नहीं थी। पर अन्य तीन भाइयों ने बहाने बनाकर कन्नी काट ली। जरूरी रस्म थी किसी न किसी को तो जाना ही था। अंत में मुझे ही मजबूरी में तैयार होना पड़ा। नाना प्रकार की चिन्ता-फिक्र में डूबा मैं, दीदी के ससुराल की ड्योढ़ी तक जा पहुंचा।
आशंकित नजरों से चारों तरफ देखता हुआ मैं आगे बढ़ा, तब तक ‘बहू का भाई कलेवा लेकर आया है की शोर होने लगी।
दीदी सामने के कमरे से निकली और मुझे अपनी बाहों में भर लिया। उत्फुल्ल दीदी का चेहरा खिले गुलाब की मानिन्द चमक रह था। कहीं कोई दु:ख की क्षीण रेखा तक परिलक्षित नहीं हो रही थी। मेरी छाती जुड़ा गई। दिल पर मानो बोझ लेकर घर से जो चला था, वो क्षण भर में हल्का हो गया था। एक रात वहां रहकर मैं दूसरे दिन दीदी को लेकर वापस आ गया। ससुराल में मेरी बड़ी खातिरदारी हुई थी। घर लौटा तो सभी दीदी को घेर कर बैठ गए।
ससुराल वालों की तारीफ करते हुए वे जीजा जी पर आकर रुक गई, हमारी उत्सुकता भी तो वहीं थी। हठात दीदी सुबकते हुए कह उठी, ‘आपके दामाद तो साक्षात देवता हैं। मैंने जब दो दिनों तक लगातार मोजे न उतारे तो उन्हें शक हुआ।
बड़ी जिद करने पर जब मैंने घबराते हुए मोजा उतारा तो मुस्कुरा कर कह उठे, ‘बस इतनी-सी बात के लिए तुम दो दिन मोजा पहने रही। यही बीमारी अगर शादी के बाद हुई होती तो क्या मैं तुम्हारा परित्याग कर
देता? मेरी मानसिकता इतनी ओछी नहीं, शादी के पवित्र बंधन में बंधकर हम जीवनभर के लिए एक हो चुके हैं। अग्नि के समक्ष हमने सुख-दुख में साथ निभाने की कसमें खाई है। तुम मेरी अर्द्धांगिनी हो- यही
सत्य है, बाकी सब मिथ्या। सदा खुश रहो और हां इतना याद रखना इस बीमारी को लेकर कभी अपने मन में हीन भावना न पैदा करना, वरना तुमसे ज्यादा मुझे तकलीफ पहुंचेगी।
लीलावती दीदी की बात सुन कर हम सब रो पड़े थे। ‘राजीव तुम्हें तो याद है बुआ देखने में इतनी सुंदर भी नहीं थी लेकिन फूफा जी साक्षात कामदेव जैसे लगते थे। इतने सुदर्शन आदमी के साथ तो कोई अप्सरा ही ब्याही जाती तो जंचता। दीदी बड़ी किस्मतवाली थी। जब तक जिंदा रहीं, पति का स्नेह और प्यार पाती रहीं। त्याग का इतना बड़ा उदाहरण तुम्हारे समक्ष है। कैसे भूल बैठे! बहू के साथ इतने दिनों तक हंसते-बोलते रहे। अब एक बीमारी के लिए उसका परित्याग कर दोगे? उस बीते युग में इस बीमारी का इलाज नहीं था पर अब ऐसी बात नहीं, जमाना बदल गया है। ढेरों आधुनिक दवाइयां निकल चुकी हैं! अंत में बेटा एक निवेदन करता हूं, आज रात बहू से माफी जरूर मांग लेना।
मनोहर बाबू कमरे से निकल गए। मां-बेटे की आंखें मिलीं। शीला देवी मन ही मन पश्चाताप कर रही थीं। पति को मन ही मन लाख बार शुक्रिया अदा की। पहली बार वे दादी बनने जा रही हैं, कैसे भूल गई? राजीव का हाथ सहलाते हुए कह उठी, ‘हमारी परवरिश में कहां खोट रह गई थी
बेटे!
प्रत्युतर में राजीव का रूंधा स्वर सुनाई दिया, ‘पहले मैं पिता जी से क्षमा मागूंगा फिर नीता से।
बेटे की बात सुनकर शीला देवी पर मानो गाज गिर पड़ी। नियति ने इकलौते बेटे के भविष्य के
साथ ऐसा खिलवाड़ किया? उनकी आंखें बेबसी से डबडबा उठी। निर्णय-अनिर्णय का जाल उनको अपनी गिरफ्त में ले चुका था। बहू के प्रति भावनाएं क्रूर हो चली।
