आपकी हर मंशा पूरी होगी बशर्ते कि पहले आप सुलझी हुई मति से चुनाव कर पाएं कि आपको क्या चाहिए। फिर उसे पाने के लिए दृढ़ संकल्प चाहिए। यदि मैं आप लोगों से पूछूं तो बहुतेरे लोग सकारात्मक ढंग से नहीं बता पाएंगे कि उन्हें क्या चाहिए, हालांकि यह जरूर बता सकते हैं कि क्या नहीं चाहिए।
‘मैं हार का मुंह न देखूं’, ‘व्यापार में नुकसान न हो’, ‘मेरे हाथ से अधिकार न चला जाए’, ‘किसी भी सूरत में फलां चीज को न गवां बैठूं’- इस तरह की नकारात्मक सोच ही दिमाग में आती है।
आप जिस चीज की कामना करते हैं, मन की कल्पना में उसे रूपायित कर लें। तभी वह वास्तविक रूप में साकार होगी।
यदि आप रहने के लिए सुंदर-सा घर बनाना चाहते हैं तो पहले मन में उस मकान की रूप-कल्पना करते हैं, फिर कागज पर उसका नक्शा बनाते हैं, उसमें संशोधन करते हैं और उसके बाद ही तो असल में मकान का निर्माण करते हैं।
नींव रखने के स्तर पर ही चंचल मन से संदेह करने लग जाएं- क्या यह मुझसे संभव है?- तो आपका घर कल्पना में भी नहीं बन पाएगा। कई बार लोग भगवान से प्रार्थना करते हैं- ‘हे प्रभो, मेरी फलां कामना पूरी हो जाए।’ आपने देखा होगा उनमें से कई लोगों का मनोरथ पूर्ण भी हो जाता है, उन्हें वांछित फल मिल जाता है। क्या स्वयं परमेश्वर ने आकर उस कार्य को संपन्न किया?
कोई सेनानायक अपनी सेना को लेकर रणक्षेत्र की ओर कूच कर रहा था। फौज ने आधा रास्ता तय किया होगा, तभी एक गुप्तचर सामने से आया। उसने कहा: ‘सेनापति! अपनी फौज में केवल एक हजार सिपाही हैं। दुश्मन की सेना में दस हजार जवान हैं। इसलिए यही बेहतर होगा कि हम आत्म-समर्पण कर दें।’
यह सूचना पाते ही पूरी सेना का हौसला पस्त हो गया। सेनापति ने अपने सारे जवानों को पास के मंदिर में पहुंचने का हुक्म दिया। उन्हें संबोधित करते हुए कहा: ‘मेरे प्यारे साथियों! हमारे सामने एक जबर्दस्त सवाल है- ‘क्या हम शक्तिशाली शत्रु का सामना कर सकते हैं?’ मेरा सुझाव है कि हम इस प्रश्न का उत्तर इस मंदिर की देवी मां से ही मांग लें। देखिए, मैं देवी मां की सन्निधि में अपने हाथ के सिक्के को उछालता हूं। यदि सिक्का ‘पट’ में गिरे तो समझिए लड़ाई पर जाने के लिए देवी मां की अनुमति है। यदि सिक्का ‘चित’ में गिरे तो यही से वापस चले जाएं।’ सेनापति ने सिक्के को ऊपर उछाल दिया।
पट में गिरा। सारे सिपाहियों में उत्साह की लहर छा गई। पूरे जोश के साथ नारे लगाते हुए लड़ाई के मैदान में पहुंचे। अपने से दस गुना ताकतवर सेना से टक्कर लिया। जान की बाजी लगाकर लड़े। दुश्मन को हराकर विजय-पताका फहराते हुए लौटते समय देवी मां को धन्यवाद देने के लिए सेना उसी मंदिर में इक्कठी हुई।
सेनापति ने तब अपनी जेब से वही सिक्का निकालकर दिखाया। उसके दोनों तरफ ‘पट’ ही छपा था।
‘पट’ आने पर जवानों ने उसे देवी मां की आज्ञा मान लिया और पूर्ण रूप से विश्वास किया कि हर हालत में हमारी ही जीत होगी। उनके अंदर नकरात्मक विचार उठे ही नहीं। इसलिए सफलता प्राप्त कर ली। इस दृष्टि’ से देखा जाए तो भगवान विचारों को केंद्रित करने का एक उपादान मात्र है।
वैसे, छोटा-बड़ा कोई भी काम शुरू करने से पहले मंदिर में जाकर मिन्नत मांगते रहें तो क्या सारे काम सफल हो जाएंगे?
क्या आपके मन में भगवान पर अडिग विश्वास है? छल-कपट से रहित उसी मनोभाव की उपस्थिति में नकारात्मक विचार सिर नहीं उठाएंगे। वांछित मनोरथ पूर्ण भी होगी! लेकिन यदि आप सोचते हैं कि अपनी एक आंख मंदिर के अंदर देवमूर्ति पर और दूसरी आंख बाहर छोड़ी गई चप्पलों पर टिकाते हुए इष्टदेव के साथ नाता जोड़ना संभव है, तो आप आस्था के नाम पर स्वयं को ठग रहे हैं, बस! यह झूठी आस्था कार्यों की सिद्धी में सहायक नहीं होगी।
ईश्वर से प्रार्थना करने के बाद भी कार्य की सफलता के बारे में भयमिश्रित आशंका बनी रहे, मन में अंतर्द्वंद्व चलता रहे तो नकारात्मक विचार कैसे हटेंगे? वांछित वस्तु कैसे मिलेगी?
