फसल कटने के बाद धरती से उठती सौंधी सुगन्ध, सरसों की झूमती फसल का पीलापन रंग आम्र मंजरी से आती मादकता की बयार इन सबको अपने आंचल में बांधे फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला पर्व होली कब प्रारंभ हुआ, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन अगर पौराणिक संदर्भों की बात करें तो दैत्यों के आदि पुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्रों हिरण्यकश्यप एवं हिरण्याक्ष में से अधिक शक्तिशाली एवं ब्रह्मïाजी से तप द्वारा अमर होने का वर (कि वह न मानव, न पशु, न दिन, न रात, न घर, न बाहर, न अस्त्र, न शस्त्र किसी से भी मारा न जा सके) प्राप्त हिरण्यकश्यप और उसके विष्णु पूजक पुत्र प्रह्लाद की द्वंद कथा का रोचक मोड़ है यह उत्सव।

होली की पौराणिक कथा

कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद को विष्णु उपासना से विरत करने हेतु बेहद यातनाएं एवं प्रताड़ना दी और अंत में अपनी बहन होलिका को, जिसे अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था, आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती हुई अग्नि में बैठ जाए। होलिका ने भाई की आज्ञा मानकर ऐसा ही किया किंतु आश्चर्य, परिणाम विपरीत निकला अर्थात् होलिका तो जल गई किंतु प्रह्लाद का बाल भी बांका न हुआ।

विध्वंस पर सृजन की विजय हुई, तभी से होलिकोत्सव मनाना प्रारम्भ हुआ। हिरण्यकश्यप हिरण्यकरण वन नामक स्थान का राजा था। यह वर्तमान समय में राजस्थान के हिण्डौन नामक नगर में स्थित है। हिण्डौन आज भी एक पौराणिक एवं ऐतिहासिक नगर के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसे लाल पत्थरों की नगरी भी कहा जाता है। अरावली पर्वत के निकट बसा यह नगर प्राचीन काल में मत्स्य राज्य के अधीन था किंतु हिरण्यकश्यप की राजधानी होने के कारण इसे हिराणकस की खेर भी कहा जाता है। यहां हिराणकस (हिरण्यकश्यप) का मंदिर प्रह्लाद कुंड नरसिंह मंदिर, हिरनाकस का कुआं और धोबी पाखड़ जैसे स्मारक इस पौराणिक तथ्य का प्रमाण माने जा सकते हैं। मान्यता है कि धोबी पाखड़ के निकट ही वह स्थान है जहां होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठी थी और स्वयं जल गई। इस स्थान को होलिका दाह कहा जाता है। होली पर यहां विशाल उत्सव होता है।

ऐसा ही विशाल होली उत्सव बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड में मनाया जाता है। मान्यता है कि इसी स्थल पर नृसिंह रूप में श्री विष्णु ने हिण्याकश्यप का वध किया था। भारत एवं नेपाल सहित जहां-जहां भी विदेश में हिन्दू हैं वहां होली उत्सव दो दिनों तक मनाने की परम्परा है। पहले दिन होलिका दहन और दूसरे दिन धुलंडी अर्थात रंग- अबीर-गुलाल उत्सव।

होली वास्तव में बसंत उत्सव शृंखला की पूर्णता का प्रतीक उत्सव है। होली का एक ही अर्थ है राग और रंग अर्थात् संगीत के उन सातों स्वरों का सान्निध्य जिनके बिना प्रकृति भी नहीं रह सकती और रंग अर्थात प्रकृति का सर्वाधिक मोहक स्वरूप।

इस फाल्गुनी उत्सव का प्रारंभ तो वसंत पंचमी से ही हो जाता है जब पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है, फाग और धमार का गायन प्रारम्भ होता है और खेतों में खिली सरसों का पीला रंग मनुष्य क्या पशु-पक्षियों तक में उमंग भर देता है। खेतों में गेहूं की बालियां इठलाने लगती हैं। ढोलक, झांझ, मंजीरों पर जब मस्ती भरी धुनें उमड़ती हैं तो नृत्य के लिए अपने आप पांव मचलने लगते हैं होंठ अपने आप गुनगुनाने लगते हैं।

इतिहास में भी होली के रंग

इतिहासकार मानते हैं कि आर्यों में भी इस पर्व को मनाने की परंपरा थी। नारद पुराण, भविष्य पुराण में तो इस पर्व का वर्णन मिलता ही है, विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थित ईसा से 300 वर्ष पूर्व के प्राप्त अभिलेखों में भी इसका उल्लेख है। 

भारत के इस अद्भुत पर्व को मुगलों ने भी अपनाया। अकबर का जोधाबाई के साथ एवं नूरजहां का जहांगीर के साथ होली खेलने की मिनिएचर पेंटिंग्स अलवर संग्रहालय में उपलब्ध हैं। विश्वदाय घोषित दक्षिण भारत के हम्पी (विजयनगर की राजधानी) के 16वीं शताब्दी निर्मित चित्रफलक पर होली के चित्र, भारतीय मंदिरों की दीवारों पर उकेरे चित्र होली की जनप्रियता के साक्षात् प्रमाण हैं।

भाषा विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो होलिका का अर्थ है जलाने की लकड़ी और प्रह्लाद का अर्थ है आनंद। इसे अगर अर्थ विस्तार दिया जाए तो कह सकते हैं कि इस पर्व पर बैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका नष्ट हो जाती है और भक्ति एवं आनंद का प्रतीक प्रह्लाद सदैव अक्षुण्य रहता है।

वैदिक काल में नवात्रैष्टि पक्ष कहे जाने वाले इस पर्व के बाद ही चैत्र का आगमन होता है। भारतीय नव वर्ष का चैत्र सुदी प्रतिपदा से ही प्रारंभ होता है। इसी दिवस पर प्रथम पुरुष मनु का भी जन्म हुआ था। इस कारण इसे मन्वादितिथि भी कहा जाता है।

देशभर में मचती है होली की धूम

भारत के अन्य स्थानों पर होली चाहे कितनी भी उत्साह उमंग एवं विविधताओं के साथ मनाई जाए किंतु ब्रज प्रदेश में होली महापर्व के रूप में आयोजित होती है। जब ब्रज के केंद्र मथुरा-वृंदावन में पूरे दो सप्ताह मानो हर स्थान होलीमय ही हो जाता है। बरसाने की लठमार होली जिसमें नंदग्राम के हुरियारे बरसाने जा कर महिलाओं पर रंग गुलाल की बारिश करते हैं और महिलाएं लाठियां बरसाती हैं, पूरे विश्व में प्रसिद्ध है।

अन्य प्रदेशों की बात करें तो कुमांऊ की गीत- बैठकी में होली के दो सप्ताह पूर्व से ही शास्त्रीय संगीत की महफिलों का सजना, हरियाणा में धुलंडी में भाभियों द्वारा देवरों को सताए जाने की परम्परा, महाराष्ट्र  रंग पंचमी में मात्र सूखा गुलाल उड़ाना, पंजाब में होला मोहल्ला में शस्त्र- प्रदर्शन, बंगाल में चैतन्य महाप्रभु के जन्मोत्सव के रूप में ढोल यात्रा, तमिलनाडु में कमन पोडिगई (कामदेव पर केंद्रित), मणिपुर में याओसांग (नदी तट पर झोपड़ी का निर्माण), मध्य प्रदेश में भगोरिया और छत्तीसगढ़ में होरी लोक गीत गायन होली के पर्व की वे विशिष्ट परम्पराएं हैं जो वर्ष भर होली की याद दिलाती रहती हैं।

साहित्य में होली

साहित्यकारों और कवियों ने भी होली की मस्ती को अपनी कलम से कागज पर उतारने में कंजूसी नहीं की है। संस्कृत साहित्य की अगर बात करें तो हर्ष की रत्नावली और प्रियदर्शिका, कालिदास की कुमारसंभव एवं मालविकाग्निमित्रम और ऋतुसंहार में भारवि एवं माघ के ग्रंथों में वसंत छाया हुआ है तो हिन्दी के प्रथम कवि चंद्रबरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’ में होली का मनमोहक वर्णन है। विद्यापति, सूरदास, रहीम, रसखान पद्माकर, जायसी, मीरा, कबीर, बिहारी, केशव, घनानंद को छोड़िए निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुरशाह जफर तक ने होली पर खूब लिखा है और जनकवि का खिताब पाए नजीर अकबराबादी की होली तो जैसे ब्रज प्रदेश के लोक संगीत का अनिवार्य अंग बन चुकी है-

जब फागुन रंग झमकते हैं तब देख बहारें होली की। 

जब डफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की। 

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।

सूफी संत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, बहादुर शाह जफर, रसखान सभी ने अपने अपने अंदाज में होली का वर्णन किया है। अमीर खुसरो की ‘आज रंग है, रंग है रंग है री, अपने महबूब की आज रंग है री’ कव्वालियों की महफिल की शान है। कवियों की लेखनी से निकले होली के रंग ऐसे हैं जो कल भी चटख थे आज भी चटख है और समय के साथ और भी चटख होते जा रहे हैं।

होली आनंद का ऐसा पारंपरिक उत्सव है जो मन की सारी कुंठाओं से मुक्ति दिलाता है, मन को उत्साह और उमंग से भर देता है, जीवन के रंगों को और भी गहरा कर देता है और समरसता की धारा को प्रवाहित करने में भी सहायक है। शर्त एक ही है कि इसे मुक्त भाव से ग्रहण किया जाए।

जीवन का आधार और सार अगर प्रेम है तो प्रेम की निश्छल अभिव्यक्ति का मूर्तिमान उत्सव है होली।