इस अक्षय नवमी को सौभाग्यवती महिलाएं अखण्ड सौभाग्य तथा तेजोमयी संतान के लिए व्रत रखती हैं। इसे अमला नवमी तथा कुष्मांडा नवमी भी कहते हैं। मध्य भारत तथा दक्षिण में नवमी के दिन जगत माता पार्वती की भी पूजा होती है। वृन्दावन में जुगल जोड़ी राधाकृष्ण की परिक्रमा का भी विधान है। समस्त भारत में अक्षय नवमी किसी न किसी रुप में मनाई जाती है। ज्यादातर स्थानों पर आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है या फिर मृत्तिका के विष्णु भगवान बनाकर आंवले के लेप के पश्चात् धूप, दीप, दूब आदि से उपासना की जाती है, साथ ही अक्षय सौभाग्य के लिए वरदान मांगा जाता है।
ब्रह्मपुराण के अनुसार द्वापर युग में सती ने अखंड सौभाग्य तथा यशस्वी संतान के लिए भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए आंवले के पेड़ के नीचे तप किया था, तब भगवान विष्णु सती के तप से प्रसन्न होकर वहां पर प्रकट हुए थे। सती के चहुं ओर आंवले के ढेर लगे हुए थे। उन सारे आंवलों को तपबल से लुगदी बनाकर सती ने भगवान विष्णु का लेप कर दिया। आंवले के प्रभाव को देखकर भगवान ने तब सती को अखंड सौभाग्य तथा उनकी कोख से राजा हरिश्चन्द्र जैसे महादानी पुत्र का भी वरदान दिया। साथ ही आंवले के फल को औषधीय गुणों का वरदान मिला।
बृहदधर्म पुराण में लिखा है कि आंवला के वृक्ष में आमलकी देवी का पूजन करना चाहिए। इससे भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं।
आंवले के गुणों तथा महत्ता को बनाए रखने के लिए हमारे धार्मिक शास्त्रों में अत्यधिक पूज्यभाव प्रदर्शित किए गए हैं। उसकी महत्ता के बारे में पुराणों के अंदर बड़ी रोचक चर्चा है जो निम्नवत् है-
पुरातन काल में एक पुल्कस था। वह दिन-रात पाप ही कमाया करता था। एक दिन आखेट करते-करते उसे जोरों से क्षुधा एवं प्यास लगी। इधर-उधर देखने पर उसे एक पेड़ दिखाई पड़ा जो पके आंवलों से लदा हुआ था। उस मोटे, पके तथा रसीले आंवलों को खाने से उसकी क्षुधा एवं प्यास दोनों खत्म हो गई। वह उस पर बहुत ऊपर बढ़ता चला गया था। अकस्मात् फलों से लदी डाल टूट गई और फलों के साथ ही वह जमीन पर गिरा। गिरते ही उसके प्राण-पखेरु उड़ गए।
उस वन में कुछ प्रेत रहते थे। वे पुल्कस के पाप कर्मों से भलीभांति परिचित थे। उन्होंने मौत के बाद उस पर अपना अधिकार जमाना चाहा, क्योंकि पापी व्यक्ति मौत के बाद प्रेत के वश में हो जाते हैं। उधर यमदूत अपना अधिकार जमाने आए, लेकिन उनमें से एक भी पुल्कस का स्पर्श नहीं कर पाता था। स्पर्श करना तो दूर रहा, उसकी ओर कोई ताक भी नहीं पाता था क्योंकि उसके तेज से सभी के नेत्र चौंधिया जाते थे।
प्रेत और यमदूत असमंजस में पड़ गए। उन्होंने मुनियों से पूछा ‘महानुभावों! यह पुल्कस तो पापियों का सरदार था, फिर इसमें इतना पुण्य कहां से आ गया कि हम लोग उसे देख भी नहीं सकते?’
दयालु मुनियों ने कहा, ‘गंगा और तुलसी की भांति आंवले में पवित्रता तथा शुद्धता पाई जाती है। इन्ही आंवलों के सेवन से तथा इनके छूने से पुल्कस के समस्त पाप खत्म हो गए एवं उनमें पुण्य भर गए हैं। यह अब तुम लोगों के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो गया है। भूलकर भी उसके नजदीक कदापि न जाना, नहीं तो विष्णु दूतों की मार पड़ेगी। वे इसे विमान पर बैठाकर बैकुण्ठ ले जाएंगे।’
प्रेतों ने कहा-‘इतना बड़ा पापी भी जब मुक्त हो सकता है, तब हमारी भी मुक्ति संभव है। दया कर आप हमारी मुक्ति का साधन बतलाएं।’

मुनियों ने उन्हें आंवला खाने को कहा, लेकिन प्रेतों को आंवला जैसी पवित्र चीज तो दिखती ही नहीं, फिर वे खाएं कैसे? यह समस्या खड़ी हुई। तब दयालु मुनियों ने अपनी ताकत से उन्हें आंवले दिखाए एवं खिलाए। इसी बीच चमकता हुआ एक विमान उतरा। उस पर बैठकर वह पुल्कस और प्रेतों का समुदाय बैकुण्ठ पहुंच गए।
आंवला इतना पवित्र तो है, लेकिन उसके प्रयोग में कुछ निषिद्ध दिन और तिथियां भी हैं। निषिद्ध समय पर आंवले का सेवन करना त्याज्य है। रविवार और शुक्रवार को और प्रतिपदा, षष्ठी, नवमी, अमावस्या और संक्रांति को आंवला नहीं खाना चाहिए।
तीर्थों की यात्रा एवं विविध व्रतों के अनुष्ठान में जो फल मिलता है, वह आंवले के प्रयोग से प्राप्त हो जाता है। इसके प्रयोग से देवता खुश रहते हैं तथा असुर और राक्षस अपनी दुष्टता छोड़ देते हैं। अरिष्ट एवं ग्रहों की यातना नहीं होती।
पुरातन भारतीय ज्योतिष शास्त्रों में जिन 12 राशियों को लिया गया है, वहीं उन्हें 27 नक्षत्रों के अंतर्गत निश्चित किया गया है। इन नक्षत्रों में एक नक्षत्र भरणी है। इस नक्षत्र का पेड़ आंवला है। इस नक्षत्र का जातक यदि रोजाना आंवले के पेड़ के नीचे कुमकुम आदि से पूजा-अर्चना करे तथा भरणी नक्षत्र के दिन इसकी छाया के नीचे अर्चना करे तथा अपने प्रिय देवता का विचार करे, तो अनिवार्य रुप से उसकी धन की मनोकामना पूर्ण होती है।
आंवला पूजन के साथ ही अक्षय नवमी नई वस्तुओं एवं सोने-चांदी के आभूषणों की खरीदारी के लिए भी बहुत शुभ दिन माना जाता है। इससे सुख-समृद्घि में वृद्घि होती है।
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