जल्दी से बालकनी का कांच बंद कर दिया। सुधाजी ने उस पौधे को संभाल कर किनारे रख दिया। बालकनी से तुलसी के पौधे को अंदर लाते समय बाहर की मिट्टी उनके पैरों में लग गई थी और फर्श पर उनके पैरों के निशान बन गए थे। सुधा जी ने उन पैरो के निशान को देखा तो तुरंत कपड़ा लेने जाने लगी कि तभी अतीत के कुछ दृश्य उन्हें याद आने लगे।

आज से करीब 40 साल पहले जब उनके पिताजी की अनायास मृत्यु हो गई थी। तब सुधाजी की उम्र 25 वर्ष की थी। शादी की बात भी चल रही थी। छोटे भाई बहन की पढ़ाई चल रही थी। पिताजी के देहांत के बाद घर की पूरी जिम्मेदारी सुधाजी ने ले ली। मां और रिश्तेदारों के कहने पर भी सुधाजी ने शादी को कुछ सालो तक ना करने का फैसला लिया था।

अथक प्रयास के साथ सुधाजी को विद्यालय में अध्यापिका से कॉर्डिनेटर बना दिया गया। सुधाजी का वेतन भी बढ़ गया था। सुधाजी की छोटी बहन की पढ़ाई पूरी होने को थी। भाई अभी थोड़ा छोटा ही था। मां को दोनों बेटियों की चिंता सताने लगी थी। सुधाजी ने मां को पहले छोटी बहन मुक्ता की शादी करने के लिए मना लिया।

समाज की फिक्र ना करते हुए उन्होंने अपने पिता की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। छोटी बहन ससुराल में खुश थी। दूसरी तरफ सुधाजी की उम्र अब चेहरे पर दिखने लगी थी। खिला खिला चेहरा अब निस्तेज रहने लगा था। यौवन का सौन्दर्य अब ना के बराबर ही था। घर और नौकरी की चक्की में सुधा जी के बहुत से अरमान पिसते रहे थे। रिश्ते आने भी बंद हो गए थे। लोगों की सोच को कोई नहीं बदल सकता। लोगों ने यही सोचा कि जरूर सुधा में कोई खोट होगी तभी छोटी बेटी की शादी कर दी और बड़ी अभी भी घर पर बैठी है।

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ऐसे कई सवालों से जूझती सुधा भूल चुकी थी कि उसके जीवन में भी कभी खुशियां दस्तक देंगी। भाई ने दीदी की मुश्किलें कम करने के लिए पढ़ाई के साथ नौकरी कर ली। सुधाजी की मां अब अक्सर बीमार रहने लगी। सुधा की चिंता में वो घुलती जा रही थी। भाई अजय ने सुधा को बताया कि ऑफिस की एक सहकर्मी राखी से उसे प्रेम है और वे दोनों परिणय सूत्र में बंधना चाहते हैं। घर में फिर एक बार शहनाई बजने लगी और सुधा के भाई की भी शादी हो गई।

मिट्टी से बने पैरों के निशान देख उन्हें राखी की याद आई। बहुत समझदार थी राखी। मां ने उसका गृहप्रवेश ऐसे ही उसके कुमकुम के पैरों की छाप लेकर करवाया था। तब मुक्ता अपने पति के साथ और अजय राखी के साथ बहुत अच्छे लग रहे थे।

सुधाजी के भी अरमान जाग उठे। फिर आइने में खुद को देख खुद से ही पूछने लगी कि “मेरे अरमानों का क्या?” आज इतने सालों बाद फिर एक बार खुद को निहारती सुधाजी खुद से बोली, “अरमानों की आहुति दे दी मैंने।”

भाई – बहन का घर बस चुका था। सुधाजी की मां सुधा की शादी का सपना अपनी आंखो में लिए स्वर्ग सिधार गई थी। सालों बीत गए। सुधाजी अकेले ही रहती। प्रिंसिपल के पद तक पहुंच कर विद्यालय को अलविदा कह दिया था। अभी अतीत की स्मृतियां आंखो से ओझल भी ना हुई थी कि एक आवाज़ सुनाई दी, ‘सुधाजी चाय पी ली क्या?’ ये आवाज़ थी उनकी इकलौती मित्र मनीषा जी की जो उनकी पड़ोसन थी। सुधाजी के हर सुख दुख की साथी। जब भी उन्हें कुछ भी कहना होता मनीषा जी के साथ बात कर लेती।

सुधा जी ने मनीषा जी को जवाब दिया, ‘नहीं, अभी नहीं। तुम आ जाओ यहीं। साथ पी लेंगे। मुक्ता और अजय रोज फोन कर लेते। अजय उन्हें कई बार साथ रहने को भी कहता, लेकिन सुधाजी हमेशा मना कर देती। वो जानती थी कि संबंध बहुत नाज़ुक होते हैं। साथ रहने से उनमें जाने अनजाने कोई दरार ना आ जाए। तभी मनीषा जी आ गई और बोली, ‘चलो टीवी लगाई जाए, अरमानों की डोली सीरियल आ रहा है।’

सुधाजी रिमोट लेने टेबल पर गई और बोली, ‘चलो देखते हैं। मन ही मन बोली, “अरमानों की डोली तो कभी ना उठी मेरी, बल्कि अरमानों की आहुति जरूर दे दी।”

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